“गरमा-गरम फुल्के की तलाश”
मध्यमवर्गीय परिवारों में शादी का असली सवाल दहेज या कुंडली का नहीं होता—शर्त बस एक होती है: “बहू को खाना बनाना आता है या नहीं?” शादी टिकी रहे ,तलाक की नौबत नहीं आये यह इसी बात पर निर्भर करता है की बहु को खाना बनाना आता है या नहीं l
घर में चार सदस्य और चार स्वाद। किसी को पनीर चाहिए, किसी को गोभी, किसी को आलू-परांठा, तो किसी को सिर्फ दाल। लेकिन कोई समझौता नहीं। डाइनिंग टेबल सजावट की चीज़ होती है , असली खाना तो बिखरा हुआ “किचन-बैठक-टीवी रूम” में चलता है । और अंत में, वही गृहिणी—जो दिन भर चूल्हे पर तपती—बचा-खुचा, ठंडा खाना खाकर संतोष कर लेती है ।
बब्बन चाचा का भी यही सपना था। वे बेटे को इसीलिए पाल-पोस रहे थे कि बड़ा होकर कमाएगा, फिर इसकी शादी करेंगे ताकि घर में एक गरमा-गरम फुल्का बनाने वाली बहू आ जाएगी। आखिर उन्होंने बेटे से कहा भी था—“ देख हमें पढी लिखी बहु तो चाहिए ,लेकिन उस से नौकरी नहीं करवाएंगे l अरे कमा तो तू लेता है बेटा, अगर बहु से नौकरी करवाएंगे तो सात पुस्तें थूकेगी हम पर कि ‘देखो बहु की कमाई पर ऐश कर रहे हैं ।” लेकिन अन्दर ही अन्दर जो इच्छा थी वो यही की बस बहु आ जाए एक बार तो गरमागरम फुल्के का आनंद लिया जाए l
कितने ही शादी के प्रस्ताव इसीलिए ठुकरा दिए की , “बहु वही भाये जो गरम गरम फुल्का खिलाये ।” लड़का तीस पार कर गया, पर चाचा की “गरम फुल्का नीति” के आगे कोई लड़की फिट नहीं बैठी।
एक दिन चाची ने थककर कहा, “देखो जी, लड़का कुंवारा रह जाएगा। अब तो ज़माना बदल गया है। लड़कियाँ किचन में कम, कॉन्फ्रेंस कॉल में ज़्यादा मिलती हैं।”
पर चाचा कहाँ मानने वाले! बोले, “कमाने के लिए तो बेटा ही काफी है। बहू अगर काम करेगी, तो नाम हमारे घर का नहीं, दाग लग जाएगा हमारे धर्म पर! और ऊपर से, फुल्का कौन बनाएगा?”
अब मेड रखने का सवाल ही नहीं—“किस जात की आ जाएगी, रसोई में पाँव रखते ही धर्म नष्ट!”
आख़िर एक दिन समझौता करना ही पड़ा ,लडकी वालों की शर्त पर ही शादी हो ही गई। “देखिये जी, हमें तो बेटी की पढ़ाई पर ध्यान दिया,रसोई के कम के लिए तो शुरू से ही मैड राखी है l रसोई का काम ज्यादा नहीं आता ,बस चाय बना लेती है ,नूडल्स और पोहे भी बना लेती है ।“ चाची बोलीं, “कोई बात नहीं, हेल्प तो कर ही देगी न रसोई में । बाकी हम हैं न—टीमवर्क से काम चल जाएगा।”
टीमवर्क चला भी… कुछ दिन तक। चाची दाल उबालतीं, बहू इंस्टाग्राम रील के लिए उस पर तड़का लगाती। लेकिन एक दिन बहू ने जोश में आकर रील बनाते हुए लाल मिर्च कुछ ज़्यादा ही झोंक दी—तेल में आग लग गई। किचन की दीवारें जो इन सास-बहु की जुगलबंदी से वैसे ही उबाल पर थी ,आज तो देखते-देखते राख हो गईं, और साथ ही बब्बन चाचा के गरमा-गरम फुल्कों वाले अरमान भी धुएँ में उड़ गए।
अब चाचा हर शाम सूखे मुँह से कहते हैं—
“ज़माने लद गए गरम फुल्का खाए.तुम्हारी चची के घुटने बोल गए और बहु है की ‘इंस्टा-वाली रोटी’ ही बनाती है—स्क्रीन पर गर्म, प्लेट में ठंडी।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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