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गीता, धर्म और सफलता: स्वधर्म से करियर मैनेजमेंट तक

modern, clean, colored illustration: in the center, a young professional in formal clothes standing at a crossroad shaped like an open book of the Bhagavad Gita. On the left path, signboards show MBA, IIT, IAS, skyscrapers and money symbols; on the right path, glowing signboards show “स्वधर्म”, a stethoscope, paintbrush, laptop, musical notes representing one’s true talent. Above the open Gita, the Sanskrit words “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” softly glowing. Background subtle mandala pattern, warm golden and saffron tones, flat-vector style, suitable as a blog banner, no text other than the shloka.

जब आप गीता खोलते हैं तो एक दिलचस्प बात दिखती है – उसका पहला शब्द है “धर्म” और आख़िरी शब्द है “मम”। मानो पूरा ग्रंथ ही एक सवाल पूछ रहा हो – “मम धर्मः क्या है? मेरा धर्म क्या है?” और यहीं से हमारी मैनेजमेंट क्लास शुरू हो सकती है।

समस्या ये है कि आज “धर्म” शब्द सुनते ही दिमाग़ में सबसे पहले संप्रदाय, मज़हब, religion घूम जाता है। जबकि गीता का धर्म न तो हिंदू-मुस्लिम है, न मंदिर-मस्जिद; धर्म का मतलब है – किसी व्यक्ति या वस्तु का मूल स्वभाव, मूल गुण, मूल कर्तव्य

शिक्षक का धर्म पढ़ाना है, सिपाही का धर्म देश की रक्षा करना है, डॉक्टर का धर्म मरीज़ का उपचार करना है। उनका मजहब कुछ भी हो, जाति कुछ भी हो – धर्म नहीं बदलता। उसी तरह हम सबके जीवन में कई-कई “धर्म” हैं –
मैं किसी का बेटा हूँ – बेटे के रूप में मेरा धर्म है।
मैं किसी का पिता हूँ – पिता के रूप में मेरा धर्म है।
मैं नागरिक हूँ – नागरिक के रूप में मेरा धर्म है।
मैं प्रोफ़ेशनल हूँ – अपने प्रोफ़ेशन के रूप में मेरा धर्म है।

यानी धर्म = वह जिम्मेदारी और गुण, जो मुझे धारण करने हैं – न कि सिर्फ़ वो कॉलम, जो फॉर्म में “Religion” के आगे भरते हैं।

अब दिक़्क़त कहाँ से शुरू होती है?
दिक़्क़त तब शुरू होती है जब हम अपना धर्म छोड़कर “फैशन का धर्म” पकड़ लेते हैं। आजकल ट्रेंड है – MBA करो, तो सब MBA की लाइन में; कभी ट्रेंड था – डॉक्टर बनो; कभी IIT, कभी UPSC…
हरिवंश राय बच्चन का गीत याद कीजिए – “ईर कहे चलो चिड़िया मार लाएँ, वीर कहे चलो चिड़िया मार लाएँ, फत्ते कहे चलो चिड़िया मार लाएँ, तो हम कहें चलो हम भी चिड़िया मार लाएँ…”

आज हमारे करियर का ज्यादातर नक्शा यही है –
X ने कहा – MBA करना है,
Y ने कहा – MBA करना है,
Z ने कहा – MBA करना है,
तो हमने कहा – चलो हम भी MBA कर लेते हैं।

किसी ने रुककर ये नहीं पूछा कि – मेरा स्वभाव किस काम के लिए बना है? मेरा “स्वधर्म” क्या है?

गीता में कृष्ण स्पष्ट कहते हैं –
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।”
यानी अपने स्वभाव, अपने वास्तविक गुण के अनुसार किया गया काम, भले छोटा लगे, श्रेष्ठ है; और दूसरे के गुण के हिसाब से किया गया काम, चाहे बड़ा दिखे, अंततः भयावह है।

इसी से जुड़ी एक बड़ी मैनेजमेंट-सच्चाई है – इस दुनिया में चार तरह के लोग होते हैं:

  1. Unsuccessful and unhappy – असफल और दुखी। ये सबसे बड़ा ग्रुप है। ये हमेशा रोते मिलेंगे – सिस्टम ख़राब है, सिफ़ारिश नहीं थी, भ्रष्टाचार है… पर ये कभी नहीं पूछते कि मैंने अपने गुणों के हिसाब से रास्ता चुना भी था या बस भीड़ के साथ भागा था।
  2. Unsuccessful but happy – असफल पर बेफ़िक्र। इन्हें कुछ आता-जाता नहीं, करना भी खास कुछ नहीं, पर ये बड़े मस्त रहते हैं – “चलता है, सब ठीक है।”
  3. Successful but unhappy – बाहर से बहुत सफल, अंदर से बेहद परेशान। CEO हैं, बड़े डॉक्टर हैं, नाम है, पैसा है, पावर है – पर भीतर एक खालीपन है कि “कुछ और चाहिए था, जो मिला नहीं।” अक्सर ये लोग वही हैं, जिन्होंने अपने स्वधर्म की जगह “परधर्म” चुन लिया – समाज ने कहा, फैमिली ने कहा, दुनिया ने कहा, उन्होंने सुन लिया – खुद से कभी नहीं पूछा कि “मैं वास्तव में किस काम के लिए बना हूँ?”
  4. Successful and happy – ये सबसे कम लोग हैं। ये वही हैं जो अपने गुण के अनुसार, अपने स्वभाव के अनुसार काम करते हैं। इन्हीं को गीता की भाषा में आप कर्मयोगी कह सकते हैं।

चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का वाक्य गीता की ही भावना को दोहराता है – “जीवन में एक बार अपने पसंद का काम चुन लो, फिर ज़िंदगी भर तुम्हें काम करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।”
मतलब – काम तो करोगे, पर वो काम तुम्हें बोझ नहीं लगेगा, आनंद लगेगा।

अब आते हैं गीता के सबसे चर्चित श्लोक पर –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन…”
हमने इसका अर्थ बना लिया – “कर्म कर, फल की इच्छा मत कर, चिंता मत कर।”
जबकि श्लोक में न “इच्छा” शब्द है, न “चिंता”।

सीधा, साफ़ अर्थ है –
तेरा अधिकार सिर्फ़ कर्म पर है, फल पर नहीं।

पहली नज़र में ये बात बहुत अन्यायपूर्ण सी लगती है –
“मैं काम करूँ, और फल पर मेरा अधिकार ही न हो? फिर तो कोई भी CEO ऑफर लेटर में लिख दे – काम पूरा कराना मेरा अधिकार है, सैलरी देने पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं!”

पर गीता की बात बहुत सूक्ष्म है –
कर्म “मैं” करता हूँ, पर फल सिर्फ़ मेरे कर्म का नहीं, पूरे सिस्टम, पूरे इकोसिस्टम का रिज़ल्ट है।

क्लास में 50 स्टूडेंट मेहनत करते हैं। सब रात-जागकर पढ़ते हैं। फर्स्ट कोई एक आएगा। बाकी कहेंगे – हमने भी मेहनत की थी, हमारा “हक़” क्यों नहीं मिला?
पर फल तो सिर्फ़ मेहनत का नहीं, उस दिन की सेहत, पारिवारिक हालात, पेपर पैटर्न, मेंटल स्टेट – इन सबका जोड़ है।

डॉ. क्रिश्चियन बरनार्ड का किस्सा यही समझाता है। उन्होंने दिल का पहला सफल प्रत्यारोपण किया। ऑपरेशन परफेक्ट था, पूरी दुनिया ने सराहा। शाम को खबर आई – मरीज मर गया। पोस्टमार्टम में पता चला – ऑपरेशन से कोई दिक़्क़त नहीं, पैर के अंगूठे से निकला एक छोटा-सा क्लॉट ब्रेन में जाकर फंस गया।
तब उन्हें उस बूढ़े लकड़हारे की बात याद आई – “शुक्र है आज हवा का रुख ठीक था।”

यानी कर्म तुम्हारे हाथ में है, “हवा का रुख” तुम्हारे हाथ में नहीं।
इसलिए गीता कहती है – फल पर कब्ज़ा मत जमाओ, फल को “हक़” की जगह “प्रसाद” की तरह देखो। काम ईमानदारी से, पूरे मन से, पूरे प्रोफेशनलिज़्म से करो – पर नतीजे की रस्सी इतनी कसकर मत पकड़ो कि सांस ही घुट जाए।

यहाँ से एक और मैनेजमेंट-फंडा निकलता है – Role modelling और Leadership
गीता कहती है – “यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः।”
श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं, आम लोग वैसा ही फॉलो करते हैं।

आज इसको न्यूरोसाइंस ने भी साबित कर दिया – हमारे दिमाग़ में करीब 15% न्यूरॉन “मिरर न्यूरॉन” होते हैं, जो सामने वाले को देख-देखकर वैसा ही करना चाहते हैं।
इसलिए अगर कोई डॉक्टर खुद शराब पीकर मरीज़ से कहे – “शराब छोड़ो, सेहत खराब है” – तो बात का असर नहीं होगा।
कोई बॉस रोज़ लेट ऑफिस आए और टीम को बोले – “Time management सीखो” – तो वो भाषण हवा में उड़ जाएगा।

मैनेजमेंट का सीधा सिद्धांत है –
“कहने से ज़्यादा, दिखाने से असर होता है।”
आप टाइम से आते हैं तो आपकी टीम भी टाइम से आएगी। आप ईमानदार हैं तो आपके जूनियर भी ईमानदारी सीखेंगे। अपने बच्चों पर जितना मर्जी “प्रवचन” दे दीजिए; असल में वो आपकी बात नहीं, आपकी “लाइव रिकॉर्डिंग” देख रहे हैं।

अब आते हैं उस मुश्किल शब्द पर, जिसे सुनते ही लोग घबरा जाते हैं – “निष्काम कर्म”
लोग पूछते हैं – “बिना कामना के कर्म कैसे होगा?”
ये संभव तब होता है, जब काम ही आपका स्वभाव बन जाए।

