मैनेजमेंट की क्लास में आमतौर पर हम पीटर ड्रकर, कोवी, पोर्टर वगैरह सुनते हैं। थोड़ी “इंडियन टच” देनी हो तो कोई-कोई चाणक्य नीति का कोट उछाल देता है। पर जो असली, फुल-फ्लेज्ड “मैनेजमेंट केस-स्टडी” हमारे घर में अलमारी पर धूल खाती पड़ी है, उसका नाम है – महाभारत। और उसके बीचोंबीच बैठी है श्रीमद् भगवद्गीता, जिसे हम ज्यादातर कैलेंडर, स्टेटस और व्हॉट्सऐप फॉर्वर्ड के रूप में जानते हैं, मूल ग्रंथ के रूप में कम।
समस्या यहीं से शुरू होती है। महाभारत का नाम सुनते ही हमारे दिमाग में सबसे पहले टीवी सीरियल की धुन बजने लगती है – “कभी कभी लगता है… सब देखा हुआ है!” भीम की गदा, द्रोपदी का चीरहरण, “अंधे का पुत्र अंधा”… जबकि वेदव्यास की असली महाभारत पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि इनमें से कई सीन तो मूल ग्रंथ में हैं ही नहीं। द्रोपदी ने कभी “अंधे का पुत्र अंधा” कहा ही नहीं, वह तो बाद की कल्पना और टीवी की देन है। मैनेजमेंट की पहली सीख यहीं है – डाटा हमेशा ओरिजिनल सोर्स से वेरिफाई करो, न कि सीरियल और सोशल मीडिया से।
अब ज़रा कल्पना कीजिए – कुरुक्षेत्र का रणक्षेत्र है, सामने वास्तविक “डेडलाइन” खड़ी है – आज फैसला होगा, कौन बचेगा, कौन जाएगा। और अर्जुन, जो टॉप-परफ़ॉर्मर योद्धा है, ठीक उसी समय कन्फ्यूज़ हो जाता है। हाथ में गांडीव ढीला पड़ जाता है, KPI, टार्गेट, सब पीछे छूट जाता है, और वो अपने “लाइन मैनेजर” कृष्ण से कहता है – “मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, मैं लड़ूँगा नहीं।”
यहीं से गीता शुरू होती है, और यहीं से असली मैनेजमेंट फंडा भी।
सबसे पहली बात – अर्जुन को पूरी तरह पता था कि सामने जो व्यक्ति खड़ा है वो साधारण गाइड नहीं, साक्षात भगवान है। फिर भी वो लगातार प्रश्न पूछता है – “अगर ऐसा करूँ तो क्या होगा? न करूँ तो क्या होगा? ये ज्ञान आपने सूर्य को कब दिया? आपका जन्म तो अभी हुआ है…”
मतलब, अगर सामने खुद भगवान भी हों, तब भी सवाल पूछने में हिचकना नहीं है।
आज हमारी मीटिंग्स में ठीक उल्टा होता है। लोग दो वजह से ही प्रश्न पूछते हैं –
या तो अपना ज्ञान दिखाने के लिए,
या सामने वाले की नॉलेज की परीक्षा लेने के लिए।
गीता सिखाती है: प्रश्न दिखावे के लिए नहीं, सीखने के लिए पूछो। ज्ञान बढ़ाने के लिए पूछो। और यह भी समझो कि मानना (ब्लाइंड फेथ) और जानना (अंडरस्टैंडिंग) दो अलग बातें हैं। “मान ले अर्जुन” ये शब्द गीता में कहीं नहीं हैं; हर जगह है – “हे अर्जुन, ऐसा जान, ऐसा समझ।”
मैनेजमेंट में भी यही फर्क है – ब्लाइंड ऑबीडिएंस और इन्फ़ॉर्म्ड कमिटमेंट का। अच्छे मैनेजर टीम से “माना करो” नहीं, “समझा करो” की उम्मीद रखते हैं।
इसी से जुड़ी दूसरी सीख है – जिज्ञासा बनाम कौतूहल।
छोटा बच्चा सड़क पर निकलता है तो हर चीज़ पर सवाल – ये क्या, वो क्यों, ये कैसे? पाँच सेकंड बाद उसका ध्यान अगली चीज़ पर चला जाता है – ये कौतूहल है, बस एक तरह की मानसिक खुजली।
जिज्ञासा वह है जो जीवन की दिशा बदल दे – ऐसा सवाल जो हमें चैन से बैठने न दे जब तक हम उसकी जड़ तक न पहुँच जाएँ। गीता में अर्जुन के प्रश्न जिज्ञासा के थे, कौतूहल के नहीं।
किसी भी ऑर्गेनाइज़ेशन में ग्रोथ उन्हीं की होती है जिनकी जिज्ञासा जीवित रहती है – जो “क्यों” और “कैसे” पूछने की हिम्मत रखते हैं, पर विनम्रता के साथ।
अब ज़रा संगठन के दूसरे किरदारों की तरफ देखें – दुर्योधन। वह टैलेंटेड, पावरफुल, स्ट्रॉन्ग है; कमजोर सिर्फ एक जगह – एटिट्यूड। बचपन से उसे इशारा दिया जाता है – “ये तुम्हारे भाई हैं, इन्हें अपनाओ।” पर उसकी ईर्ष्या की शुरुआत वहीं से होती है – खिलौने, कमरा, अधिकार, सब में साझेदारी से चिढ़।
बचपन से लेकर कोर्ट-कचहरी तक, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य – सारे वरिष्ठ हमेशा पांडवों के पक्ष में दिखते हैं। क्यों?
