गोपाष्टिमी का दिन है आज
यह  हमारे यहाँ सिर्फ़ एक पर्व नहीं — यह सैकड़ों वर्षों की जीवन-सम्पूर्ण समझ का उत्सव है। हम जब गोपाष्टिमी पर गाय-बैल, उसकी युक्ति और उसके दिये हुए उपकारों की गिनती करते हैं तो असल में वह ज़मीन, खेती, परिवार और समाज की तहों को छू रहा होता है। वेदों ने जहाँ खेती को सभ्यता का जनक माना, वहीं उसी खेती का आधार — बैल और गो — हमारे जीवन के निर्मात्ताओं के रूप में उभरे। गो को माता का दर्जा मिलना, बैल को संस्कृति का स्तम्भ मानना, सब किसी धार्मिक भाव से अधिक, एक यथार्थवादी और आवश्यक जीवन-नियमन का सम्मान है।
सोचिये: जब तक आदमी विचरणशील शिकारी था, उसका जीवन अस्थायी था; खेत बोने के बाद ही उसने एक जगह बसकर परिवार बनाया, अनाज संचित किया, सभ्यता के बीज बोए। उस बीज का हर पहलू गो-धन से जुड़ा रहा — बैल जब हल चलाता था, तो धरती जीवन देती थी; गाय जब दूध देती थी, तो घर में पोषण और ऊर्जा का भंडार बनता था। अतः वेदों ने केवल प्रतीकात्मक वंदना नहीं की — उन्होंने गो के चारों ओर एक पुरा सामाजिक तन्त्र रचा।
याद कीजिए वह किस्सा जब एक विदेशी प्रदर्शनी में रूस के स्टाल पर बैल के सींगों पर पृथ्वी का ग्लोब रखा दिखा — यह हास्यास्पद प्रतीत हुआ पर प्रतीक वही था: मानव ने कहा कि उसकी दुनिया का आधार खाद्य उत्पादन है। लोहे और मशीन के बिना आदमी रह सकता है, पर भोजन बिना नहीं रह सकता। और भोजन का स्रोत — कृषि — सम्भव नहीं बिना गो-पालन के। इसलिए हमारी संस्कृति में गो केवल पूज्य नहीं, जीवन-आधार है।
गौ का पवित्रत्व केवल मानसिक श्रद्धा नहीं; वह व्यवहारिक भी है। घर-आँगन की चिकनी-सी सफ़ेदी, दीवार की लीपाई, चूल्हे की आग — पुरखों ने सब कुछ गाय के गोबर से सम्भाला। नया घर बनाते समय गोबर का गुच्छा, आंगन की लीपाई — ये केवल परम्परा नहीं, कीटाणु-नाशक, उर्वरक और ईंधन का वैज्ञानिक प्रयोग थे। गोबर से बनाई उपले, कंडे — जंगल-मृत लकड़ी जलने की बजाए घर की रसोई जलाई जाती थी। आज भी गाँवों में जो घर प्रगतिवादियों के बताये गये ‘आधुनिक’ नहीं तो भी, वही परम्परागत विवेक जीता जागता है।
गोपाष्टिमी हमें यह भी याद कराती है कि गो-सेवा केवल परोपकार नहीं है; वह मोक्ष के मार्गों में से एक भी मानी गयी है। पुराणों और शास्त्रों में गो-पालन, गो-सेवा के धार्मिक व आध्यात्मिक आयाम विस्तार से बताए गए हैं — ब्रह्मज्ञान, पितृ तर्पण, गो-गृह मरण आदि ऐसा विधान जो गो को जीवन के उच्चतम मूल्य से जोड़ता है। और इसलिए, किसी भी सभ्यता पर हमला करने वाला पहला निशाना अक्सर उसकी गौ-सम्पत्ति रहा है — जब उसकी गायें लुप्त हों, खेती डगमगा जाए, तब परिवार, समाज और अंततः संस्कृति ध्वस्त होने के कगार पर पहुंचती है।
आज के युग में ट्रैक्टरों और मशीनों के आ गमन से खेती के शारीरिक स्वरूप बदल गए हैं, पर गो का अर्थ समाप्त नहीं हुआ। भले ही आधुनिकता ने कंचन-रूप लिये किनारे खड़े ट्रैक्टर दिखाये, पर भावनात्मक जुड़ाव आज भी बैल और गाय के साथ है — हम उन्हें केवल उपकरण नहीं मानते; वे हमारी भावनात्मक और आर्थिक सुरक्षा के अभिन्न अंग हैं। गाँव का दूध आज भी पोषण का सर्वोत्तम स्रोत माना जाता है — मेडिकल साइंस भी मानती है कि देसी गाय का दूध अलग गुण देता है।
गोपाष्टिमी पर हम गो के प्रति अपने दायित्वों का स्मरण करें — गो-रक्षा, गो-सेवा और गो-सम्भरण। यह सिर्फ धार्मिक कर्तव्य नहीं; यह सतत् कृषि, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रक्षा है। अगर हम गायों का जीवन समाप्त कर देंगे तो न सिर्फ़ दूध की कमी होगी, बल्कि मिट्टी की उर्वरता, ईंधन-स्रोत और सामाजिक-स्थिरता भी खतरे में आ जायेगी।
इसलिए आज, गोपाष्टिमी के दिन, थोड़ी श्रद्धा के साथ थोड़ा व्यावहारिक विवेक भी संजोइए: न केवल मंदिरों में फूल अर्पित कीजिए, बल्कि गाँवों के गौशालाओं का दौरा कीजिए, गो-पालन का समर्थन कीजिए, और जहां संभव हो वहाँ देसी कृषि व जैविक उर्वरक के प्रयोग को बढ़ावा दीजिए। गो-पूजा का अर्थ सिम्बल से कहीं अधिक है — यह जीवन-निर्माण की एक दायित्वपूर्ण प्रतिज्ञा है।
हमारी संस्कृति ने गाय को न केवल देवी माना है, बल्कि जीवन की मां कहा है — जिसने हमें दूध दिया, खेत को उर्वर बनाया, घर को पवित्र किया। गोपाष्टिमी का सार यही है: जिसकी रक्षा करेंगे, वही हमारी रक्षा करेगा। अपने खेतों, अपने पशुओं और अपने समुदायों के साथ वह चिंता और सम्मान आज भी कायम रखें — यही सच्ची पूजा है। जय गोपाष्टिमी।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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