भारतीय दर्शनशास्त्र: जब प्रश्न व्यवस्था माँगते हैं — आत्मबोध से विश्वबोध तक
कभी-कभी सवाल इतने बड़े हो जाते हैं कि बिखरे-बिखरे नहीं रह पाते; जिज्ञासा को ढाँचा चाहिए, और खोज को पद्धति। भारत में ऐसा ही एक समय आया—वेदों के मंत्र सदियों तक गाए जा चुके थे, उपनिषदों के ऋषि अपने दीप्त उद्घाटनों से आत्मा, जगत और मृत्यु के रहस्य पर प्रकाश बाँट चुके थे। जंगलों की शालियाँ, नदी-किनारे की कुटियाँ और गुरु-शिष्य के शांत संवादों में उठे प्रश्न धीरे-धीरे एक नए युग की ओर बढ़े—उत्तर देने के युग की ओर। विचारों की चिंगारियाँ अब धुएँ में उड़ती नहीं रहीं; उन्हें समेटकर अग्नि-वेदिका बनाई गई, और दर्शन की व्यवस्थित शालाएँ खड़ी हुईं। यही वह समय था जब भारतीय चिंतन ने अपने छह द्वार खोले—षड्दर्शन—छह ऐसे “देखने के ढंग” जिनसे वही अनंत सत्य अलग-अलग कोणों से दिखाई देता है।
इन छह दर्शनों को यदि एक यात्रा मानें तो यह यात्रा ‘मैं’ से शुरू होकर ‘हम’ में खिलती है—आत्मबोध से विश्वबोध तक। आइए, इस मार्ग पर धाराप्रवाह चलें—बिना सूचियों के, एक सतत कथा की तरह।
न्याय पहले कदम पर खड़ा है—हाथ में तर्क की मशाल लिए। यह कहता है: सत्य को बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरना होगा। अँधे विश्वास से नहीं, प्रमाण से—प्रत्यक्ष (सीधा अनुभव), अनुमान (निहित निष्कर्ष), उपमान (तुलना द्वारा समझ) और शब्द (विश्वसनीय वचन) से। न्याय मस्तिष्क को तलवार की तरह धार देता है—ताकि हम सही-गलत तर्क अलग कर सकें, भ्रम को पकड़ सकें, और प्रमाण के बिना किसी निष्कर्ष पर न पहुँचें। किसान बादलों को देखकर बारिश का अनुमान लगाता है, वैद्य लक्षणों से कारण भाँपता है, न्यायाधीश साक्ष्यों का वजन करता है—ये सब न्याय की ही रोजमर्रा की प्रतिध्वनियाँ हैं। मुक्ति का पथ चलने से पहले सही सोचना कैसे है, यह न्याय सिखाता है।
वैशेषिक उसी मशाल की रोशनी में संसार की रचना-भूमि पर उतरता है। उसका स्वभाव लगभग वैज्ञानिक है—वह पूछता है: यह जगत बना किससे है? वह कहता है—वस्तु का आधार ‘परमाणु’ हैं; सूक्ष्म, अविभाज्य, परस्पर संयोग से रूप लेते कण। पर वैशेषिक केवल कणों तक नहीं रुकता; वह अस्तित्व को श्रेणियों में व्यवस्थित करता है—द्रव्य (आधार), गुण (रंग-रस-आकृति), कर्म (गति), समय-दिशा (काल-आकाश), मन-आत्मा (अंतर्दृष्टि का आसन)… मानो व्यग्र बाज़ार के शोर में भी वह पैटर्न पहचानना सिखा दे। इस प्रकार वह अव्यवस्था के बीच व्यवस्था दिखाता है—जगह-जगह बिखरे धागों को एक विराट बुनावट में गूँथ देता है।
सांख्य बाहरी नक्शे से भीतर की नक्षत्र-रचना तक आता है। वह दो अनादि तत्त्व उद्घाटित करता है—पुरुष (शुद्ध, साक्षी-चेतना) और प्रकृति (गुणों की प्रवहमान खेप—सत्त्व, रजस्, तमस्)। विचार, भावना, देह, प्रकृति के खेल हैं; पर जो देख रहा है—वह पुरुष—अस्पर्शित, न बदलने वाला। नाटक मंच पर चलता रहता है; दर्शक मौन साक्षी रहता है—सांख्य यही दृष्टि देता है। यह दृष्टि दुःख, परिवर्तन और मुक्ति की अनुभूत समझ है: मैं तरंग नहीं, मैं सागर की निस्तब्ध गहराई हूँ।
योग इस अनुभूति को साधना में ढालता है—मानचित्र को मार्ग बना देता है। पतंजलि का अष्टांग—यम (अहिंसा, सत्य…), नियम (शुचिता, संतोष, स्वाध्याय…), आसन (स्थिरता), प्राणायाम (श्वास की विद्या), प्रत्याहार (इंद्रियों की वापसी), धारणा (एकाग्रता), ध्यान (निरंतर प्रवाह), समाधि (आत्म-ब्रह्म ऐक्य)—यह बताता है कि मुक्ति केवल सोच का विषय नहीं, अनुशासन का अभ्यास है। देह को स्थिर, श्वास को संयत, मन को एकाग्र, और चेतना को निर्मल करने की यह कला सांख्य की अंतर्दृष्टि को देह-मन की भूमि पर उतार देती है।