क्योंकि पांडव हर जगह “प्रणाम पितामह” करते हुए, रिस्पेक्टफुल टोन में, विनम्रता से बात करते हैं। दुर्योधन हर किसी में साजिश, शक, कॉम्पीटिशन देखता है।
यहाँ से मैनेजमेंट का दूसरा बड़ा फंडा मिलता है – सिर्फ स्किल्स पर्याप्त नहीं, सीनियर्स के साथ रिलेशनशिप और रिस्पेक्ट भी ज़रूरी कैपिटल है।
अच्छा जूनियर वह है जो अनुभवी लोगों को “पुराना सिस्टम” कहकर खारिज नहीं करता, बल्कि उनसे सीखकर अपना सिस्टम बनाता है। महाभारत में दुर्योधन की सबसे बड़ी हार यह थी कि उसने अपने पूरे संगठन के पुराने, अनुभवी “मेंटर्स” को कभी दिल से अपना माना ही नहीं; नतीजा – सुने जाने के बावजूद, कहीं भी उसका पक्ष दिल से किसी ने नहीं लिया।
अब चलते हैं युधिष्ठिर की तरफ – जिन्हें हम “धर्मराज” के नाम से जानते हैं। मैनेजमेंट की भाषा में कहा जाए तो वो ईमानदार, लेकिन ओवरकॉन्फिडेंट प्लेयर थे। धुत-क्रीड़ा (जुआ) वाला प्रसंग यही बताता है।
विदुर – जो उस समय के बेस्ट एथिक्स ऑडिटर और स्ट्रेटेजिक एडवाइज़र थे – साफ चेतावनी देते हैं, “शकुनी से जीतना संभव नहीं, तुम्हें खेलने से मना करने का पूरा अधिकार है।” पर युधिष्ठिर का अहंकार कहता है, “मैं भी कोई कम खिलाड़ी नहीं, मैं जीत जाऊँगा।”
यहाँ तीसरा मैनेजमेंट फंडा – हर “इंविटेशन” को स्वीकार करना ज़रूरी नहीं, ‘ना’ कहना भी स्ट्रेटेजी है।
गलत गेम में बैठकर सबसे बड़ा लॉस हो सकता है। ऑफिस में भी अक्सर हम ऐसे ही “जुए” खेलते हैं – अपनी क्षमता से ज़्यादा प्रोजेक्ट उठा लेना, रिसोर्स न होने पर भी हाँ कर देना, जिस फील्ड के हम एक्सपर्ट नहीं उसमें भी “इगो” के चक्कर में कूद जाना। बाद में जब प्रोजेक्ट फेल होता है, तो हम भी युधिष्ठिर की तरह “सिस्टम” और “चालाक लोगों” को कोसते हैं।
इसके साथ ही एक और गलती पांडवों ने की – मेंटॉर से सच छुपाना।
भगवान श्री कृष्ण उस समय के सबसे बड़े स्ट्रेटेजिस्ट थे। दुर्योधन खुलेआम कहता है – “हमारी तरफ से पासे शकुनी फेंकेंगे।” पांडव यह कह सकते थे – “हमारी तरफ से कृष्ण पासा फेंकेंगे”, और गेम का नतीजा उलट जाता। पर वे जानते थे कि जैसे ही कृष्ण को पता चलेगा कि हम जुआ खेलने जा रहे हैं, वे पहले ही मना कर देंगे।
इसलिए उन्होंने अपनी गलती अपने सबसे बड़े सलाहकार से छुपाई।
कॉरपोरेट भाषा में कहें तो – बिगेस्ट रिस्क यह नहीं कि ग़लती हो गई; बिगेस्ट रिस्क यह है कि ग़लती को उस व्यक्ति से छुपाया जाए जो उसे संभाल सकता था।
अच्छा मैनेजर वह है जो खराब न्यूज़ भी समय पर ऊपर तक पहुँचा देता है, और अच्छा लीडर वह है जो ऐसी ईमानदारी को पनिश नहीं, प्रशंसा देता है।
महाभारत हमें प्रोक्रैस्टिनेशन पर भी कड़वा सबक देती है। विराट नगर में कीचक का वध होता है, दुर्योधन तुरंत समझ जाता है – “ये काम इस धरती पर तीन ही कर सकते हैं – बलराम, भीम या मैं। तो भीम ज़रूर यहीं छुपा होगा।”
