श्री अरविन्द का ‘सावित्री’ महज़ किसी पुराणकथा का काव्यात्मक पुनर्सृजन नहीं है; यह मनुष्य-चेतना की सीमाओं को लाँघने वाली आध्यात्मिक यात्रा का मंत्रमय महाकाव्य है—ऐसा महाकाव्य जिसमें कथा और योग, प्रेम और तर्क, करुणा और जिजीविषा सब एक साथ दीप्त होते हैं। बाहरी कथा सबको ज्ञात है—सावित्री, सत्यवान, और मृत्यु से टकराती स्त्री की अजस्र आस्था। पर ‘सावित्री’ का असली विस्मय वहाँ प्रकट होता है जहाँ यह कथा हमारे भीतर उतरकर हमारी अपनी छुपी हुई संभावनाओं को जगा देती है; जहाँ मिथक मनोभूमियों का मानचित्र बन जाता है, और एक नारी का व्रत सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति की पुकार में बदल जाता है।
आरंभ के शांत, धुँधलके से भरे, “किसी बड़े मोड़ से पहले उतरते” मौन में ही कवि संकेत दे देता है कि यह भूमि केवल दृश्य-प्रकृति की नहीं, अदृश्य कंपन की भी है। एक शक्तिशाली राजा—बाहरी वैभव से भरा, भीतर से रिक्त—जब संतान की कामना से आगे बढ़कर अस्तित्व के अर्थ की खोज में तप करता है, तो ‘कथा’ का कैलिडोस्कोप ‘योग’ के आकाश में बदलने लगता है। साधना के क्रम में उसे समझ आता है कि जीवन केवल जो आँखें दिखाती हैं वह नहीं, उसके पीछे अनुभव-लोकों की परतें हैं—वासनाओं के चमकीले पर खोखले सपनों के लोक, भय और निराशा के अंधकार-प्रदेश, और फिर उन ऊर्ध्व प्रदेशों की चमक जहाँ से कला, विज्ञान, संगीत और विचारों के बीज जन्म लेते हैं मगर धरती तक आते-आते उनकी दीप्ति क्षीण पड़ जाती है। यहाँ अरविन्द चेतना के स्तरों को केवल दार्शनिक शब्दावली में नहीं, काव्य-चित्रों में खोलते हैं; इसीलिए पाठक को लगे बिना कि वह ‘ग्रंथ’ पढ़ रहा है, वह अपनी ही सीढ़ी-दर-सीढ़ी यात्राओं का साक्षी बन जाता है।
इसी आंतरिक आरोह में “दिव्य माता” का साक्षात्कार होता है—वह नारी-स्वरूप जो अलग कोई देवी नहीं, स्वयं सृष्टि-शक्ति का जीवंत बोध है। राजा को दिया गया वह आश्वासन—“तेरी बेटी मेरा ही रूप होगी”—कथा का निर्णायक मोड़ है: भविष्य में आने वाली कन्या महज़ संतान नहीं, ‘अवतरण’ का वचन है; वह ज्योति जो सीधे पृथ्वी पर उतरकर मृत्यु तक को चुनौती देगी। यहीं से ‘सावित्री’ एक पारिवारिक सुख-दुख से बड़ी, ब्रह्मांडीय नाटक-भूमि में प्रविष्ट हो जाती है। कवि दिखाते हैं कि मनुष्य की बेचैनी निजी नहीं; वह समष्टि की आधी-अधूरी कहानी का दुःख है। जो कुछ एक व्यक्ति के भीतर सुलझता है, वह मानवता के भाग्य में नया सूत्र जोड़ता है।
