Movie Review – होम बाउंड
मेरे लिए शाम बिताने का मतलब बड़ा सीधा-सादा है – घर के सब लोग इकट्ठा, टीवी ऑन, और या तो कोई पुरानी–नयी फ़िल्म, या ओटीटी पर ताज़ा रिलीज़, या किसी सीरीज़ का नया सीज़न। यही मेरा रोज़ का डेली डिटॉक्स पैकेज है। कल रात भी वही रिवाज़ चल रहा था। मैं फेसबुक स्क्रोल कर रहा था कि अचानक होम बाउंड का टीज़र आँख पर आ गिरा – लिखा था: नेटफ़्लिक्स पर रिलीज़।
सोचा, चलो देखते हैं, दो घंटे की ही तो बात है। ऊपर से नाम के आगे–पीछे इतना शोर भी – “ऑस्कर की ऑफ़िशियल एंट्री”, “स्टैंडिंग ओवेशन”, “मास्टरपीस” वगैरह-वगैरह। फ़िल्म ऑन हुई, और दो घंटे बाद लगा कि मैं सिर्फ़ फ़िल्म नहीं, पूरा माहौल देखकर उठा हूँ – जहाँ कहानी, एक्टिंग, एजेंडा और ऑस्कर-ज्यूरी सब एक ही थाली में परोसे गए हैं।
कहानी का प्लॉट सीधा-सादा ही है – दो दोस्त: मोहम्मद शोएब (ईशान खट्टर) और चंदन कुमार (विशाल जेठवा)। दोनों बेहद साधारण घरों से, दोनों की जेब में रखा है एक छोटा-सा बड़ा सपना – पुलिस की वर्दी पहननी है, सिपाही बनना है, घरवालों के माथे की सिलवटें थोड़ी कम करनी हैं। ऊपर से जात और धर्म की इनविज़िबल जंजीरें, नीचे से लॉकडाउन की कंक्रीट जंजीर। फ़िल्म का नाम होमबाउंड है, पर असल में यह घर की ओर लौटने से ज़्यादा हर तरफ़ से घिर जाने की कहानी है।
फ़िल्म का दावा है – बेस्ड ऑन ए ट्रू स्टोरी – न्यूयॉर्क टाइम्स में छपे एक कॉलम से उठी हुई घटना: A friendship, a pandemic and a death beside the highway.
उस सच्चाई के बहाने नीरज घेवन ने एक ऐसे भारत की कोलाज बनाई है, जो पश्चिमी फ़िल्म फेस्टिवलों को बहुत पसंद आता है – धूल, गरीबी, जात, धर्म, आँसू, सूजी हुई आँखें और हाईवे किनारे लाश जैसा सन्नाटा।
ईशान खट्टर यहाँ सचमुच चौंकाते हैं। द रॉयल्स में घोड़े पर शर्टलेस घूमने वाला लड़का जब यहाँ उतरता है, तो टूटी कंक्रीट की दीवारों, छोटे कमरे, बीमार बाप और बैंक के लोन के बीच फँसा आम भारतीय युवक बन जाता है। कई जगह वह कम बोलते हैं, ज़्यादा आँखों से काम चलाते हैं — और वही आँखें दर्शक से पूछती हैं:
“तुम्हें लगता है ये सब ओवर एक्टिंग है, ओवर ड्रामा है? या तुम्हारे आसपास भी ऐसा ही कुछ चल रहा है, बस तुमने देखा नहीं?”
विशाल जेठवा का चंदन भी उतना ही असरदार है — दलित युवक, जो अपनी जात को रिज़र्व्ड नहीं, बल्कि ‘छिपाने वाली केटेगरी’ मानता है। फ़ॉर्म में जनरल टिक कर देता है, क्योंकि उसे शक है कि एससी लिखते ही मज़ाक, तिरस्कार और झाड़ू — यही पोस्टिंग मिलेगी। उसकी बॉडी लैंग्वेज में वही झिझक दिखती है, जिसे समाज ने सालों में एक मास्टरपीस की तरह तराशा है।
दोस्ती के झगड़े में जब दोनों एक-दूसरे की सबसे बड़ी कमज़ोरियों पर वार करते हैं, तब समझ आता है कि हम सब अपने–अपने करीबी लोगों के लिए कितने ख़तरनाक हथियार बन जाते हैं।
यहाँ फ़िल्म रियल लाइफ़ से बड़ा मेल खाती है — चाहे दोस्ती कितनी भी गहरी हो, दो दोस्तों में से एक अगर कामयाब हो जाए तो दूसरा कुण्ठा का शिकार हो ही जाता है, और दोस्ती में एक मोड़ आ ही जाता है।
अब आती है बारी जान्हवी कपूर की — जिनका होना और न होना, दोनों मिलाकर भी कहानी में बहुत नया नहीं जोड़ता। प्रोडक्शन डिज़ाइन ने उन्हें “थोड़ी गरीब, थोड़ी मिडिल क्लास, थोड़ी स्ट्रॉन्ग इंडिपेंडेंट” बनाने की कोशिश की है — साधारण सैंडल, सिंपल कपड़े, हल्का मेकअप — पर चेहरा वही वन-एक्सप्रेशन-फिट्स-ऑल।
बाक़ी कलाकार अपनी आँखों, साँस की गति और चेहरे के सूक्ष्म भावों से अभिनय कर रहे हैं; उधर पूरा चेहरा एक सीरियल के फ्रीज़ शॉट जैसा स्थिर। कंसिस्टेंसी के लिए पूरे अंक, मगर अभिनय के लिए… अब मैं इतना बड़ा फ़िल्मी क्रिटिक नहीं हूँ — आप ही बताइए, कितने नंबर दिए जाएँ?
