“धनतेरस नहीं, आरोग्य दीपोत्सव — धन्वंतरि के अमृत का असली अर्थ”
आज धनतेरस है—पर जीभ से निकले “धन” शब्द को ज़रा रोके रखिए और मन में “आरोग्य” का दीप जला लीजिए। सोचिए, कितना सुंदर होगा अगर हम इसे धनतेरस नहीं, आरोग्य-दीपोत्सव कहें—क्योंकि इस दिन का असली नायक बाज़ार की चमक नहीं, धन्वंतरि हैं; वही दिव्य वैद्य, जो समुद्रमंथन से अमृत-कलश लेकर प्रकट हुए और मानवता के हाथ में चिकित्सा, जड़ी-बूटी और दीर्घायु का वरदान थमा गए। वक्त के साथ हमने आरोग्य के इस पर्व को खरीदारी के मेले में बदल दिया—दवाइयों की जगह गिफ्ट-हैम्पर्स, अमृतकलश की जगह डिस्काउंट-कूपन और स्वच्छता का झाड़ू किसी कोने में टिकाकर हम सोने की चमक में आँखें चौंधिया लेते हैं। पर सच्चाई वही है जिसे वैद्यों ने सदियों पहले कह दिया था—“आरोग्यं परमं धनम्”—स्वास्थ्य ही सर्वोच्च धन है; बाकी सब उन्हीं स्वस्थ साँसों से अर्थ पाते हैं।
यहीं से दीपावली के पाँच दिनों की कथा शुरू होती है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी—यानी आज—वह दहलीज़ है, जहाँ से प्रकाश का उत्सव आगे बढ़ता है। अक्सर लोग पूछ बैठते हैं कि “एक ही त्योहार दो-दो दिन क्यों पड़ा?” और दोष पंडितों के सिर—जैसे वे ही कंफ्यूजन रचते हों। असल में गड़बड़ी पद्धतियों की है, पंडितों की नहीं। हमारी तिथियाँ चंद्रमा की गति पर चलती हैं; अंग्रेज़ी तारीख़ें सूरज की चाल पर। कभी तिथि आधी रात से उठती है, कभी अगले दोपहर तक ठहरती है—तो लगता है जैसे त्योहार “लंबा” हो गया। यह भ्रम नहीं, हमारे पंचांग की खूबसूरती है—समय यहाँ गणित नहीं, जीवन का स्पंदन है; जहाँ वृत्ताकार चक्र में काल बहता है और तिथि का आरंभ-अंत घड़ी की सूई से नहीं, चंद्रबेला से तय होता है। यही कारण है कि कभी धनतेरस दो दिनों पर फैला-सा दिखता है, कभी नवरात्र दशमी तक “लंबी साँस” ले लेता है। हमारे सनातन गणित में यह लचक ही विज्ञान है—लय से तिथियाँ चलें, तो राग सही बैठता है।
पर लौटें मूल भाव पर—धन्वंतरि कौन? शब्द अलग रख दें, अर्थ पकड़िए: “धन्वन्”—शुष्कता, बंजर, रोगरूप मरुस्थल; “त्रि”—उसे पार करा देने वाले। धन्वंतरि यानी वह शक्ति जो शरीर-मन की रेतीली थकान पर जीवन-वर्षा बनकर बरसती है। कथा कहती है—क्षीरसागर मथा गया, चौदह रत्न निकले, और उन्हीं में एक थे धन्वंतरि—चार भुजाएँ, पीताम्बर, एक हाथ में अमृतकलश, दूसरे में शंख, तीसरे में चक्र, चौथे में औषधि। यह रूप केवल चित्र नहीं, संदेश है: शंख—प्राण का नाद; चक्र—समय का स्मरण; औषधि—प्रकृति की उपचार-शक्ति; अमृतकलश—संयम और आत्मज्ञान का रस। धन्वंतरि केवल देह के वैद्य नहीं, चेतना के भी चिकित्सक हैं; वे बताते हैं कि दवा केवल गोली-काढ़ा नहीं, विचार, आहार, व्यवहार और संतुलन भी है।
आयुर्वेद की परंपरा में धन्वंतरि आदि-वैद्य माने गए। उन्होंने चिकित्सा को आठ अंगों—काय, शल्य, शालाक्य, कौमारभृत्य, अगद, भूतविद्या, रसायन, वाजीकरण—में व्यवस्थित किया। काशी के दिवोदास से लेकर सुषेण तक, इस ज्ञान ने नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में अपना स्वर फैलाया, और काशी को “आयुर्वेद की जन्मभूमि” होने का गौरव मिला। इसीलिए धनतेरस की संध्या को, जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल दालान में रखे मिट्टी के दिए नहीं होते; वे भीतर भी जलते हैं—आहार में सादगी, निद्रा में अनुशासन, वाणी में मधुरता, और मन में प्रार्थना के रूप में।