कन्या जन्म लेती है, बढ़ती है, और अपने ‘यत्न’ से, अपनी अंतर्ज्ञानी पहचान से सत्यवान को चुनती है। यह चयन भी प्रतीकात्मक है—सत्यवान कोई ‘आदर्श वर’ नहीं, निर्वासन में जीता साधारण युवक है; पर उसकी आँखों में वह निर्मल सच्चाई है जिसका स्पर्श आत्मा पहचान लेती है। नारद की चेतावनी—जीवन का केवल एक वर्ष शेष—कथा को नियति की दीवार के सामने ला खड़ा करती है। यहाँ से ‘प्रेम’ भावुक आग्रह नहीं रहता; वह योग का व्रत बनता है। सावित्री का मौन, उसका उपवास, उसका कठोर अनुशासन—ये सब आत्मदुःख नहीं, भीतर की शक्तियों को ‘उद्धृत’ करने की प्रक्रिया है। वह ईश्वर से वर माँगने नहीं, अपनी ही चेतना की सर्वोच्च शिखरों तक चढ़ने उतरी है—जिस क्षण उसे मृत्यु का सामना करना होगा, उस क्षण उसका प्रेम ‘अनुभूति’ से ‘शक्ति’ बन चुका हो।
नियत दिन आता है; जंगल की निस्तब्धता में सत्यवान का देह ढलकता है, और मृत्यु का देवता—निष्कंप, निर्विकार—प्राण-डोरी लेकर चल पड़ता है। यहीं ‘सावित्री’ का अद्वितीय क्षण है: वह निर्जीव शरीर को गोद में रखकर उठ खड़ी होती है और मृत्यु के पीछे-पीछे उस लोक-लंघन यात्रा पर निकल जाती है जिसकी राह में सामान्य मनुष्य के पाँव काँप जाएँ। मृत्यु का तर्क—यौवन, वैभव, नए अवसर—और सावित्री का प्रत्युत्तर—“मेरा सुख वहाँ है जहाँ मेरा प्रिय है; मैं सत्य की तलाश में हूँ जो मृत्यु से बड़ा है”—यह संवाद केवल स्त्री-पुरुष का नहीं, करुणा और कठोर नियम का, प्रेम और नियति का, चेतना और जड़ता का है। जितना अंधकार घना होता जाता है, उतनी ही उसकी करुणा-प्रज्ञा तेज होती जाती है; वह हर बार किसी अपने के लिए वर माँगती है—अंधे ससुर की दृष्टि और राज्य, पिता के वंश की ज्योति—और अंततः चतुर, धर्मसंगत वाक्य-विन्यास से मृत्यु को उसकी ही शर्तों में बाँध लेती है: यदि मुझे उत्तम संतानें मिलनी हैं तो पति का जीवित होना अनिवार्य है। यह केवल प्रेम की भावुक विजय नहीं; यह बुद्धि, धर्म और तर्क की ऐश्वर्यपूर्ण विजय है—अरविन्द दिखाते हैं कि आध्यात्मिकता बुद्धि-विरुद्ध नहीं, बुद्धि-परिपूरक है; प्रेम अँधा नहीं, दूरदर्शी है।
सत्यवान की आत्मा लौट आती है; पर ‘सावित्री’ की यात्रा यहाँ थमती नहीं। वह जानती है कि व्यक्तिगत जीत सामूहिक मुक्ति का द्वार तभी बनती है जब भीतर का ‘निश्शेष प्रकाश’ स्थाई हो। इसीलिए वह उस “निरच्छाया उजाले” में डूबती है जहाँ न समय है, न दूरी—शाश्वत वर्तमान का निःशब्द सागर। वहाँ वह देखती है कि प्रेम केवल दो व्यक्तियों का संसर्ग नहीं; वह वह सेतु है जो मानव को ईश्वर से जोड़ता है, जीवन को मृत्यु से पार ले जाता है। जन्म और मृत्यु एक ही वृत्त के पूरक पहलू हैं; आत्मा न मरती है, न जन्मती—वह अपने आच्छादनों को बदलती हुई उसी परमज्योति में खेलती है। यह अनुभूति जब देह-मन में प्राभासित होती है, तब व्यक्ति के चेहरे पर “अलौकिक शांति” उतरती है—अरविन्द के शब्दों में, पृथ्वी पर ‘Everlasting Day’ की किरण फूटती है—ऐसा दिन जो मानस-रात्रि की आदतें तोड़कर जीवन में एक नए लय का आमंत्रण देता है।
यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि ‘सावित्री’ कोई पलायनवादी अध्यात्म नहीं है। वह धरती-निषेध नहीं, धरती-परिष्कार की घोषणापत्र है। सावित्री की तपस्या ‘मुक्ति लेकर उड़ जाने’ के लिए नहीं, ‘प्रकाश को धरती पर उतार लाने’ के लिए है। इसीलिए राजा का प्रारम्भिक व्रत ‘संतान’ भर नहीं देता, ‘अवतरण’ का ध्येय देता है; इसीलिए वर माँगना महज पारिवारिक हित-साधन नहीं, धर्म-तत्व की प्रतिष्ठा है; इसीलिए विवाह केवल दांपत्य का उत्सव नहीं, आत्माओं का संगम है—जहाँ प्रेम व्यक्तिगत सुख से बढ़कर सामूहिक नियति-परिवर्तन का साधन बन जाता है। सावित्री जब मृत्यु को तर्क से बाँधती है, तो वह बताती है कि अध्यात्म मौन आग्रह का नाम नहीं; वह सजग, सक्षम, विवेकपूर्ण आत्म-शक्ति है जो नियमों के बीच ही नये नियम रच सकती है। और जब वह “अनन्त उजाले” से लौटती है, तो अपनी जीत को निजी पदक बनाकर नहीं, पृथ्वी पर नयी दिनकर-रेखा बनाकर रखती है—यही ‘अध्यात्म की उत्कृष्ट अवस्था’ है: आत्मानुभूति का उत्तरदायित्व में रूपांतरण।
काव्य-शिल्प की दृष्टि से भी ‘सावित्री’ अद्वितीय है। यहाँ छन्द से बढ़कर ‘स्वर’ काम करता है; पद-लय से बढ़कर ‘प्राण-लय’। अरविन्द का वाक्य-नर्त्तन किसी उपनिषद-सा गम्भीर और किसी मंत्र-सा कंपन-स्पंदित है; इसलिए यह पुस्तक केवल पढ़ी नहीं जाती, सुनी जाती है—भीतर सुनी जाती है। दृश्य-चित्र इतने सघन हैं कि वे पाठक की चेतना में प्रतीकों की तरह बसते जाते हैं—अंधकार केवल रात नहीं, अविद्या का पर्याय; जंगल केवल वन नहीं, मन का घना प्रदेश; मृत्यु केवल देवता नहीं, वह जड़ नियम जो हर ऊर्ध्वगामिता को बाँधता है; और सावित्री केवल पत्नी नहीं, वही अजेय शक्ति जो भीतर जागे तो हमारे हिस्से का अंधकार खुद रास्ता दे दे।
आज के मनुष्य के लिए ‘सावित्री’ की प्रासंगिकता इसी जगह से शुरू होती है। हममें से हर कोई किसी न किसी रूप में “भय और आशंका के लोकों” से रोज़ गुजरता है—समय सीमित है, संबंध नश्वर हैं, प्रयत्नों के आगे अदृश्य दीवारें हैं। ‘सावित्री’ सिखाती है कि इस दीवार पर सिर पटकना समाधान नहीं; भीतर की लौ को इतना देदीप्यमान कर देना कि दीवार स्वयं धुएँ में विलीन हो। प्रेम को आग्रह से तप में, भावना को प्रज्ञा में, व्यक्तिगत विजय को सामूहिक उत्थान में रूपांतरित करना ही इस काव्य का सार है। यह महाकाव्य हमें बताता है कि मनुष्य केवल अपनी सीमाओं का कैदी नहीं; वह उन सीमाओं का विधाता भी है। जब प्रेम, विश्वास और चेतना की लौ एक साथ प्रज्वलित होती है, तब मृत्यु जैसी अटल शक्ति भी नियम बदलने पर विवश हो जाती है। यही ‘सावित्री’ का निचोड़ है—कथा नहीं, दृष्टि; रोमांस नहीं, रूपांतरण; मोक्ष नहीं, अवतरण। और शायद यही वह बिंदु है जहाँ श्री अरविन्द का महागान एक व्यक्तिगत स्तुति से उठकर मनुष्य-जाति के भविष्य का घोषक बन जाता है—हम उतने ही नश्वर हैं, जितनी हमारी स्मृति; और उतने ही अमर, जितना हमारा जगा हुआ प्रकाश।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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