क्या आपने कभी खीच का नाम सुना है? अगर आप भी मेरे जैसे देसी परिवेश में पले-बढ़े हैं, तो इस नाम के साथ ही आपके मुंह में पानी आना लगभग निश्चित है। गंगापुर की “स्पेशल टिक्कड़-सभ्यता” का जितना सांस्कृतिक महत्त्व है, उससे कम कुछ भी खीच का नहीं। खीच कोई व्यंजन भर नहीं—एक देसी उत्सव है, जिसमें दाँत वालों और बिना दाँत वालों, दोनों की भागीदारी बराबर रहती थी। इसकी उत्पत्ति पर काफी खोजबीन की, पर ज्यादा साहित्य नहीं मिला। शायद इसलिए कि इसका इतिहास रेसिपी बुक्स , व्यंजनशालाओं या बड़े-बड़े कुकिंग शो में नहीं, बल्कि मौखिक परंपरा में दर्ज है। कुछ यू-ट्यूबर्स ने इसके छुट-पुट वीडियो ज़रूर डाले हैं, पर इसके बनाने और खाने के ठाठ-बाट देखते हुए मुझे यह गुजराती व्यंजनों—जैसे खमण ढोकला और खांडवी—से कहीं-कहीं मिलता-जुलता लगता है।
गाँव के बचपन की स्मृतियों को रिवाइंड करें , तो खीच सिर्फ भोजन नहीं, बल्कि सामुदायिकता से भरा पूरा कार्यक्रम था। शादियों का कैलेंडर खीच के बिना अधूरा। महीने भर पहले से ही भाइयों, बुहारियों और रिश्तेदारों को न्योते भेजे जाते कि फलाँ दिन खीच बनेगी—आना है। सभी महिलाएँ मिलकर इसे तैयार करतीं, और फिर गुनगुनी धूप में तिल के तेल के साथ समूह में इसका सेवन होता था। बूढ़े, बच्चे, जवान—दाँत वाले और बेदाँत—सब बराबरी से इसमें हिस्सा लेते थे। बची हुई खीच से खीचले बनते, जो पापड़ जैसे मसालेदार साथी थे—धूप में सुखाए जाते, फिर कभी तेल में तलकर, कभी आंच में सेंककर खाए जाते।
बाजरा, गेहूँ, मक्का और ज्वार—हर अनाज का अपना खीच-अवतार था। इसकी विधि पाककला की किसी भी पाठशाला को चुनौती दे दे—एक तरह से देसी कलिनरी-एग्जाम । पानी उबाला जाता, मसाले डाले जाते, और फिर कच्चा, ताज़ा पिसा आटा। हमारे घर की महिलाएँ इस कला में ऐसी पारंगत थीं कि करछुल पर पानी की पतली परत लेकर सही उबाल का अंदाज़ा लगा लेती थीं। सबसे कठिन क्षण वह होता था जब उबलते पानी में आटा डालना पड़ता—उसी क्षण पूरे कौशल की परीक्षा होती। करछुल ज़रा ढीली हुई तो गुठलियाँ सम्मान सहित दर्शन देने को तैयार। जैसे ही खीच बनकर उतरती, पूरे घर में मानो छोटी-सी दिवाली मन जाती—हर प्लेट में गरमागरम खीच, और मन में उजास।
सोडा बाईकार्ब इसका वैज्ञानिक सहयोगी है, और तिल का तेल इसकी देसी आत्मा।
खीच सिर्फ स्वाद नहीं, एक वंशानुगत आकर्षण भी है। ऐसा लगता है कि खीच-प्रेम किसी जीन की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी ट्रांसफर हुआ है—पिताजी, फिर मैं, और अब मेरा बेटा। सर्दी आते ही बिना कहे, बिना पूछे—सीधे खीच चढ़ जाती है। मसाले उबलने लगते हैं और पूरा घर उसी भरोसेमंद, पुरानी साथी सुगंध से भर उठता है।
अब बात एक ज़रूरी देसी SOP की—खीच बनाना जितना अहम है, उतना ही अहम इसका खाने का तरीका। कई देसी घी-प्रेमी इसे घी में डुबोकर खाना चाहते हैं—कोई हरज नहीं—लेकिन खीच की असली जोड़ीदार तिल का तेल ही है। सर्दियों में तिल के तेल की गरम तासीर पेट, नसों, हड्डियों—सबमें ऐसी गर्माहट भरती है कि सर्दी को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ जाए।
सच कहें तो आदमी तिल का तेल पचा सके—बस इसी महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए खीच का आविष्कार हुआ होगा। जितनी सर्दी बढ़ती है, जितना कोहरा गहराता है, उतना ही शरीर भीतर से फुसफुसाकर खीच की मांग करने लगता है। खीच में सोडा बाईकार्ब इतनी उदारता से डाला जाता है कि पेट में पहुँचते ही वह पहले फूलता है, और खाने वाला तुरंत घोषणा कर देता है—“आज तो लंच–डिनर छुट्टी!” परन्तु यथार्थ यह है कि दो घंटे बाद वही सज्जन तवे और कड़ाही से उतरी पूरी दुनिया चट कर जाने की क्षमता रखते हैं।
एक देसी नियम और—खीच खाकर तुरंत पानी मत पीजिए। वरना भीतर बैठा ‘फूलाव विभाग’ अतिरिक्त जोश के साथ सक्रिय हो उठेगा। और हाँ—खीच को चम्मच से खाना व्यंजन का अपमान है। यह पकवान हाथ की गर्मजोशी मांगता है। प्लेट में खीच डालिए, बीच में मनरेगा-स्टाइल का एक तालाबनुमा गड्ढा बनाइए, उसमें तिल का तेल भरिए; फिर किनारों से खीच उंगलियों से तोड़कर तेल में डुबोइए और ‘सी-सी’ करते हुए मुँह में डालिए—यही खीच का असली भोग-दर्शन है।
समय के साथ स्वाद में भी हल्का-फुल्का सुधारवादी आंदोलन चला। लकड़ी की आँच की जगह गैस ने ले ली, और पारंपरिक खीच के मूल स्वर में अदरक, लहसुन, मिर्च और प्याज़ का नया राग मिल गया है। । पर स्वाद की जड़ें वहीं की वहीं हैं—असली देसी मिट्टी में धँसी हुई। इसकी तासीर गरम होती है, इसलिए यह सदियों से सर्दियों का ही व्यंजन रहा है ।
मैंने भी बचपन में ही खीच बनाना सीख लिया था। बाहर पढ़ाई के दौरान जब मन किया, बना लिया। एक बार मेरे पार्टनर ने इसे देखा—पर कच्चे तेल से खाने की हिम्मत नहीं हुई। फिर मनोबल बाँधकर एक कौर खाया और इतना पसंद आया कि पूरी प्लेट चाट गया। इसके बाद तो रोज़ की मांग शुरू हो गई।
कुछ लोग खीच को “नमकीन हलुआ” कहने की भूल कर बैठते हैं, पर खीच का असली रुतबा इससे कहीं ऊँचा है। इसे खीच ही कहिए—नाम बदलकर इसे पोलिटीकली करेक्ट बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। गुनगुनी धूप, प्लेट के बीच गोल गड्ढा, उसमें भरा तिल का तेल—यह स्वाद अनोखा है। चम्मच से खाया जाए तो वह आनंद ही नहीं आता जो हाथ से खाने की देसी सुखानुभूति में है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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