मुद्दों की चुहिया – पिंजरे से संसद तक
मुद्दा… जी हाँ, वही मुद्दा।
मुद्दा कोई साधारण प्राणी नहीं है, यह चुहिया की उस दुर्लभ नस्ल जैसा जीव है, जिसे पकड़ना, पालना और समय आने पर पिंजरे से निकालकर भीड़ में छोड़ना – अपने आप में एक वीरोचित काम है। सदियों से इस कला में लोग पारंगत होते आए हैं, लेकिन परंपरा का भार और आधुनिकता का तामझाम मिलकर इसे और भी रोमांचक बना रहे हैं।
पहला काम तो है मुद्दे को ढूँढ़ना। यह ऐसे है जैसे राजनीति के पहाड़ में से खोद-खोद कर मुद्दे की चुहिया निकालना। मुद्दा कालजयी है… राजनीति की काल भैरवी की प्रतिमा का काला चंदन है, जिसे माथे पर लगाकर इसी का नागपाश बनाकर जनता के गलों को बाँधा जा रहा है।
मुद्दे यूँ हवा में नहीं उड़ते कि जाल फेंका और पकड़ लिया। ये तो सदियों पुरानी कब्रों में सोए पड़े रहते हैं – इन्हें झूठे वायदों और घोषणाओं की दुंदुभी से जगाया जाता है। अवसरवादिता और मक्कारी की खुराक खिलाकर इन्हें बड़ा किया जाता है। मुद्दा उस बकरे के समान है जिसे चुनावी त्योहार में हलाल करने से पहले खिलाया-पिलाया जाता है। मुद्दों का पूरा एक बाज़ार सजता है – मुद्दे बिकते हैं, टेंडर निकलते हैं।
लो जी, ये मुद्दा निकल भी आया है। आप कहेंगे – “ये क्या मुद्दा है मित्र? खोद रहे थे पहाड़… निकली ये मुद्दे की चुहिया! यह तो ठीक से चल भी नहीं पा रहा।”
“इस पिद्दी से मुद्दे की लाठी से कैसे लोकतंत्र की गाड़ी हाँकेंगे आप लोग?”
ठहरिए मित्र! अभी मुद्दे को थोड़ा हवा-पानी लगने दीजिए। अफ़वाहों की हवा और अटकलों का पानी पाकर यह फूलेगा-फलेगा। सीधे-सीधे पेश कर देंगे तो कोई भाव नहीं देगा। पहले इसे मोटा-ताज़ा किया जाएगा – आँकड़ों के बघार में, झूठे तथ्यों की मलाई में, और फेक न्यूज़ के मलाईदार दलिये में डुबोकर इसे खरा-चटपटा बनाया जाएगा। टीवी बहसों के प्रोटीन शेक और सोशल मीडिया के प्राइम-टाइम की हवा खिलाकर मुद्दा ऐसा फूल जाएगा कि फूले नहीं समाएगा।
जय-जयकार मुद्दे की! मुद्दे के चारों तरफ़ लट्टू की तरह घूमेंगे नेता लोग। मुद्दा इनकी कुर्सी की डोर है। उससे खूँटे से बँधे रहते हैं नेता। वरना यह बंधन टूटते ही मुद्दा दूसरी पार्टी के पाले में छलाँग लगा देगा।
मैं तो कहूँगा – मुद्दा खुद एक भैंस है… पालतू भैंस… नेता की बखार में बँधी हुई।
और फिर… देखो न मित्र! मंच पर माननियों से ज़्यादा मुद्दे का सत्कार हो रहा है। नेता जी मदारी बने डुगडुगी बजा रहे हैं। भीड़ लगी है खेल-तमाशा देखने वालों की। एक हाथ में डंडा, मदारी खेल दिखाएगा – “मुद्दा ज़रा बाहर आओगे? खेल दिखाओगे ”
“आऊँगा उस्ताद।”
“मैं जैसा कहूँगा, वैसा करोगे।”
“करूँगा उस्ताद।”
“क्यों?”
“आपके पेट का सवाल है उस्ताद, आप मेरे माई-बाप।”
जनता तालियाँ पीट रही है। टीवी चैनलों पर गेस्ट अपीयरेंस दे रहे हैं मुद्दे। राजनीति की डार्क कॉमेडी में बेहूदा मज़ाक का मुख्य पात्र – यही मुद्दा।
अब तो टिकट उम्मीदवार को नहीं, मुद्दे को मिलते हैं। कौन-सा मुद्दा उछाला जाए? मुद्दे लाइन में खड़े हैं उछलने के लिए। पर डर यह है कि कहीं मुद्दा उछलकर दूसरी पार्टी के पाले में न चला जाए। मुद्दा एक परनाला बहा देता है – चुनावी क्षेत्र में मुद्दा ही खुद प्रचार करता है। बैनर लगाता है, जुलूस निकालता है और वक्ता को स्पीच पॉइंट्स देता है।
पान की दुकान पर टपकु भी पहाड़ जैसी सीट को उठा ले जाए अगर मुद्दे की लग्गी लग जाए। पहले के दिनों में मुद्दा राजनीति के खेल के मैदान में गेंद की तरह उछाला जाता था – एक पाले से दूसरे पाले में, कभी सीमा के बाहर, कभी सीधे जनता के सिर पर। लेकिन अब मुद्दों का पावर ऑफ अटॉर्नी रजिस्ट्री में दर्ज है। कोई भी पार्टी, अपने समय पर, अपने रंग-रूप में मुद्दे को पेश कर सकती है – बिल्कुल ताश के पत्तों में छुपे तुरुप के इक्के की तरह।
मुद्दे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए नहीं, बल्कि राजनीति के पिंजरे में शोपीस रखने के लिए भी तैयार किए जाते हैं। कभी इसे “राष्ट्रहित” की डोरी से बाँधा जाता है, कभी “धर्मरक्षा” के चक्के में घुमाया जाता है, तो कभी “विकास” के नकली पिंजरे में सजाकर विदेशी मेहमानों को दिखाया जाता है।
और जब चुनाव बीत गया – खेल खत्म। जनता, अब जाओ! बाकी का खेल नेता लोग संसद में दिखाएँगे।
“मुद्दा थैंक्स! अब वापस कब्र में दफ़न हो जाओ।” या फिर डाल देंगे तुम्हें पार्टी के गोदाम में, जहाँ पुराने नारे, फीके पोस्टर और टूटे लाउडस्पीकर के साथ तुम्हारा फिर से चुनाव आने तक इंतज़ार होगा।
लेकिन मानना पड़ेगा – इस देश में मुद्दा कभी मरता नहीं। अमर है, कालजयी है। बस रूप बदलता है – रंग बदलता है ।
जनता भी जानती है कि असली खेल किसका है, पर मुद्दों की यह नटवरी नाच देखे बिना उसका भी दिल नहीं भरता।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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