**दिवाली की सफाई**
दिवाली का मतलब हर किसी के लिए अलग होता है। जहाँ नौकर-शाहों के लिए दिवाली का अर्थ बोनस और भत्ता है, वहीं बच्चों के लिए यह पटाखे और फुलझड़ी है। बाज़ार के लिए तो दिवाली साल भर का जमा माल निकालने का मौका होती है। और घर की महिलाओं के लिए? उनके लिए दिवाली का मतलब है सफाई।
सफाई एक आयोजन है, जिसकी योजना महीनों पहले बनती है। हिदायतें मिलने लगती हैं, और काम का बंटवारा भी शुरू हो जाता है। मेरी ज़िंदगी में सफाई का अनुभव किसी बुरे सपने जैसा है। इसलिए नहीं कि मुझे खुद सफाई करनी पड़ती है, बल्कि इसलिए कि मुझे सफाई से जुड़ी ढेरों बातें सुननी पड़ती हैं। खासकर तब, जब मेरे शौक की चीज़ों पर जमी धूल साफ़ होती है और मुझे आईना दिखाया जाता है।
“देखो इन्हें, कब तक संभाल कर रखोगे? इतनी जगह घेर रखी है!”
मेरे कैमरे के गियर और फोटोग्राफी के उपकरण, जो कभी बड़े शौक से खरीदे थे, हर बार सामने लाकर पटक दिए जाते हैं। “अब इनका क्या करोगे?”
मैं हर बार वादा करता हूँ, “इस बार ज़रूर काम में लाऊंगा। बस, इस बार इन्हें रहने दो।”
यूँ तो हमने भी कई बार मोहतरमा को सफाई में हाथ बंटाने के लिए कहा है…लेकिन हर बार यही सुनने को मिलता है, “रहने दो, तुम्हारे हाथ में वो सफाई नहीं, बस लीपा-पोती करते हो। खुद के अटाले को भी तो ढंग से साफ-सफाई नहीं करते। अरे, कबाड़ी वाला भी कबाड़ को जांच-परख कर भाव लगाता है, उसकी भी कद्र करनी पड़ती है।”
मतलब सीधी-सीधी चेतावनी है, “ये तुम्हारे शौक का इकट्ठा किया हुआ कबाड़ एक दिन कबाड़ी वाले की तराजू पर तुलने वाला है।”
अब किताबें पढ़ने का शौक चढ़ा है, ढेरों किताबें मंगा ली गई हैं…उन्हें रखने के लिए अलमारियां ढूंढ रहा हूँ। हमारे लिए आबंटित बी.पी.एल. कोटे में कुछ आधी अलमारी नसीब हुई थी, उसमें पहले से ही हमारे पुराने शौक, यानी कि फोटोग्राफी का तथाकथित कबाड़, घोषित अपराधी की तरह पड़ा हुआ है।
श्रीमती जी की हसरत बस यही है कि कब इसे कबाड़ी वाले को बेचकर तड़ीपार कर दें, ताकि नए शौक को जगह मिल सके। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। घर में चारों तरफ नज़र मारता हूँ, तो अलमारियां पहले ही साड़ियों से भरी पड़ी हैं।
सफाई अभियान के दौरान मैंने अपनी मंगवाई गई साहित्यिक सामग्री को इकट्ठा करके डरते-डरते श्रीमती जी के सामने रख दिया है…
“अब इन्हें कहाँ रखोगे?” श्रीमती जी को जगह नहीं दिख रही।
मैंने खुशामद का बुझता हुआ तीर फेंका, “अरे, जितनी जगह तुम्हारे दिल में मेरे लिए है, वहीं से थोड़ा सा कोना खाली करके मेरे इस नए शौक के लिए भी जगह बना लो। घर में जगह अपने आप बन जाएगी।”
लेकिन तीर निशाने पर नहीं लगा, उल्टा बूमरैंग की तरह मेरे पास ही वापस आ गया…