तकनीकी रूप से फ़िल्म सलीकेदार है। हैंड-हेल्ड कैमरा, लंबे सिंगल टेक, रात के दृश्यों में रोशनी का सुंदर इस्तेमाल, कुछ प्रभावी ड्रोन शॉट्स — सब मिलकर माहौल रचते हैं। कई बार लगता है जैसे हम भी इन दोनों के साथ ट्रक के ऊपर, फ़ैक्टरी के गेट पर या सुनसान हाईवे पर चल रहे हों।
लेकिन असली मज़ा (और झुंझलाहट) वहाँ शुरू होती है, जहाँ कहानी अपना ऑस्कर-फ्रेंडली चेहरा दिखाने लगती है —
दलित एंगल ✔️
मुस्लिम पीड़ित एंगल ✔️
लॉकडाउन में भूखे, ट्रक या पैदल लौटते मज़दूर ✔️
पेपर लीक और सरकारी नौकरी पर व्यंग्य ✔️
सिस्टम से शिकायत, समाज से शिकायत, किस्मत से शिकायत ✔️
यह जातीय संघर्ष, मुस्लिम वर्ग के प्रति सामान्य प्रिऑक्यूपेशन, सामाजिक जड़ता — सब जगह मिल जाता है, ये सब सच हो सकता है, होता भी है, और हम सबने इसे ख़बरों में, आस–पास देखा भी है। । पर फ़िल्म कई जगह इन तत्वों को बढ़ा–चढ़ाकर प्रस्तुत करती है। ख़ासकर दलित समुदाय के प्रति जो रवैया दिखाया गया है, वह आज उतना मुखर नहीं रह गया है। एसटी–एससी एक्ट ने काफ़ी हद तक परिस्थितियों को संभाला है और व्यवहार में पहले जैसी खुली कटुता अब बहुत कम दिखाई देती है।
समस्या सच्चाई से नहीं, उसकी पैकेजिंग से है। जब हर सीन ऐसा लगे कि —
“ये वाला फ़्रेम ज़रूर किसी इंटरनेशनल ज्यूरी की स्लाइड में इस्तेमाल होगा,”
तो दर्शक के दिमाग में हल्की–सी घंटी बजती है —
“ये मेरे लिए बनाया है या ऑस्कर के लिए?”
पुलिस भर्ती की उम्र, नौकरी–रोज़गार की हकीकत, सरकारी योजनाओं का संदर्भ — स्क्रिप्ट कई जगह सुविधा के हिसाब से इन्हें मोड़ती, काटती, खींचती है, ताकि पीड़ा का कर्व वही आकार ले, जो विदेशों में बैठे दर्शकों को ग्लोबल साउथ का दुख समझाने के काम आए।
गरीबी दिखाना ज़रूरी है, पर गरीबी बेचना अलग बात है — होमबाउंड कई बार इस बारीक रेखा के इस पार–उस पार झूलती रहती है।
नीरज घेवन की मसान में भी एजेंडा था, व्यवस्था पर कटाक्ष था — लेकिन वहाँ कहानी पहले थी, बयानबाज़ी बाद में। यहाँ कई जगह उलटा लगता है — पहले तय कर लिया गया है कि दुनिया को कौन–सा भारत दिखाना है, फिर उसी हिसाब से किरदार, संवाद और दृश्य चुने गए हैं।
और हाँ, ये बात माननी पड़ेगी — ऑस्कर की “झोली” को ध्यान में रखकर फ़िल्म बनाई जाए तो शॉट्स से लेकर संवाद तक में एक खास तरह की गंध आ ही जाती है। होमबाउंड में वह गंध साफ़ महसूस होती है।
फिर भी, ईमानदारी से कहूँ तो — कल शाम जब मैंने नेटफ्लिक्स पर प्ले दबाया था, तो दो घंटे बाद उठते समय मेरे भीतर दो आवाज़ें थीं।
एक कह रही थी — “यार, कितनी ईमानदार एक्टिंग है, कितनी कड़वी सच्चाइयाँ हैं, जिन्हें देखना चाहिए।”
दूसरी कह रही थी — “हम्म… ये सब मुझे दिखाया जा रहा है, या किसी और को प्रभावित करने के लिए मेरे ज़रिये पार्सल किया जा रहा है?”
अगर आप एक्टिंग, इमोशन और लॉकडाउन की कलेक्टिव मेमोरी के लिए फ़िल्म देखना चाहते हैं — होमबाउंड ज़रूर देखिए, मज़बूत परफ़ॉर्मेंस आपका समय वसूल कर देंगे।
अगर आप बिना एजेंडा के सिर्फ़ कहानी देखना चाहते हैं, तो थोड़ी–सी खुराक संशय की साथ ले जाइए — कहीं ऐसा न हो कि फ़िल्म खत्म होते–होते आपको लगे,
“सिनेमा कम, प्रोजेक्ट रिपोर्ट ज़्यादा देख ली।”
मेरे लिए तो यह वही वाली शाम थी — परिवार, टीवी, ओटीटी, और इस बार स्क्रीन पर एक फ़िल्म जो दिल भी हिला गई और दिमाग में खुजली भी कर गई।
अब आप देखिए — आपके घर की शाम इसे किस खाने में दर्ज करती है — “अच्छा दर्द” या “सजावटी दुख”?
अब आप ही बताइए।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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