आत्मबोध से विश्वबोध तक — चेतना की वह यात्रा जो मनुष्य को ‘मैं’ से ‘हम’ बनाती है
मनुष्य की सबसे बड़ी भूल यह नहीं कि वह अज्ञानी है, बल्कि यह कि वह स्वयं को जानने का प्रयत्न नहीं करता। आज का समाज जानकारी से भरा हुआ है, पर चेतना से खाली है। यही कारण है कि हमें आत्मबोध की नहीं, सूचनाबोध की आदत पड़ गई है। हम जानते बहुत हैं, समझते कम हैं; सुनते बहुत हैं, पर भीतर कुछ जागता नहीं।
आत्मबोध: स्वयं से साक्षात्कार
आत्मबोध का अर्थ केवल यह नहीं कि “मैं कौन हूँ” — बल्कि यह भी कि “मैं क्यों हूँ।”
यह मनुष्य का सबसे पहला और सबसे कठिन प्रश्न है। जब तक व्यक्ति अपने भीतर के ‘मैं’ से परिचित नहीं होता, तब तक वह संसार को कैसे समझेगा?
हमारे शास्त्रों ने सदियों पहले यह सूत्र दिया — “अहं ब्रह्मास्मि” — यानी ‘मैं ब्रह्म हूँ’, परंतु इस वाक्य का अर्थ यह नहीं कि मैं ईश्वर हूँ, बल्कि यह कि मेरे भीतर भी वही प्रकाश है जो इस ब्रह्मांड को आलोकित करता है। यही आत्मबोध है — जब मनुष्य अपने भीतर झांककर उस प्रकाश को पहचान लेता है।
आज साहित्य, कला, और सृजन से जुड़े लोगों का दायित्व सामान्य जन से कहीं अधिक है। समाज अपने राजनेता से बहस करता है, व्यापारी से सवाल पूछता है, पर कवि, लेखक, या चिंतक से प्रमाण नहीं मांगता — क्योंकि उसका शब्द सत्य का प्रतिरूप माना जाता है।
तुलसी, कबीर, मीरा, नानक — इन सबके वचन समाज में अविचल सत्य की तरह स्वीकृत हुए। यही हमारी परंपरा का विश्वास है — कि लेखक जब लिखता है, तो वह केवल शब्द नहीं रचता, वह मानस का मार्गदर्शन करता है। इसलिए आत्मबोध का अभाव केवल व्यक्तिगत हानि नहीं, सामाजिक क्षति भी है।
संस्कृति और समरसता का बोध
आत्मबोध जब परिपक्व होता है, तो वह सीमाओं को तोड़कर विश्वबोध में परिणत होता है। यह वही क्षण है जब व्यक्ति समझता है कि “मैं” और “तू”, “हिंदू” और “बौद्ध”, “जैन” और “सिख” — यह सब अलग-अलग नाम हैं, पर सार एक ही है — सनातन।
सनातन किसी धर्म का नाम नहीं, वह काल से परे, स्थान से परे एक विचार है — एक ऐसी चेतना जो हर युग, हर भाषा, हर दर्शन में व्याप्त है।
महात्मा बुद्ध ने जब कहा — “अप्प दीपो भव” — तो वे किसी नए धर्म की स्थापना नहीं कर रहे थे, बल्कि सनातन के उसी दीपक को नई लौ दे रहे थे।
जैन धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म — ये सब उस सनातन विचारधारा के विविध स्वरूप हैं, जो समरसता और करुणा पर आधारित हैं।
लेकिन जब समाज में विभाजनकारी शक्तियाँ सक्रिय हुईं, तब उन्होंने इसी समरसता को खंडित किया।
वर्णव्यवस्था, धर्म-भेद, जाति, सम्प्रदाय — ये सब मूलतः जीवन के विविध कर्मों की व्याख्या थे, जिन्हें भेदभाव का औज़ार बना दिया गया।
आज आवश्यकता है कि साहित्यकार, विचारक, और मनीषी इस विकृति को पहचानें — यही सच्चा आत्मबोध है।
क्योंकि आत्मबोध केवल ध्यान की साधना नहीं — यह समाज में समरसता की साधना है।
साहित्यकार का दायित्व: बोध का संचारक बनना
भारतीय समाज की रचना शब्दों पर हुई है। हमारे ग्रंथ, हमारे महाकाव्य, हमारी कहानियाँ — सब विचार की संतानें हैं।
वाल्मीकि समाज के सबसे नीचे माने गए वर्ग से आए, पर वे आदि कवि कहलाए;
वेदव्यास का जन्म कोई प्रतिष्ठित कुल में नहीं हुआ, पर उन्होंने महाभारत जैसा महाग्रंथ दिया।
यह उदाहरण बताते हैं कि आत्मबोध जाति, धर्म या वंश का नहीं, जागरण का विषय है।
आज जब समाज के भीतर विभाजन बढ़ रहे हैं, तब हमें ऐसे उदाहरणों को पुनः सामने लाना होगा — ताकि टूटन के बीच जोड़ने का सूत्र बचा रहे।
मौन बुद्धिजीवी और खोता हुआ दिशा-बोध
स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने लिखा था — “भारतीय समाज का सबसे बड़ा नुकसान उसके बुद्धिजीवियों के मौन से हुआ है।”
यह वाक्य आज और अधिक प्रासंगिक है।
हमारे मनीषी सोचते बहुत हैं, पर कहते कम हैं; और जो कहते हैं, वे प्रायः पढ़ते कम हैं।
जब ज्ञान मौन हो जाता है, तो अंधकार बोलने लगता है।
हमारे शब्द ही प्रकाश हैं, और जब वही मद्धम पड़ते हैं, तो समाज दिशा खो देता है।
विश्वबोध: जब ‘मैं’ मिटता है और ‘हम’ जन्म लेता है
आत्मबोध का अंतिम सोपान विश्वबोध है — जब व्यक्ति अपने अहं के घेरे से निकलकर सम्पूर्ण सृष्टि का अंग बन जाता है।
यह वह स्थिति है जब व्यक्ति केवल स्वयं के उद्धार की नहीं, समस्त जगत के कल्याण की कामना करता है — “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की भावना में जीता है।
यह केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि मनुष्य होने का वास्तविक घोषणापत्र है।
आज दुनिया को जरूरत है ऐसे लोगों की जो अपने भीतर के प्रकाश को पहचानकर दूसरों के अंधकार को दूर करें।
क्योंकि जब तक हर व्यक्ति अपने भीतर का दीप नहीं जलाएगा, तब तक विश्व में उजाला नहीं होगा।
आत्मबोध से विश्वबोध की यह यात्रा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है।
आत्मबोध आपको यह बताता है कि “आप हैं”,
विश्वबोध यह सिखाता है कि “सबमें आप हैं।”
“जब ‘मैं’ का अहं गलता है,
तभी ‘हम’ का प्रकाश खिलता है।
यही यात्रा है — आत्म से विश्व तक।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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