छोटे बच्चे को देखिए – वो खेलता है तो गोल्ड मेडल के लिए नहीं खेलता। न स्पॉन्सरशिप चाहिए, न ट्रॉफी। वो खेलता है क्योंकि खेलना ही उसके स्वभाव की अभिव्यक्ति है।
भारतीय टीम का खिलाड़ी मैच में उतरेगा – उस पर करोड़ों लोगों की उम्मीद, मीडिया का प्रेशर, TRP, कॉन्ट्रैक्ट सब लदा होगा। वो उस मासूम आनंद से नहीं खेल सकता, जो एक मोहल्ले का बच्चा खेलते समय महसूस करता है।

गीता कहती है –
अगर तुम अपने स्वधर्म में, अपने स्वभाव के अनुरूप काम कर रहे हो, तो तुम काम से आनंद लो, नतीजे से नहीं।
तब कामना कम हो जाती है, और काम “तनाव” नहीं, “तपस्या” बन जाता है।

अब ज़रा दो शब्दों को समझिए – निर्मम और निराशी
आजकल “निर्मम” का मतलब लोग “क्रूर, निर्दयी” समझ लेते हैं; जबकि मूल संस्कृत अर्थ है – “जहाँ ‘मेरा–मेरा’ का भाव न रहे।”
मेरी कार में खरोंच लगे तो दिल टूट जाता है; दोस्त की कार में लगे तो हम बड़े संत बन जाते हैं – “कोई बात नहीं, रबिंग-पॉलिशिंग करवा लो, सब ठीक हो जाएगा।”
यानी दर्द खरोंच का नहीं, “मेरा” शब्द का है।

जहाँ “मेरा” बहुत ज़्यादा जुड़ जाता है – मेरा पद, मेरी फाइल, मेरी टीम, मेरी इज़्ज़त – वहाँ अहंकार पैदा होता है, और अहंकार के साथ हर निर्णय में टकराव, तनाव, राजनीति घुस जाती है।
ग़ज़ब का मैनेजमेंट फंडा है –
कम “मेरा”, ज़्यादा “हमारा” – तो संगठन भी स्वस्थ, मन भी स्वस्थ।

“निराशी” भी डिप्रेशन वाला निराश होना नहीं है; इसका मतलब है – ख्याली पुलावों से मुक्त होना।
शेख चिल्ली के एक अंडे से शुरू होकर महल तक पहुँचने वाली कहानी याद है –
एक अंडा, उससे चूजा, फिर मुर्गी, फिर सौ अंडे, फिर हज़ार, फिर पोल्ट्री फ़ार्म, फिर करोड़पति, फिर महल, फिर नखरेबाज़ बच्चा और गुस्से में पत्थर फेंकना… और उसी में हाथ का अंडा टूट जाना।

गीता सीधा कहती है –
“Don’t count your chickens before they hatch.”
काम करो, ईमान से करो, पर हवा में महल न बनाओ कि “बस ये हो जाए, फिर मैं खुश हो जाऊंगा।”

यहीं से “सक्सेस” और “सफल” का असली फर्क समझ में आता है।
अंग्रेज़ी का Success हमेशा Future में टंगा रहता है –
“जब करोड़पति हो जाऊँगा, जब CEO बन जाऊँगा, जब Award मिल जाएगा – तब Successful होऊँगा।”
लेकिन हिंदी का शब्द है – “सफल” = स + फल – जहाँ फल साथ-साथ हो।

गीता हमें यही मैनेजमेंट-सूत्र देती है –
अगर आज जो काम आप कर रहे हैं, उसी में आपको अर्थ, आनंद, शांति और सम्मान मिल रहा है – तो आप “आज ही सफल” हैं।
अगर आपकी सारी खुशी एक ऐसे भविष्य के टारगेट पर टिकी है जो हर बार आगे खिसक जाता है – तो आप मृग-मरीचिका दौड़ रहे हैं।

तो गीता से मैनेजमेंट का सार क्या हुआ?

– अपना स्वधर्म पहचानो – तुम किस काम के लिए बने हो।
– काम का फल “हक़” नहीं, “प्रसाद” है – कर्म पर पूरा फोकस रखो, फल पर ढीली पकड़ रखो।
– अपने आचरण को ऐसा बनाओ कि जो तुम्हें देखे, प्रेरित हो – जूनियर हो, बच्चा हो, टीम हो।
– “मेरा–मेरा” कम करो, “हमारा–हमारा” बढ़ाओ – अहंकार घटेगा, संघर्ष घटेगा।
– ख्याली पुलाव छोड़ो – आज के कर्म में जो आनंद है, वही असली “सफलता” है।

अंत में वही प्रार्थना, जो पूरी गीता के सार को एक लाइन में कह देती है –

“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।”

झूठी सफलताओं से सच्चे स्वधर्म की ओर, अंधी दौड़ से जागरूक कर्म की ओर – यही असली मैनेजमेंट फंडा है, जो गीता हमें आज भी सिखाती है।

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