अरावली पर्वतमाला, जो विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक है, पश्चिमी भारत में एक मौन पारिस्थितिक प्रहरी के रूप में सदियों से खड़ी रही है।
“अरावली पर्वतमाला, विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक, पश्चिमी भारत में एक मौन पारिस्थितिक प्रहरी के रूप में सदियों से खड़ी है।जो लगभग 3.2 अरब वर्ष पुरानी है। अरावली पर्वतमाला की लंबाई लगभग 692 किलोमीटर है। सबसे ऊँची चोटी माउंट आबू है, जिसकी ऊँचाई 1,722 मीटर है। गुजरात, राजस्थान, और हरियाणा राज्यों में फैली हुई है। अरावली पर्वतमाला की जलवायु शुष्क और अर्ध-शुष्क है, जिसमें औसत वार्षिक वर्षा 400-600 मिमी है।महत्वपूर्ण नदियों का स्रोत है, जिनमें चंबल, बनास, और साबरमती शामिल हैं। अरावली पर्वतमाला में 500 से अधिक प्रजातियों के पौधे और 200 से अधिक प्रजातियों के जानवर पाए जाते है। और दिल्ली तक फैली यह शृंखला भूजल पुनर्भरण,मरुस्थलीकरण पर नियंत्रण, जलवायु संतुलन तथा धूल और प्रदूषकों को रोकने जैसे महत्वपूर्ण कार्य करती है। अरावली बंजर भूमि नहीं है जिसे ‘उपयोगी’ बनाने के लिए बदला जाए यह जीवित अवसंरचना है। जल सुरक्षा, जलवायु सहनशीलता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के रूप में जो सेवाएँ यह प्रदान करती है, उनकी भरपाई कृत्रिम उपायों से आसान नहीं है। जब नीति निर्माण में पर्यावरणीय परिसंपत्तियों का मूल्य कम आँका जाता है, तो तात्कालिक आर्थिक लाभ दीर्घकालिक सामाजिक हानि में बदल जाते हैं। हालिया विवाद, जिसमें अरावली की कानूनी परिभाषा को पुनर्परिभाषित किया गया है, ने इस प्राचीन पर्वतमाला को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहाँ शब्दावली ही उसके अस्तित्व का भविष्य तय कर सकती है।
विवाद के केंद्र में अरावली पहाड़ियों की एक नई, समान और तकनीकी परिभाषा है, जिसमें न्यूनतम ऊँचाई को मुख्य मानक बनाया गया है। प्रशासनिक दृष्टि से मानकीकरण भले ही सरल प्रतीत हो, पर प्रकृति सीधी रेखाओं में कार्य नहीं करती। छोटी पहाड़ियाँ, चट्टानी उभार, ढलान और असमतल भू-आकृतियाँ—जो इस ऊँचाई के मानक से नीचे आती हैं—मिलकर एक ऐसा पारिस्थितिक तंत्र बनाती हैं जो जलधारण और जैव विविधता के लिए अनिवार्य है। ऊँचाई को कार्यात्मक महत्व से ऊपर रखना भू-दृश्यों की भाषा को न समझने के समान है।इसके दुष्परिणाम पहले से ही संवेदनशील क्षेत्रों में अधिक गंभीर हो सकते हैं। राजस्थान की नाजुक भूजल व्यवस्था अरावली के जलग्रहण क्षेत्रों पर अत्यधिक निर्भर है। हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर के लिए यह पर्वतमाला पश्चिम से आने वाली धूल और प्रदूषण के विरुद्ध प्राकृतिक दीवार का काम करती है। इन पहाड़ियों का विखंडन—चाहे वह खनन, रियल एस्टेट या अवसंरचना परियोजनाओं के माध्यम से हो—भूजल स्तर में गिरावट, शहरी ताप द्वीप प्रभाव और वायु गुणवत्ता में और गिरावट ला सकता है। इसका मूल्य न्यायालयों में नहीं, बल्कि घरों, खेतों और अस्पतालों में चुकाना पड़ेगा। दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा। आवश्यकता एक ऐसे विज्ञान-आधारित और सहभागी ढाँचे की है, जो भू-आकृतिक स्वरूप के साथ-साथ पारिस्थितिक कार्यों को भी महत्व दे। रिमोट सेंसिंग, जीआईएस मानचित्रण और जलवैज्ञानिक मॉडलिंग जैसे आधुनिक उपकरण ऊँचाई से परे उच्च पारिस्थितिक मूल्य वाले क्षेत्रों की पहचान में सहायक हो सकते हैं। संरक्षण को तब सटीक रूप से अनुकूलित किया जा सकता है, न कि कमजोर।
अंततः अरावली विवाद भारत के पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा है ,विकास के मार्ग पर आगे बढ़ते भारत के लिए आवश्यक है कि अन्तरात्मा अरावली को केवल मानचित्र पर ऊँचाइयों के रूप में नहीं, बल्कि क्षेत्र के पर्यावरणीय और मानवीय इतिहास से जुड़ी जीवनरेखा के रूप में देखा जाए। प्राचीन पहाड़ियाँ राजनीतिक कार्यकालों में पुनर्जीवित नहीं की जा सकतीं; एक बार समतल हो जाने पर वे सदा के लिए खो जाती हैं। अरावली पर्वतमाला का नामकरण इंद्र और वृत्र की कथा से जुड़ा है। कहा जाता है कि इंद्र ने वृत्र को मारने के लिए वज्र का उपयोग किया था, जिससे अरावली पर्वतमाला का निर्माण हुआ। जहां मौर्य और गुप्त काल के कई अवशेष पाए गए हैं। साथ ही मुगल काल के कई किलों और मंदिरों से पता चलता है कि इतिहास और संस्कृति बहुत ही समृद्ध है हमें अरावली पर्वतमाला को एक जीवित अवसंरचना के रूप में देखना चाहिए, न कि केवल एक भू-आकृतिक संरचना के रूप में ।
डा.अभिषेक घुवारा टीकमगढ़ 1/16 GHUWARA SADAN . TIKAMGARH m.p.472001
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