अथ खालीदास साहित्यकथा
यह कथा है कवि खालीदास की—
जो खाली बैठे जरूर है ,लेकिन खाली पीली खयाली पुलाव पकाने की जगह साहित्य की बेस्वाद खिचडी जो पक रही है उसके बारे में हमें चेता रहे हैं ।
“लेखक बनते आज सब, फेसबुकिया छाप।
सुबह–शाम जपते रहे, मैसेंजर पर जाप।।”
आज के लेखक फेसबुक पर ही लेखकत्व की ठप्पी जड़ देते हैं।
छपाई–प्रकाशन बेमानी है।
लाइक–कमेंट–शेयर ही इनका अन्न–जल है।
“इनबॉक्स” ही पाठक है और “लाइक” ही पुरस्कार।
“पाठक को अब ज्ञान से, लेना है न काम।
सेल्फी संग किताब की, हो जाएगा नाम।।”
अब पाठक पढ़ता नहीं, किताब को सजाता है।
सेल्फी लेकर व्हाट्सऐप स्टेटस पर चिपका देता है।
पुस्तकालय की जगह अब “लाइकालय” चल रहा है।
“पुरस्कार की दौड़ में, खेमों का व्यापार।
लेखक कम समीक्षक अधिक, मंच हुए बाज़ार।।”
साहित्य का मंदिर अब पुरस्कार–मंडप बन गया।
लेखक खेमों में बँटे हैं, समीक्षक रेट–कार्ड लिए फिरते हैं।
मंच पर कविता कम, तिकड़म ज़्यादा बिकती है।
“भोंडापन सम्मेलन का, सब ही बजा रहे गाल।
जोक–चुटकी–फब्तियों से, हो रहे मालामाल।।”
साहित्य–सम्मेलन अब मखौल हैं।
मंच पर चमचों की गूँज, आलोचना की टर्र–टर्र और कवियों की रस्म–अदायगी। भोंडे इशारे ,अश्लील चुटकले ,फब्तियां साहित्य की काश क्रॉप हो चुकी हैं l
श्रोता ऊँघते हैं, पर आयोजक तृप्त हैं।
“साहित्य का गह्वर यही, दिखता है प्रतिपल।
फेकबुकिये बने नामवर, खेमेबाज़ी दलदल।।”
आज साहित्यकार फेसबुक–नायक है।
पोस्ट जितनी लंबी, उतनी बड़ी “कृति” मानी जाती है।
उपमा और श्लेष से साहित्य का खोखलापन उजागर है।
“ट्विटरबाज ट्वीट करैं, फेसबुकिये मचलाय।
सेल्फी–क्वीन दण्डी लिए, इठलाती बलखाय l l
साहित्य रंगमंच नहीं, सेल्फी मंच बन चुका है।
ट्विटरबाज अपनी “ट्वीट–कविता” से ठहाके बटोरते हैं, फेसबुकिये हर पोस्ट पर मचल–मचलकर कमेंट ठोकते हैं,और मंच पर नहीं, बल्कि मोबाइल कैमरे के सामने सेल्फी–क्वीन दण्डी (सेल्फ़ी–स्टिक) लिए ऐसे इठलाती हैं मानो साहित्य की देवी वही हों।
“खेमेंबाज गुरु बने, पटबाज शिष्य अनूप।
कागज़ कम, कमीशन अधिक—यही है असली रूप।।”
पुरस्कार–पंक्ति में हर पटबाज शिष्य खड़ा है।साहित्य अब कृति से नहीं, कमीशन से चलता है।आज साहित्य में गुरु–शिष्य परंपरा भी खेमेंबाज़ी की ठेकेदारी बन चुकी है। गुरु जी अगर किसी खास खेमे से हैं तो उनके पटबाज शिष्य भी उसी लाइन में पुरस्कार की कतार में खड़े रहते हैं।रचनाओं का काग़ज़ कम है, पर कमीशन और जुगाड़ ज़्यादा है।यानी असली साहित्य कहीं खो गया है और मंच पर बचा है सिर्फ़ “गुरु–शिष्य खेमेबाज़ी का व्यापार”।
“फेसबुकिये कविराज हैं, ट्विटरबाज महंत।
रीलबाज सब हो गए, लाइकपुरुष अनंत।।”
आजकल का कवि दरअसल मंच पर नहीं, मोबाइल की स्क्रीन पर विराजमान है।
जो कभी कविराज और महंत बने मंच पर रस घोलते थे, अब वे फेसबुक की टाइमलाइन और ट्विटर की थ्रेड पर झाड़–फूँक कर रहे हैं।रील बनाने वाले कविगण ऐसे इठलाते हैं मानो किसी क्रांति की धारा बहा दी हो, और लाइकपुरुषों की फौज अंगूठे से ही साहित्य का इतिहास लिख रही हो।यानि, मंच सूना है, स्क्रीन भरी है—
जहाँ कविता कम और ‘नेट पैक’ की वैधता ज़्यादा मायने रखती है!