पूर्व मीमांसा कहती है—“विचार” पर्याप्त नहीं; कर्तव्य ब्रह्मांड का तालमेल है। वेद केवल विचार नहीं, विधि भी हैं—सही कर्म, सही रीति, समर्पण और शुचिता से किया गया धर्म रचयिता की लय में जोड़ता है। सूर्य प्रतिदिन उगता है तो दिन सुनिश्चित होता है; वैसे ही धर्म का यथार्थपालन जीवन-ब्रह्मांड में संतुलन बनाता है। बिना श्रद्धा का अनुष्ठान अधूरा है—और बिना कर्म की श्रद्धा, अधूरा विचार। मीमांसा याद दिलाती है कि दर्शन हवा में नहीं तैरे; वह व्यवहार में साँस ले।
वेदांत इस यात्रा का शिखर है—उपनिषदों की कांति में खिला फूल। वह कहता है—आत्मा (आत्मन्) और ब्रह्म (अनंत वास्तविकता) एक ही हैं। पृथकता का स्वप्न टूटे, तो दीखता है—सर्वं खल्विदं ब्रह्म। आगे इसकी धाराएँ फूटती हैं—शंकर का अद्वैत: केवल ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या की तरह दीखती बहुलता; रामानुज का विशिष्टाद्वैत: जीव-ईश्वर भिन्न भी, अभिन्न भी—देह-प्राण जैसा अखंड संबंध; माध्व का द्वैत: जीव-ईश्वर शाश्वत भेद में बँधे—भक्ति-अनुग्रह से मोक्ष। मत अलग, लक्ष्य एक: अविद्या का अंत, वास्तविकता का साक्षात्कार।
यह कथा यहाँ ठहरती नहीं। सम्वाद भारत की आत्मा है—विवाद भी पवित्र था। बौद्धों का शून्यवाद और जैनों का अनेकान्त—इनके प्रश्नों ने हिंदू दर्शनों की धार तेज की। न्याय ने तर्क की औज़ारशाला समृद्ध की; कर्म-सिद्धान्त संवाद से अधिक सूक्ष्म हुआ; शून्यता की चुनौती के सम्मुख वेदांत ने ब्रह्म की पूर्णता का उद्घोष गहराया। यह कोई जड़ परंपरा नहीं थी—जीवंत, स्पंदित, परस्पर परागण से बढ़ने वाली।
अब इस पूरी यात्रा को एक सूत्र में बाँधिए। न्याय हमें सही सोच सिखाता है, वैशेषिक जगत का विन्यास दिखाता है, सांख्य भीतर की दृष्टि देता है, योग चलने का अभ्यास कराता है, मीमांसा आचरण के लिए धरती देता है, और वेदांत शिखर पर ले जाकर कहता है—“जिसे खोज रहे थे, वह तुम स्वयं हो।” यह केवल दर्शन नहीं, सभ्यता की जीवनी है—जहाँ तर्क और तपस्या, विचार और विधि, दर्शन और धर्म—सब साथ-साथ चलते हैं।
और यही वह बिंदु है जहाँ आत्मबोध विश्वबोध में रूपांतरित होता है। जब मैं न्याय से सीखता हूँ कि भ्रम क्या है; वैशेषिक से कि जगत किस ताने-बाने से बुना है; सांख्य से कि मेरा असली स्वरूप साक्षी है; योग से कि उस साक्षी में ठहरना कैसे है; मीमांसा से कि यह ठहराव भी कर्म के अनुशासन से जुड़ा है; और वेदांत से कि यह सब अंततः उसी एक अनिर्वचनीय में विलीन है—तब “मैं” का दीपक “हम” के आलोक में बदल जाता है। यही भारतीय दर्शन का हृदय है: स्व की खोज सर्व की करुणा में फलती है।
आज की दुनिया, जो सूचना से भरपूर और अर्थ से वंचित हो चली है, फिर से उसी मशाल को पुकार रही है। हमें फिर न्याय की स्पष्टता, वैशेषिक की व्यवस्था-दृष्टि, सांख्य का साक्षी-बोध, योग का अनुशासन, मीमांसा का कर्तव्य-भाव और वेदांत का ऐक्य-अनुभव चाहिए—ताकि ज्ञान पुस्तक के पन्नों से उठकर जीवन के पथ पर चल सके।
समापन में बस इतना—भारतीय दर्शन हमें सिखाता है कि प्रश्न पूछना भी पूजा है, और उत्तर को जीवन बनाना साधना। जब प्रश्न व्यवस्था माँगते हैं और जिज्ञासा पद्धति, तब सभ्यताएँ उठती हैं। और जब आत्मबोध का दिया जलता है, तभी विश्वबोध का उषा-प्रकाश फैलता है—“अहं” की सीमाओं से “वयं” की अनंतता तक।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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