वे स्थान जहां नहीं किया जाता रावण दहन
विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
हर वर्ष अश्विन मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को पूरे भारत में दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन देश के कोने-कोने में रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के विशाल पुतले तैयार किए जाते हैं और उन्हें आग के हवाले कर दिया जाता है। यह परंपरा बुराई पर अच्छाई की विजय, अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। लेकिन भारत की सांस्कृतिक विविधता इतनी व्यापक और गहरी तथा समावेशी है कि यहां कई ऐसे स्थान भी हैं जहां रावण को खलनायक के रूप में नहीं देखा जाता। इन स्थानों पर रावण को एक महान विद्वान, शिव के परम भक्त, कुशल शासक और यहां तक कि पूजनीय देवता के रूप में भी स्मरण किया जाता है। यहां रावण दहन नहीं किया जाता। ये परंपराएं हमें बताती हैं कि भारतीय संस्कृति में हर कहानी के एक से अधिक पहलू हैं और विभिन्न दृष्टिकोणों को समान सम्मान दिया जाता है।
बिसरख: रावण की जन्मभूमि
उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा के निकट स्थित बिसरख गांव शायद रावण से जुड़े सबसे महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। यहां के निवासी गर्व से बताते हैं कि यह स्थान रावण की जन्मभूमि या उनका ननिहाल है। प्राचीन धार्मिक ग्रंथों और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, महाप्रतापी रावण ने इसी धरती पर जन्म लिया था। गांव में स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर इस परंपरा का मूक गवाह है, जहां आज भी भगवान शिव के साथ-साथ रावण की भी पूजा की जाती है।
बिसरख के लोगों का विश्वास है कि रावण ने इसी स्थान पर भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। शिवपुराण में भी इस गांव का उल्लेख मिलता है, जो इस मान्यता को और भी पुख्ता करता है। यहां दशहरे के दिन कोई रावण दहन नहीं होता। इसके विपरीत, ग्रामीण रावण की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं और उन्हें एक महान विद्वान के रूप में याद करते हैं। उनका मानना है कि रावण में कई अवगुण थे, लेकिन उनकी विद्वता, भक्ति और पराक्रम को नकारा नहीं जा सकता। इस गांव के निवासियों के लिए रावण केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि उनकी विरासत का हिस्सा है।
मंडोर: जहां रावण हैं दामाद
राजस्थान के जोधपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित मंडोर एक और ऐसा स्थान है जहां रावण को सम्मान दिया जाता है। यह स्थान रावण की पत्नी मंदोदरी की जन्मभूमि माना जाता है। मंदोदरी असुर शिल्पकार मयासुर की पुत्री थीं, जो इसी मंडोर के शासक थे। इस रिश्ते के चलते यहां के लोग रावण को अपना दामाद मानते हैं और उनके प्रति गहरा सम्मान रखते हैं।
मंडोर में दशहरे का त्योहार पूरे देश से अलग तरीके से मनाया जाता है। यहां न तो रावण का पुतला बनाया जाता है और न ही उसे जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि रावण एक महान शासक, विद्वान और योद्धा थे। उनकी मृत्यु पर शोक मनाया जाता है, उत्सव नहीं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और मंडोर की पहचान बन गई है। यहां के मंदिरों में रावण को याद किया जाता है और उनके गुणों का गुणगान होता है। यह स्थान हमें सिखाता है कि रिश्तों की मर्यादा और स्थानीय परंपराएं कैसे धार्मिक मान्यताओं से भी ऊपर हो सकती हैं।
मंदसौर, मध्य प्रदेश…
कुछ ग्रंथों और स्थानीय लोगों के अनुसार, मंदसौर को रावण की पत्नी मंदोदरी का जन्मस्थान माना जाता है, जिसकी वजह से रावण यहां दामाद के रूप में सम्मानित है। मान्यता है कि मंदोदरी की विदाई के बाद रावण ने यहां के ब्राह्मणों को आशीर्वाद दिया था। दशहरा के दिन रावण के 35 फुट ऊंचे पुतले का निर्माण तो होता है, लेकिन उसे जलाने के बजाय पूजा की जाती है। इसके अलावा, शहरवासी रावण की मृत्यु पर शोक मनाते हुए अपने घरों के लाइट बंद कर देते हैं। यह परंपरा रावण के विद्वान और शिवभक्त स्वरूप को दर्शाती है।
कांकेर, छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में यह उत्सव एक अलग ही रंग में रंगा होता है। यहां रावण को अधर्म का प्रतीक नहीं, बल्कि कुलदेवता और पूर्वज के रूप में पूजा जाता है। दशहरा के दिन रावण दहन के बजाय उनकी पूजा, आरती और लोक नृत्यों का आयोजन होता है। कांकेर को रावण वंशियों का अभयारण्य माना जाता है, जहां स्थानीय जनजातियां और ब्राह्मण समुदाय रावण को ‘भरतेश्वर’ या ‘रावण बाबा’ कहकर सम्मानित करते हैं।
