नासदीय सूक्त की दार्शनिक व्याख्या
नासदीय सूक्त ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 129 वां सूक्त है। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। माना जाता है की यह सूक्त ब्रह्माण्ड के निर्माण के बारे में काफी सटीक तथ्य बताता है। इसी कारण दुनिया में काफी प्रसिद्ध हुआ है। इस सूक्त में सात ऋचाएं है l
सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥१॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥२॥
तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
ऋग्वेद का नासदीय सूक्त की ऋचाएं हजारों वर्ष बाद भी अपनी वैज्ञानिक प्रासंगिकता के लिए प्रसिद्ध हैं । इसमें कहा गया कि जब न अस्तित्व था, न अनस्तित्व, न मृत्यु थी, न अमरत्व—कुछ भी नहीं था। न आकाश था, न अंतरिक्ष; बस एक अनंत गहराई थी, अंधकार का महासागर, जिसमें संभावनाओं का जल ही जल भरा था। उसी शून्य से, तप या ऊर्जा की तीव्रता से, एक “एक” प्रकट हुआ—वह अदृश्य परम तत्त्व जो सबका आधार बना। इसके बाद कामना उत्पन्न हुई, जो मन का पहला संकल्प था, और इसी इच्छा ने सृष्टि के प्रथम बीज बोए। ऋषियों ने ध्यान लगाया और पाया कि अस्तित्व और अनस्तित्व, दोनों ही एक अदृश्य बंधन से जुड़े हैं, और इसी बंधन से सृष्टि का ताना-बाना फैलता गया।
फिर भी रहस्य कायम रहा—यह सब हुआ कैसे? देवताओं को भी इसका पता नहीं, क्योंकि वे भी सृष्टि के बाद ही प्रकट हुए। और सबसे गहरी बात यह कि शायद उस परम सत्ता को भी न ज्ञात हो कि यह सृष्टि किस प्रकार बनी। यह स्वीकार करना कि “शायद भगवान भी नहीं जानते” केवल धार्मिक कथन नहीं, बल्कि ज्ञान की सीमाओं का दार्शनिक उद्घोष है। यही इस सूक्त की अद्वितीयता है, जहाँ जिज्ञासा को उत्तरों से ऊपर स्थान दिया गया है।
इस सूक्त का दार्शनिक पहलू अद्भुत है। यह कहता है कि प्रारंभ में न अस्तित्व था न अनस्तित्व—हमारे तर्क से परे वह अवस्था थी जिसे पश्चिमी चिंतन “Void” या “Nothingness” कहता है, किंतु ऋषियों ने इसे और भी गहराई से देखा—“Neither Being nor Non-being।” यहाँ जल केवल जल नहीं, बल्कि अनंत संभावनाओं का प्रतीक है। अंधकार वह परत है जिसमें सब कुछ छिपा है, अप्रकट, अनजाना। कामना को सृष्टि की पहली हलचल कहा गया है, जो केवल कामुकता नहीं बल्कि सृजन की इच्छा है—manifestation की उत्कंठा। आधुनिक भाषा में कहें तो यह “Will to Create” है। ऋषियों ने महसूस किया कि अस्तित्व और अनस्तित्व दोनों की परस्पर निर्भरता ही संसार का बीज है। यह वैसा ही है जैसे आधुनिक भौतिकी कहती है कि शून्य भी खाली नहीं, उसमें ऊर्जा की हलचल रहती है—Quantum vacuum fluctuations।
और सबसे सुंदर है अंतिम ऋचा, जहाँ कहा गया कि सृष्टि के उद्गम का ज्ञान शायद परम सत्ता को भी न हो। यह अज्ञेयवाद का सबसे प्राचीन स्वर है। यहाँ मानवता की बौद्धिक विनम्रता झलकती है—यह स्वीकार कि हर प्रश्न का अंतिम उत्तर जानना संभव नहीं। यही वह क्षण है जब ऋग्वेद हमें अहंकार से मुक्त कर, प्रश्न करने की क्षमता का महत्त्व बताता है।
यदि हम इसे आधुनिक विज्ञान से जोड़ें तो पाएँगे कि नासदीय सूक्त और बिग बैंग थ्योरी की गूँज एक जैसी लगती है। बिग बैंग कहता है कि प्रारंभ में कोई स्थान, समय या पदार्थ नहीं था, केवल एक singularity थी—अनंत ऊर्जा और घनत्व का बिंदु। वहीं से विस्फोट हुआ और ब्रह्मांड फैलने लगा। ऋग्वेद कहता है कि शून्य और अंधकार से “एक” उत्पन्न हुआ और फिर सृष्टि फैली। विज्ञान की Quantum Theory बताती है कि शून्य भी कभी बिल्कुल शून्य नहीं, उसमें ऊर्जा की झिलमिलाहट है, कण-पुंज का उत्थान-पतन है। ऋषियों ने उसी को अनुभव कर कहा—“न अस्ति, न अनस्ति।”
अंतर केवल भाषा का है। ऋषियों ने इसे प्रतीकों और कविताओं में व्यक्त किया, वैज्ञानिकों ने गणनाओं और समीकरणों में। पर मूल प्रश्न वही है—सृष्टि कैसे हुई? और उत्तर वही है—शायद हम कभी पूरी तरह नहीं जान पाएँगे। यही नासदीय सूक्त की अद्भुतता है कि यह हमें उत्तरों की नहीं, प्रश्नों की पूजा करना सिखाता है। यह हमें अहसास दिलाता है कि रहस्य ही ब्रह्मांड की सबसे बड़ी सुंदरता है, और वही रहस्य हमें जिज्ञासु बनाए रखता है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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