आधी भरी हुई गगरी का छलकना प्रकृति का नियम है। पर आज के डिजिटल युग में यह मुहावरा “सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स” के चरित्र का पर्याय बन गया है। जिसके पास जितना कम ज्ञान होता है, उसकी टिप्पणियाँ उतनी ही ज़ोरदार, आक्रामक और अटपटी होती हैं। फ़ेसबुक पर “जीवन-दर्शन” के नाम पर रोज़ सुबह ५ बजे पहली पोस्ट करने वाले महानुभावों को देखिए — ग़ालिब के शेरों को गलत उच्चारण के साथ पेश करना, बाइबल और गीता का फ़्यूजन कर डालना, या फिर “कर्म करो, फल की चिंता मत करो” को नए अवतार में परोसना , या किसी की भी पंक्तियों को महादेवी वर्मा या हरिवंश राय बच्चन की बता देना , ये सब उनकी अधजल गगरी के छलकाव का प्रमाण है। ट्विटर पर दुनिया को सुधारने वाले “की बोर्ड योद्धा” तो किसी महाभारत के अभिमन्यु हैं वे चक्रव्यूह में घुस तो जाते हैं, पर निकलने का रास्ता उन्हें स्वयं भी नहीं पता होता ! इंस्टाग्राम पर “फ़िलॉसफ़ी की स्टोरियाँ” लगाकर अपनी आधी अधूरी पढ़ी किताबों का प्रमाण देने वाले युवा भी कम नहीं । व्हाट्स अप यूनिवर्सिटी ही इनका यूनिवर्स है। कामसूत्र के उद्धरणों पर डिस्क्लेमर लगाते हैं, पर स्रोत की सत्यता की जाँच की ज़हमत नहीं उठाते। फॉरवर्ड कर खुद का मोबाइल खाली करना और दूसरों को स्पैम करना इनका मौलिक अधिकार होता है।इनकी छलकती हुई बुद्धिमत्ता का शोर इतना तीव्र है कि गंभीर विद्वानों की आवाज़ें डूब रही हैं।
राजनीति के मैदान में तो यह मुहावरा “राष्ट्रीय नेताओं” का जीवन-मंत्र बन गया है। जिसके पास देश तो क्या खुद का घर चलाने का कोई प्लान नहीं, उसके पास अखबार में बने रहने और नारेबाज़ी के हज़ार प्लान हैं। आधा ज्ञान, पूरा अहंकार — यही “छलकत गगरी” का असली मजमून है! वास्तविक इतिहास पढ़ने या वैज्ञानिकों के शोध को समझने की फुर्सत किसे है? व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से मिले “फ़ैक्ट्स” ही देश को गुमराह करने के लिए पर्याप्त हैं। एक तरफ़ अर्थशास्त्री बजट पर चिंता जताते हैं, दूसरी ओर नेता जी ट्वीट कर देते हैं — “अरे भाई, जनता को रोटी चाहिए, GDP नहीं!” ऐसे में गगरी के छलकने की आवाज़ से ही संसद गूँज उठती है। और वाक आउट करना ही विपक्ष का दायित्व रह जाता है।
ऑफ़िस की मीटिंग्स में भी इस मुहावरे का जायका देखने मिल जाता है। जो सबसे कम समझता है, वही “आइडियाज़” की बौछार करके प्रोजेक्ट को डूबाने में माहिर होता है। शर्त इतनी है कि उसे “बास का खास” बनने के लिए चम्मच का रोल करना होता है। “सर, मार्केटिंग में मेरा १० साल का एक्सपीरियंस कहता है…” यह कहकर वह नए जूनियर के डेटा एनालिसिस को नकार देता है। कहते हैं “खाली दिमाग़ शैतान का घर”, पर आजकल तो खाली दिमाग़ सीईओ का चमचा नंबर वन , बनकर अपना आधा अधूरा ज्ञान सब पर थोपता है। उसकी “गगरी” इतनी ज़ोर से छलकती है कि विशेषज्ञ चुप रहने में ही भला समझते हैं।
सोशल मीडिया की रील्स में तो यह छलकाव चरम पर पहुँच जाता है। खुद अपने कपड़े उतारकर वायरल होने की होड़ में नव युवतियाँ अपनी अधजल गगरी छलकाती हैं — बेहूदे नृत्य, भौंडे इशारे, और “आत्मविश्वास” के नाम पर अश्लीलता देखना हमारी नियति है । एक तरफ़ वे “नारी शक्ति” का नारा लगाती हैं, दूसरी ओर व्यावसायिक शोषण को “सशक्तिकरण” बताती हैं। क्या यह अधूरे ज्ञान का ही प्रदर्शन नहीं कि वे “फेमिनिज़्म” को अधनंगा “फैशनिज़्म” समझ बैठी हैं?
समाज की हर परत में यह गगरी छलक रही है। पड़ोस का वह चाचा जो कोविड के दौरान “गर्म पानी से वायरस मर जाएगा” का नुस्खा बाँट रहा था, या वह मामा जो ज़मीन-जायदाद के झगड़े में “क़ानून की पूरी जानकारी” के दावे के बावजूद केस हार गया , दोनों ही अधगल गगरियां लिए घूम रहे हैं। स्कूल में बच्चे गूगल से कॉपी करके “प्रोजेक्ट” बनाते हैं, और टीचर उन्हें “रिसर्च स्किल” का सर्टिफिकेट दे देते हैं। धार्मिक गुरु “एलियंस और वेदों” का कनेक्शन बताकर भक्तों की गगरी को भरते हैं — छलकाव तय है! शोर की संस्कृति वाले सोशल मीडिया ने “लाउड ट्रेंडिंग” का फॉर्मूला बना दिया है।
जिसे ज्ञान कम होता है, उसे अपनी क्षमता का अतिरिक्त भरोसा होता है। ज्ञान का नशा सर चढ़कर बोल रहा है ।”शेयर” बटन दबाते ही व्यक्ति स्वयं को विशेषज्ञ समझने लगता है। “जीवन सूत्र” बताने वाले युग में गहन अध्ययन की प्रवृत्ति गायब है।
अगर आपकी गगरी भरी हुई है, तो चुपचाप बैठिए। समाज को तो छलकती हुई अधूरी बातों का ही मजा लेना है। असल ज्ञान आजकल “बोरिंग” कैटेगरी में आता है… जबकि छलकने वालों को ही “वायरल” होना है! कबीर की उक्ति है — “बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि…” पर आज तो बिना जाने बोलने वालों का राज है। शायद इसीलिए इस युग की सबसे सटीक परिभाषा है “ज्ञानी चुप, अज्ञानी छलकत जाए!
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
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बहुत खूब 👍👍