साहित्य का नोबेल पुरस्कार वह क्षण होता है, जिसकी प्रतीक्षा हर वर्ष पूरी दुनिया करती है—और हिंदी साहित्य तो मानो 1913 से ही इस प्रतीक्षा में साँसें गिन रहा है। जब रवींद्रनाथ ठाकुर को उनके कविता-संग्रह गीतांजलि के लिए यह सम्मान मिला था, तब लगा था कि अब भारतीय भाषाओं की सृजनशीलता विश्व मंच पर एक स्थायी स्थान पा लेगी। किंतु एक शताब्दी से अधिक बीत जाने पर भी यह सम्मान किसी अन्य भारतीय भाषा के हिस्से नहीं आया। ऐसे में जब 2025 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार हंगरी के लेखक ला:स्लो क्रॉस्नॉहोरकै को मिलने की घोषणा हुई, तो स्वाभाविक रूप से साहित्य-जगत में उत्सुकता का ज्वार उठा।
क्रॉस्नॉहोरकै का नाम भले ही भारतीय पाठकों के लिए अभी कुछ अपरिचित हो, लेकिन यूरोपीय साहित्य में वे पिछले चार दशकों से एक अनूठी आवाज़ के रूप में पहचाने जाते हैं। उनका जन्म 1954 में हंगरी के छोटे से नगर ग्युला में हुआ। आरंभ में उन्होंने कानून की पढ़ाई की, पर जल्द ही उन्हें लगा कि मनुष्य के भीतर की अराजकता को क़ानून नहीं, केवल शब्द ही समझ सकते हैं। तब से उन्होंने लेखन को जीवन का केंद्र बना लिया। वे लंबे समय तक साहित्य, दर्शन और अनुवाद से जुड़े रहे और धीरे-धीरे अपने विशिष्ट लेखन-शैली के कारण चर्चित हो गए।
उनका पहला उपन्यास सैटनटैंगो (Satantango) 1985 में प्रकाशित हुआ—और तभी से उन्हें “अंधकार का शिल्पी” कहा जाने लगा। उनकी कथाएँ निराशा, अस्थिरता और अराजकता से उपजी उस विडंबना को उजागर करती हैं, जो आधुनिक मनुष्य की पहचान बन चुकी है। वे अपने पात्रों को किसी ठोस जमीन पर नहीं, बल्कि मन की धुंधली गलियों में टहलाते हैं—जहाँ सब कुछ अस्पष्ट, पर जीवंत होता है। उनकी दुनिया एक तरह की अंतहीन प्रतीक्षा और मानसिक दबाव से भरी होती है, मानो जीवन एक लूप में अटका हुआ हो।
उनकी लेखन-शैली की सबसे बड़ी पहचान है उनके अविराम वाक्य। वे एक ही वाक्य में कई पृष्ठ लिख देते हैं। यह पढ़ना आसान नहीं होता, पर जो पाठक उनके भीतर उतरता है, वह एक अजीब-सी सम्मोहनकारी लय में बहने लगता है। ऐसा लगता है जैसे कोई नदी शब्दों के रूप में बह रही हो, जिसमें अर्थ बार-बार डूबते-उतरते हैं। इस निरंतर प्रवाह में कोई निश्चित विराम नहीं—केवल विचारों का भँवर है। यही कारण है कि आलोचक उनकी शैली को “कथा नहीं, अनुभव” कहते हैं।
उनकी कृतियों में गाँव और शहर दोनों हैं, लेकिन उनके भीतर का मनुष्य हमेशा अकेला है। समाज से टूटा हुआ, स्वयं से भी असंतुलित। उनके पात्र प्रायः एक ऐसे युग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सभ्यता की प्रगति से नहीं, उसकी थकान से उपजा है। द मेलन्कॉली ऑफ़ रेसिस्टेंस जैसी रचनाएँ इस थकान को सामाजिक प्रतीकों में रूपांतरित करती हैं—जहाँ एक गिरता हुआ शहर, एक विशाल मृत व्हेल और एक बेचैन भीड़ मिलकर मानवता की जर्जर स्थिति का बिंब रचते हैं।