विदिशा का रावंग्राम, मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के रावंग्राम में रावण को ‘रावण बाबा’ कहा जाता है। यहां 10 फुट की शयन मुद्रा वाली रावण की मूर्ति की पूजा होती है। ग्रामीण खुद को रावणवंशी मानते हैं और दशहरा पर उनकी पूजा करते हैं। विवाह जैसे अवसरों पर रावण को आमंत्रित करने की परंपरा भी है।
बेंगलुरु, कर्नाटक
कर्नाटक के बेंगलुरु में एक अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। हालांकि, बेंगलुरु में रावण दहन की परंपरा मौजूद है, लेकिन यह उत्सव मुख्य रूप से मां चामुंडेश्वरी की पूजा और मैसूर दशहरा की सांस्कृतिक भव्यता से जुड़ा है। बेंगलुरु में रावण को केवल खलनायक नहीं, बल्कि एक विद्वान और शिवभक्त के रूप में भी सम्मान दिया जाता है, और कुछ समुदायों में उसकी पूजा की परंपरा भी देखने को मिलती है।
कांगड़ा घाटी: जहां रावण ने पाया मोक्ष
हिमाचल प्रदेश की खूबसूरत कांगड़ा घाटी में स्थित बैजनाथ क्षेत्र रावण की शिव भक्ति का प्रमाण है। यह वह पवित्र भूमि है जहां, स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, रावण ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। कहा जाता है कि रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें यहीं दर्शन दिए थे और अंततः उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।
कांगड़ा के लोग रावण को एक महान तपस्वी और शिव के सच्चे भक्त के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए अपना शीश तक काट दिया था और शिव तांडव स्तोत्र की रचना की थी। इस क्षेत्र में रावण दहन नहीं होता क्योंकि यहां के निवासी मानते हैं कि भक्ति में डूबा हुआ व्यक्ति कभी भी पूर्णतः बुरा नहीं हो सकता। रावण के चरित्र में जो भी कमजोरियां थीं, वे उनकी भक्ति और तपस्या के सामने गौण हो जाती हैं। बैजनाथ मंदिर क्षेत्र में आज भी श्रद्धालु रावण को एक महान भक्त के रूप में याद करते हैं।
गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़: आदिवासी परंपराओं में रावण
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में आदिवासी समुदाय रावण को अपना कुल देवता मानते हैं। इन क्षेत्रों में रावण की नियमित पूजा-अर्चना होती है और उन्हें अपने पूर्वज के रूप में देखा जाता है। दशहरे के दिन यहां विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है, लेकिन रावण का पुतला जलाना सख्त वर्जित है।
गढ़चिरौली के आदिवासी समुदाय का मानना है कि रावण उनके कुल के महान पूर्वज थे जिन्होंने अपने समुदाय का नाम रोशन किया। वे रावण को एक महान योद्धा, विद्वान और अपने लोगों का रक्षक मानते हैं। छत्तीसगढ़ के कांकेर और आसपास के क्षेत्रों में भी दशहरा अलग तरीके से मनाया जाता है। यहां रावण दहन की बजाय अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जो स्थानीय परंपराओं और मान्यताओं को दर्शाते हैं।
दशहरा केवल बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह हमें अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पाने की प्रेरणा भी देता है। रावण के चरित्र में अहंकार, काम, क्रोध और लोभ जैसी बुराइयां थीं, लेकिन साथ ही उनमें ज्ञान, भक्ति, पराक्रम और कला के प्रति लगाव जैसे गुण भी थे। कुछ स्थानों पर रावण की पूजा यह दर्शाती है कि हमें व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को समझना चाहिए, न कि केवल उसकी कमियों या गलतियों को।
बिसरख, मंडोर, कांगड़ा, गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़ जैसे स्थान हमें याद दिलाते हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। ये परंपराएं हमें सिखाती हैं कि किसी भी व्यक्ति या घटना को समझने के लिए हमें खुले मन और व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। ये स्थान भारत की उस महान परंपरा के वाहक हैं जो ‘एकम सत , विप्रा बहुधा वदन्ति’ यानी ‘सत्य एक है, विद्वान उसे अनेक प्रकार से कहते हैं’ के सिद्धांत पर आधारित है।
अंततः, ये परंपराएं हमें यह संदेश देती हैं कि भारतीय संस्कृति की असली ताकत उसकी विविधता में है, उसकी समावेशिता में है और विभिन्न विचारों को समान सम्मान देने की उसकी क्षमता में है। दशहरे के इस पावन पर्व पर हमें न केवल बुराई पर अच्छाई की विजय का उत्सव मनाना चाहिए, बल्कि इस बात की भी सराहना करनी चाहिए कि हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध और बहुआयामी है।

विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
बहुत अच्छी जानकारी मिली 🙏
thanks
very nicw post