सही मैनेजर होता तो तुरंत जाता और पांडवों को पकड़ लेता। पर वह क्या करता है? पहले त्रिगर्त नरेश को भेजता है, फिर खुद सेना लेकर पहुँचता है, गणना-भागदौड़, देर-सवेर… और तब तक पांडव अपनी अज्ञातवास की शर्त पूरी कर चुके होते हैं।
यह वही “कल देखेंगे, परसों करेंगे, पहले यह प्रोजेक्ट, फिर वह फाइल” वाली बीमारी है जो ज्यादातर संगठनों को अंदर से खा जाती है। टाइमिंग भी स्ट्रेटेजी का हिस्सा है।
अब आते हैं सबसे इंपॉर्टेंट मैनेजमेंट फंडे पर – कॉन्ट्रेक्ट की क्लैरिटी।
डील क्या थी? 12 साल वनवास और 1 साल अज्ञातवास। लेकिन जब विवाद उठा तो भीष्म, द्रोण, विदुर – सब मिलकर सौर वर्ष, चंद्र वर्ष, अधिक मास, कालचक्र की गणना जोड़कर यह साबित कर देते हैं कि “इनके तो 13 साल पूरे हो चुके हैं।” दुर्योधन कहता रह जाता है – “अरे, बात तो 12 + 1 की हुई थी, यह सब ‘फाइन प्रिंट’ तो किसी ने नहीं लिखा!”
मैनेजमेंट का सीधा संदेश – कोई भी डील हो, MoU हो, जॉइनिंग लेटर हो, पार्टनरशिप हो – शर्तें लिखित और स्पष्ट रखो।
आज एक लाइन कॉन्ट्रेक्ट में अगर थोड़ा सा धुंधला छोड़ दिया, तो कल “अधिक मास” की तरह कोई भी पक्ष अपने हिसाब से व्याख्या कर सकता है। दुर्योधन की असली हार यहीं हुई – उसने भावनाओं के भरोसे समझौता किया, डॉक्यूमेंटेशन के भरोसे नहीं।
और अंत में, भगवान श्री कृष्ण का रोल – द्वारकाधीश होकर भी सारथी बनना।
सोचिए, एक राजा, एक फुल-फ्लेज्ड लीडर, युद्धभूमि में खुद रथ हाँक रहा है, घोड़े काबू कर रहा है, मिट्टी-धूल खा रहा है, कभी-कभी योद्धा के पैर के इशारे से दिशा बदल रहा है।
यह सिर्फ आध्यात्मिक संदेश नहीं, जबरदस्त लीडरशिप लेसन है – “नो जॉब इज़ बिलो डिग्निटी।”
जो लीडर सिर्फ एसी केबिन से आदेश देता है, जमीनी हकीकत नहीं देखता, वह कभी “कृष्ण” नहीं बन सकता, बस “धृतराष्ट्र” बनकर रह जाता है – सब सुनता है, पर देख कुछ नहीं पाता।
महाभारत कोई पुराना रक्तरंजित किस्सा भर नहीं, यह एक विशाल मैनेजमेंट हैंडबुक है – जिसमें ह्यूमन रिसोर्स, स्ट्रेटेजी, गवर्नेंस, नैतिकता, कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट, सब कुछ केस-स्टडी की तरह दर्ज है। फर्क सिर्फ इतना है कि हमने इसे टीवी की धुन और व्हॉट्सऐप के कोट्स में समेट दिया, मूल ग्रंथ तक लौटे ही नहीं।
अगर हम अपने करियर, संस्था, परिवार – तीनों के मैनेजमेंट में महाभारत की ये बातें रख दें –
प्रश्न पूछने का साहस,
जिज्ञासा और विनम्रता,
सीनियर्स के प्रति सम्मान,
गलत गेम से “ना” कहने की हिम्मत,
समय पर निर्णय लेने की आदत,
और कॉन्ट्रेक्ट में साफ-साफ शर्तें लिखने की समझ –
तो शायद हमारे ऑफिस और जीवन में भी रोज़-रोज़ छोटे-छोटे कुरुक्षेत्र नहीं बनेंगे, और बनें भी, तो हम अर्जुन की तरह कन्फ्यूज़ होकर नहीं, कृष्ण की सीख के साथ, स्पष्टता और धैर्य से उन्हें संभाल सकेंगे।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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