क्रॉस्नॉहोरकै की भाषा में एक दृश्यात्मकता है—हर वाक्य चित्र बनाता है, हर चित्र विचार को जन्म देता है। उनका लेखन पेंटिंग जैसा है, जहाँ प्रकाश और अंधकार दोनों के बीच कुछ ऐसा घटता है जो पूरी तरह दिखता नहीं, पर महसूस होता है। वे किसी समाजशास्त्री की तरह विश्लेषण नहीं करते, बल्कि किसी कवि की तरह वातावरण में अर्थ घोलते हैं। यही कारण है कि उनका साहित्य बौद्धिक होने के साथ-साथ भावनात्मक भी है।
उनके लेखन में एक प्रकार की आध्यात्मिक बेचैनी है। वे ईश्वर के अस्तित्व से अधिक मनुष्य की सीमाओं में रुचि रखते हैं। उनके पात्र किसी धार्मिक प्रश्न से नहीं, बल्कि अपने भीतर के शून्य से जूझते हैं। यह संघर्ष उन्हें आधुनिक युग के ‘दार्शनिक कथाकारों’ की श्रेणी में रखता है। वे फ्रांज़ काफ्का, सैमुअल बेकेट और थोमस बर्नहार्ड की परंपरा के उत्तराधिकारी माने जाते हैं, लेकिन उनका स्वर उनसे अलग है—कम शोरगुल वाला, अधिक स्थिर, और अधिक गहरा।
उनकी रचनाओं का अनुवाद किसी चुनौती से कम नहीं। उनके लंबे वाक्यों की लय, विचारों की घुमावदार गति और प्रतीकों की गहराई को किसी दूसरी भाषा में जीवित रखना कठिन कार्य है। फिर भी, दुनिया के अनेक अनुवादकों ने यह जोखिम उठाया है। उनके लेखन की वैश्विक लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि पाठक कठिन भाषा से नहीं, गहराई से डरते हैं—और जब वही गहराई किसी सच्चे कलाकार के शब्दों में मिलती है, तो वे उसे आत्मसात कर लेते हैं।
अब जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है, तो यह तय है कि उनकी रचनाएँ हिंदी समेत अन्य भाषाओं में भी तेजी से अनूदित होंगी। यह हिंदी पाठकों के लिए एक अवसर है—कठिन लेकिन प्रेरक। क्योंकि क्रॉस्नॉहोरकै का साहित्य हमें बताता है कि भाषा केवल विचारों की गाड़ी नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा का विस्तार है। वे दिखाते हैं कि किस प्रकार शब्द अपने भीतर एक पूरा ब्रह्मांड समेट सकते हैं, जहाँ न कोई आरंभ है, न अंत—केवल प्रवाह है, केवल खोज है।
हिंदी साहित्य के लिए यह समय आत्ममंथन का भी है। जब दुनिया ऐसे लेखकों को सम्मान दे रही है जो मनुष्य के अस्तित्व, समाज की विफलताओं और विचार की जटिलताओं को नई भाषा में कह रहे हैं, तब हिंदी को भी अपने भीतर झाँकना होगा—क्या हम भी इतनी गहराई तक उतर पा रहे हैं? क्या हमारी भाषा भी उस वैश्विक संवाद का हिस्सा बन पा रही है, जहाँ साहित्य केवल क्षेत्रीय अनुभव नहीं, बल्कि सार्वभौमिक चेतना का दस्तावेज़ होता है?
ला:स्लो क्रॉस्नॉहोरकै का नोबेल इसीलिए केवल एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं है—यह उस लेखन का उत्सव है, जो कठिन होते हुए भी मानवता को जोड़ता है। यह हमें याद दिलाता है कि साहित्य का असली मूल्य उसकी लोकप्रियता में नहीं, उसकी सहनशील गहराई में है। वह गहराई जो शब्दों से नहीं, मौन से संवाद करती है। शायद इसी दिशा में हिंदी साहित्य को भी अब कदम बढ़ाने की ज़रूरत है—जहाँ शब्द केवल कहे नहीं जाते, जीए जाते हैं।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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