“खिचड़ी साहित्य पक रहा, गरम मसाला मार।
पाठक वाह–वाह ही करे, पढ़ने से इनकार।।”
आज साहित्य खिचड़ी है— विचारों का पुलाव, भाषा का चावल और भावों का बेसुरा तड़का। ऊपर से आयोजक ने उस पर व्यंग्य का गरम मसाला डाल दिया। पाठक थाली देखकर “वाह–वाह” करता है, फोटो खींचकर स्टेटस पर डाल देता है, लेकिन चम्मच उठाकर चखने की हिम्मत कोई नहीं करता।
“पुरस्कार की दौड़ है, चूहे–बिल्ली खेल।
आयोजक–प्रकाशक करें, ग़लम–पेल का मेल।।”
साहित्य अकादमी अब पुरस्कार–भोजशाला है।
भूख साहित्य की नहीं, कुर्सी की है।साहित्य में पुरस्कार की दौड़ अब बिलकुल चूहे–बिल्ली का खेल बन चुकी है।
कभी आयोजक भागते हैं, कभी लेखक पकड़ाते हैं, तो कभी प्रकाशक बीच में चूहों की तरह दाना समेटते हैं।
“घालम –पेल” का मतलब है कि कलम की जगह धक्का–मुक्की और जोड़–तोड़ से काम चलता है।
यानी साहित्य से ज़्यादा दौड़ लॉबी और सेटिंग की है
“लाड़ले मंचों पर चढ़े, दगाबाज दल पास।
चुहलबाज समीक्षक बने, सत्य रहा उदास।।”
आजकल के साहित्यिक मंचों पर वही चढ़ते हैं जो आयोजकों के लाड़ले हों।
सच कहने वाला कोना ढूँढता रह जाता है, जबकि दगाबाज दल सामने की कुर्सी पर आराम से पान चबाता है।
समीक्षक भी अब आलोचक कम, चुहलबाज ज़्यादा हैं— कविता की मीमांसा नहीं, चुटकुले और तंज़ सुनाकर तालियाँ बटोरते हैं।
बीच बेचारा सत्य पीछे पंक्ति में उदास बैठा जम्हाई ले रहा है।
“रीलबाज कविगण हुए, कविता बनी है रील।
दो मिनट नूडल साहित्य, बीस सेकंड की डील।।”
आजकल कविता कोई साधना नहीं रही, वह रील में सिमट गई है।
कवि अब छन्द नहीं गढ़ते, बल्कि कैमरा ऑन करके बैकग्राउंड म्यूज़िक में भाव उड़ेलते हैं।
नतीजा यह कि साहित्य “दो मिनट नूडल” हो गया है— झटपट तैयार और तुरंत परोसा जाने वाला।
बीस सेकंड की रील में ही कवि महोदय दुनिया बदलने का दावा कर देते हैं, और दर्शक स्क्रोल करके अगले वीडियो में चले जाते हैं।
“लाइकपुरुष की मान्यता, अंगूठे में समाई।
साहित्य की साधना अब, नेट–पैक में समाई।।”
साहित्य की तपस्या अब अंगूठे के स्पर्श तक सीमित है।
“लाइक” ही उपाधि है।साहित्य अब अंगूठे का खेल और मोबाइल रिचार्ज का मेल है;
साधना की जगह “डेली डेटा लिमिट” तय करती है कि लेखक कितना बड़ा है!
“खालीदास कहि अराज यह, सुन ले सजग समाज।
साहित्य पड़ा बीमार है, कोई ढूँढ़ो इसका इलाज।।”
अंततः कवि खालीदास चेतावनी देते हैं—
साहित्य बीमार है, इलाज करो वरना यह चूहे–बिल्ली के खेल में ही दम तोड़ देगा।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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