“देख नहीं रहे हो तुम, कहाँ रखूं इन्हें? इस साल तो संभव नहीं है…वैसे मुझे पता है तुम्हारे शौक का। जैसे और पुराने शौक टिके नहीं, यह भी अगले साल तक टिक पायेगा, इसमें कोई भरोसा नहीं।”
साफ़ है…श्रीमती जी इंतजार कर रही हैं अगले साल का। किताबें भी अपराधियों की भांति उनके सामने पड़ी हैं, सजा सुनने के इंतजार में।
खैर, हमने एक लाल कपड़े में बांधकर, बिल्कुल वकीलों की फाइलों के ढेर की तरह, उनके ऊपर रस्सी बांध दी है। रस्सी में गांठ लगाकर, बिल्कुल पांडुलिपि का रूप दे दिया है। वैसे भी प्राचीनतम समय में किसी पुराने साहित्यकार को इसी परेशानी का सामना करना पड़ा होगा। श्रीमती जी की ज़िद के आगे झुककर उसने भी इसी तरह गठरी में बांधकर रस्से में गाँठ लगाई होगी। गांठ का ही आगे चलकर ‘ग्रंथ’ शब्द अस्तित्व में आया है। चलिए, हमने भी पुरातन परंपरा को अपनाते हुए इन्हें ग्रंथ का रूप दे दिया है।
इसी बीच मैंने एक निवेदन किया है, “प्रिय, अगली बार एक शीशे वाली अलमारी बनवा लो न हमारे लिए। आपकी साड़ियों की तरह हमारी किताबें भी सज जाएंगी। इनके आगे कुर्सी-टेबल लगाकर, बैकग्राउंड में इनका फोटो खींचेंगे, तो अच्छा इंप्रेशन पड़ेगा। शायद साहित्यकारों की श्रेणी में हमारा नाम आ जाए। कुछ दो-चार पुरस्कार तो इसी के बदले झटक लें हम।”
इतने में कुछ डॉक्टर के जर्नल्स, देसी नुस्खे, हास्य उपन्यास, पति-पत्नी के मधुर संबंधों के टिप्स वाली पुस्तकें, जंतर-मंतर की किताबें, भविष्यफल, रसीद बुक्स और मेडिकल कोर्स की किताबें भी आकर ढेर में शामिल हो जाती हैं। “इन्हें भी इनके साथ बांध दूं?”
मैं देख रहा हूँ, साहित्य का फैलता साम्यवाद…साहित्यिक पूंजीवाद का ऐसा हनन।
अब वहाँ से जाना ही उचित लगा। अपना ग़म भुलाने और अपनी व्यथा साझा करने के लिए मैं सुबह-सुबह पड़ोसी दोस्त के पास चला गया। दरवाज़ा खटखटाया, तो भाभी जी ने दरवाजा खोला। मैंने पूछा, “उस्ताद कहाँ हैं?”
बोलीं, “आओ, अंदर आओ भाई साहब।”
अंदर गया, तो उस्ताद नजर नहीं आए। ऊपर नजर उठाई, तो देखा, उस्ताद एक ताक में टंगे हुए थे, धूल-धूसरित। हाथ में एक झाड़ू… आँखों में नमी… उदास सा चेहरा… कुछ बोलते नहीं बन रहा भाई को।
मैं तुरंत वहाँ से खिसक लिया।
सोच रहा था…दिवाली सबके लिए कुछ न कुछ गम लेकर आती ही है। कोई सफाई में हाथ बंटाने से दुखी है, तो कोई सफाई में हाथ नहीं बंटवाने से। दुनिया में कितने ग़म हैं!
बस खाकसार और क्या कर सकता अहै,कुछ शेर ही अर्ज कर सकता है, आप चाहे तो इन्हें ग़ालिब का शेर समझकर थोड़ी सी इज्जत दे सकते हैं
“इन्हें संभालने की कोशिश में उम्र निकल गई,
बिखरी पड़ी थी ये ज़िंदगी कुछ किताबों की तरह।”
“शौक-ए-परवाज़ था, मगर अपने पर नहीं थे,
जो सोचते रहे , वो कभी जमीन –ए – ३एन्ल;हकीकत नहीं थे ।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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