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कूटन संस्कार-भारत का प्राचीनतम संस्कार

Caricature montage of Indian “kootan” tradition: a father with a giant slipper, schoolmaster with cane, laughing relatives and a visiting NRI couple — single-line cartoon with saffron accent.

कूटन संस्कार

यह भारत देश है, मेरा भारत। यह परंपराओं का देश है, परंपराएँ जो हमारे नस-नस में इस कदर व्याप्त हैं कि उन्हें सीखने के लिए किसी क्रैश कोर्स की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह परंपराएँ इस मिट्टी में पैदा होने के साथ ही हमारे खून में मिल जाती हैं।

यूँ तो परंपराओं के साथ-साथ संस्कारों की भी बात करें तो धार्मिक शास्त्रों में जन्म से मृत्यु के बाद तक कुल 16 संस्कारों का उल्लेख मिलता है। लेकिन एक परंपरा, जो निश्चित रूप से संस्कार के रूप में संतानकाल से चली आ रही है, उसे सत्रहवाँ संस्कार मान लेने में कोई हर्ज नहीं है। यह संस्कार है कूटन संस्कार

जी हाँ, कूटने की परंपरा, जिसका विधिपूर्वक निर्वाह पिता की चप्पल से शुरू हो जाता है। जब आप अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू करते हैं, तब चप्पलें आपके पैरों के बजाय आपके शरीर पर धारण होने लगती हैं। यह संस्कार, जिसे एक बच्चा यज्ञोपवीत संस्कार के जनेऊ से पहले धारण करता है, इसका कोई मुहूर्त नहीं होता। बस, यह बाप की बापपन की खुजली पर निर्भर करता है, जो जब चाहे उठ सकती है। बस बाप को याद आना चाहिए, तो रात के दो बजे भी वह बेटे को उठाकर कूट सकता है। यह विशेषाधिकार उसे समाज के अलिखित संविधान में मिला हुआ है।

धीरे-धीरे अन्य संस्कार विलुप्त होने के कगार पर हैं, लेकिन कूटन संस्कार आज भी अपनी पहचान बनाए हुए है। इसी परंपरा को जीवित रखने के लिए हर साल एन.आर.आई. भारत आते हैं, अपने परिवार के साथ। क्योंकि विदेशों में तो बच्चों को कूटना छोड़िए, ऊँची आवाज़ में बोल भी नहीं सकते, वरना तुरंत पुलिस पकड़कर हवालात में बंद कर देती है।

बचपन में इसी कूटन परंपरा की बदौलत हमारे अंदर संस्कार भरे जाते थे, ताकि माँ-बाप गर्व से कह सकें—
हमारे बच्चों में तो संस्कार कूट-कूट कर भरे हैं!”

जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, इस कूटन परंपरा का आकर्षण हमारा पीछा नहीं छोड़ता, और हम जल्दी से बाप बनकर इस परंपरा को अपने परिवार में निर्बाध रूप से प्रभावी करना चाहते हैं। आखिर लेगेसी जीवित रहनी चाहिए, न!

हमारे यहाँ सनातनी परंपराओं का कोई लिखित विधान नहीं है, लेकिन फिर भी हजारों पीढ़ियों से परंपराएँ निर्वाह होती आ रही हैं। यह कूटन की परंपरा सिर्फ परिवार तक सीमित नहीं, बल्कि स्कूलों में भी इसका समुचित पालन होता रहा है।

हमारे माता-पिता तो स्कूल के मास्टर से सीधा कह देते थे—
आज से आप ही इसके माई-बाप हैं!”

और हमारे मार साहब इस कथन को बहुत गंभीरता से लेते थे। मार साहब, जो कूटन परंपरा के विशेषज्ञ होते थे, इसीलिए यह नाम उन्हें बड़े सम्मान से दिया जाता था।

मास्टर जी आते ही क्लास में सबसे पहले दो-चार बच्चों को कूट देते थे। बच्चे भी कूटन पीरियड को सहज भाव से अटेंड करते और वीर सैनिकों की भाँति अपनी पीठ या हाथ आगे कर देते, ताकि मास्टर जी की डंडी का प्रहार सह सकें।

यह एक अनकहा समझौता था, जहाँ कूटने वाला और कुटने वाला, दोनों ही इस परंपरा को निभाने में भरपूर योगदान देते थे। मास्टर जी के मुखमंडल की शांति, बच्चों की चीख की ध्वनि से गठबंधन करके गुरु-शिष्य परंपरा की अखंड ज्योति जलाए रखती थी।

परिवार में भी सिर्फ बाप का ही एकाधिकार नहीं होता था।

  • चाचा,
  • ताऊ,
  • पड़ोसी,
  • दूर के काका…

हर कोई जहाँ मौका मिले, बच्चे को कूट लेता था।

कूटने के लिए कारण बताने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

  • बस कहीं गली में नजर आ गए,
  • शक्ल पसंद नहीं आई,
  • या फिर कोई रिश्तेदार कूटने की खुजली से परेशान था और आज खुजली मिटाने का अवसर मिल गया—तो बस फिर क्या, कूटन चालू!

यह खुजली घर तक शांत नहीं होती थी। बाप को कुछ उल्टी-सीधी दलीलें देकर अपनी कूटन को सर्वसहमति से पारित करवाना पड़ता था। उसके बाद बाप भी बेटे को कूटकर उस दिन के लिए इस अध्याय का समापन करता था।

यह कूटने की कला इतनी व्यापक है कि हर कोई कहीं न कहीं, किसी न किसी बहाने कूटन संस्कार निभा ही लेता है—

  • बसों-ट्रेनों में पकड़े गए जेबकतरों की पिटाई,
  • पड़ोसी के घर में चोरी करते पकड़े गए चोर की धुनाई,
  • किसी लड़की के आशिक की सरेआम पिटाई…

कूटन कला समाज में एक संस्कार के रूप में स्थापित हो चुकी है।

राजनेता, धर्म प्रचारक, विचारक, प्रेरक वक्ता—सभी अपनी टीम में दो-चार गुर्गे अवश्य रखते हैं, जो कब, कहाँ, कैसे किसी को कूटकर मालिक के रुतबे में चार चाँद लगा दें, यह तय नहीं होता।

कोरोना काल में तो कूटन संस्कार चरम पर था!
होम डिलीवरी तक उपलब्ध थी—लोकडाउन में घर-घर कूटन सेवा दी जा रही थी!

महिलाएँ भी इसमें किसी से पीछे नहीं हैं। चाहे कितनी भी वॉशिंग मशीन आ जाए, जब तक लकड़ी के डंडे से कपड़ों को कूट-कूटकर अधमरा नहीं कर देतीं, उन्हें चैन नहीं आता।

इसके साथ ही घर के बच्चों और बाप को भी अप्रत्यक्ष संदेश मिल जाता है
ज़्यादा चूं-चांट की, तो अगला नंबर तुम्हारा!”

आज बिना कूटन के कोई भी कार्य अधूरा लगता है—

  • पारिवारिक हो,
  • सामाजिक हो,
  • या राजनीतिक!

डंडा पास रखिए, चाहे मोती रखो या चून,
सटक-पटक खूब पीटिए, जो भी पीवे खून।

कहे कविराय इस जगत में
बिन कूटन सब सून!”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

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