अब पूछिए—पूजा कैसे? उत्तर भी उसी सहजता में छिपा है: प्रदोषकाल में द्वार पर चार दीप रखिए—चारों दिशाओं की ओर—यमदीपदान के रूप में; यह भय के निष्कासन और दीर्घायु की मंगलकामना है। कलश के पास औषधियाँ, हल्दी, सूखा धनिया, और एक नया झाड़ू रखिए। प्रतीक सरल हैं, पर अर्थ गहरे: झाड़ू—स्वच्छता; जहाँ सफाई, वहाँ लक्ष्मी का वास। धनिया—समृद्धि का बीज; पूजा के बाद मटके में रोप दीजिए, समृद्धि अंकुरित होगी। हल्दी—प्रतिरोधक शक्ति का रंग; दूध की एक चुटकी में वह गाँव-भर की माँओं की निश्चिंतता है। यही तो असली “खरीदारी” है—आरोग्य की वस्तुएँ, जो तन-मन दोनों के घर रोशनी भर दें। सोना-चाँदी की हैसियत न हो तो भी क्या; एक नया लोटा, एक चम्मच, एक तुलसी का पौधा, एक थर्मस दवा के लिए—धनतेरस पूर्ण हो जाएगी। खरीदी का मूल्य नहीं, अर्थ मायने रखता है—और अर्थ यही है कि “मैं स्वास्थ्य को प्राथमिकता देता/देती हूँ।”
बाज़ार की चकाचौंध के बीच यह बात राह दिखाती है: पैसे से खरीदे गए उपहार कुछ दिन चमकते हैं, पर स्वस्थ दिनचर्या, संयम और स्वच्छता का उपहार उम्र भर साथ रहता है। इसलिए अगर आज आप सोना नहीं खरीद रहे, तो उदासी की ज़रूरत नहीं; अपने लिए दस मिनट का ध्यान खरीदिए, किसी मज़दूर की दवा की पर्ची खरीद दीजिए, या घर के कोने से धूल का पहाड़ हटाकर साँसों के लिए जगह खरीद लीजिए। धन्वंतरि की पूजा इसी का नाम है—जहाँ करुणा औषधि बनती है और संयम अमृत।
और हाँ, कैलेंडर के भ्रम से घबराइए मत। कभी तिथि दो दिनों पर टिकेगी, कभी दीपावली के पाँच दिन “छह” दिखेंगे; यह हमारे समय-बोध की काव्यात्मकता है—कठोर चौखट नहीं, लयबद्ध नृत्य। अंग्रेज़ी महीने हमारे होंठों पर जल्दी आते हैं, पर अपने महीनों का भी स्मरण रखिए—कार्तिक का आकाश, शरद का चाँद, और मिट्टी के तेल में भीगी बाती का वह पीला कँपकँपाता प्रकाश; इन सबका संगम मिलकर ही तो त्योहार बनता है। और जब मन ये सब याद करता है, तो ज्ञात होता है कि दीप बाहर जितने जलते हैं, उससे अधिक भीतर जलने चाहिए—क्रोध, आलस्य, असंयम और अव्यवस्था के अंधेरे को काटने के लिए।
यदि इस आरोग्य-दीपोत्सव पर आप एक पंक्ति मन ही मन जप लें, तो वह यह हो:
“ॐ नमो भगवते धन्वंतरये, अमृत-कलश-हस्ताय, सर्वामय-विनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्री-महाविष्णवे नमः।”
यह मंत्र स्मरण कराता है कि स्वास्थ्य केवल मेडिकल हेल्थ रिपोर्ट की संख्या नहीं, जीवन-शैली का स्वर है—सोच में स्वच्छता, थाली में संतुलित आहार , दिनचर्या में अनुशासन और संबंधों में मधुरता।
तो आइए, इस बार धनतेरस पर एक अलग सा संकल्प उठे: घर की दहलीज़ पर चार दीप रखें, और पाँचवाँ दीप अपने भीतर जलाएँ—ज्ञानेन्द्रियों पर संयम का, नींद-जागरण के अनुशासन का, भोजन में सरलता का, और वाणी में शांति का। क्योंकि अंततः वही घर समृद्ध कहलाता है, जहाँ दवाइयाँ अलमारी में कम और मुस्कानें बरामदे में ज़्यादा होती हैं; जहाँ झाड़ू केवल फर्श नहीं, विचारों को भी साफ करता है; और जहाँ प्रत्येक दीपक यह संदेश देता है— स्वस्थ तन में ही दिव्यता का वास है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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