अमिताभ: स्टारडम से सरोकार तक — एंग्री यंग मैन की जर्नी, रिश्ते और विवाद
आइए, हम-आप साथ मिलकर एक ऐसे आदमी की ‘एवोल्यूशन स्टोरी’ देखते हैं, जिसकी आवाज़ को रेडियो ने “नहीं” सुना, और वही आवाज़ बाद में चार पीढ़ियों की धड़कन बन गई—श्री अमिताभ बच्चन। कहानी शुरू होती है 11 अक्टूबर 1942, इलाहाबाद से। असली उपनाम था “श्रीवास्तव”, पर पिता हरिवंश राय जी ने अपने साहित्यिक पेन-नेम “बच्चन” को ही घर का कुलनाम बना दिया। नाम रखने पर भी एक किस्सा—“इंकलाब” रखने का विचार था, पर सुमित्रानंदन पंत की सलाह से “अमिताभ”—जो कभी न बुझने वाली ज्योति—ठहर गया। ज्योति ने जलना शुरू किया, पर ठीक से चमकने में थोड़ा वक्त लगा।
किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली से पढ़ाई, कोलकाता की बर्ड ऐंड कंपनी में नौकरी, महीने के 140 रुपये, शाम को थिएटर—और सपनों में सिनेमा। ऑल इंडिया रेडियो से एक बार “आवाज़ ज़्यादा भारी” बताकर रिजेक्ट हो जाना, जीवन की पहली ‘रिजेक्शन रील’ थी। मगर किसने सोचा था कि यही बैरीटोन आगे चलकर हिंदी सिनेमा की पहचान बनेगा! 1969 में उत्पल दत्त की “भुवन सोम” में नैरेशन और उसी साल “सात हिंदुस्तानी” में बतौर अभिनेता शुरुआत—नेशनल अवॉर्ड्स की फुसफुसाहटों के बीच एक दुबला-पतला नौजवान, जो उर्दू-हिंदी के शेर-ओ-शायरी से स्क्रीन पर अपनी अलग लकीर खींच रहा था।
कुछ बातें सिने जगत की चमक की नहीं परदे के पीछे की राजनीति, रिश्ते और विवादों की गलियों में चलते हैं—वही गलियां जहाँ “सुपरस्टार” से ज़्यादा “इंसान” अमिताभ दिखते हैं।
इलाहाबाद से दिल्ली तक, बच्चन-नेहरू/गांधी परिवार का आना-जाना इतना घना था कि आनंद भवन से लेकर तीन मूर्ति तक दरवाज़े अपने-आप खुलते थे। तेजी बच्चन और इंदिरा गांधी—दोनों ने “धर्म से बाहर” शादी की पार्टनर-इन-क्राइम—जिनके ताल्लुक ने दोनों घरानों को रिश्तेदारी जैसी गरमी दी। इतना कि राजीव–सोनिया की शादी से पहले सोनिया महीनों बच्चन हाउस में रहीं; राहुल–प्रियंका ने अमिताभ को “मामू” कहा—इतना नज़दीक। बाद में जब “जंजीर” हिट के बाद लंदन ट्रिप की नौबत आई तो घर के अंदर भी “संस्कार कट” लगा—हरिवंश राय की साफ़ हिदायत: “साथ जाना है तो पहले शादी।” अगले दिन ब्याह, उसी रात उड़ान। यह किस्सा जितना घरेलू, उतना निर्णायक था—स्टारडम के बीच में एक देसी नियम-पुस्तिका।
फिर आते हैं रिश्तों की सबसे चर्चित पटकथा पर—रेखा–अमिताभ–जया। अफवाहों से लेकर फोटो-ऑप्स तक, और उस प्रसिद्ध शादी (ऋषि–नीतू) में रेखा का सिंदूर-मंगलसूत्र अवतार—ये सब शहर की गपशप से लेकर पेज 3 तक चर्चा होने लगा । जया का स्टोइक सन्नाटा, फिर “सिलसिला” में रीयल-लाइफ़ का रील-लाइफ़ कास्टिंग—वाइफ और गर्लफ्रेंड, दोनों एक ही फ्रेम में—और एंडिंग में पति का घर लौटना; ये सिनेमा का दृश्य नहीं, एक सार्वजनिक स्टेटमेंट था। इंटरव्यूज़, इनकार-इकरार, डायरेक्टर्स के कन्फर्मेशन—सब होते रहे, मगर खुद अमिताभ ने इश्क़ पर कभी सर्टिफिकेट नहीं दिया। यही स्टारडम की पुरानी देहली—प्राइवेसी का ताला, गॉसिप की चाबी।
अब राजनीति। इमरजेंसी के दिनों में चुप्पी को भी लोग स्टैंड मानते हैं; दोस्ती की नज़दीकियाँ दिखीं, तो बाद में दूरियाँ भी। यही वो दौर है जब सेंसरशिप, न्यूज़रूम और स्टारडम एक फ्रेम में आए। सबसे कड़वा अध्याय 1984 के सिख विरोधी दंगे: पीड़ित परिवारों के आरोप—दूरदर्शन पर भड़काऊ शब्द बोले गए; वीडियो सबूत कभी सार्वजनिक न हुए; अमिताभ का लिखित खंडन—“ऐसा कुछ कहा नहीं, कर नहीं सकता।” सच क्या है—कोर्ट, आयोग, इतिहासकार—हर किसी का अपना-अपना पन्ना; मगर दाग़ की राजनीति ये है कि सच्चाई चाहे जितनी जटिल हो, दाग़ सरलता से चिपक जाता है। यही वह दुविधा है: एक तरफ “राष्ट्रमाता” की शोकसभा का शोक, दूसरी ओर हजारों सिख परिवारों का स्थायी दु:ख। सवाल अब भी हवा में है—बिना क्लिप के आरोप कितने मजबूत? और बिना क्लीन-चिट के सफाई कितनी कारगर?
इस पूरी कहानी में एक पैटर्न दिखता है—अमिताभ का पब्लिक इमेज बार-बार क्रॉसफायर में आता है: परिवार बनाम अफवाह, दोस्ती बनाम दूरी, हादसा बनाम वापसी, आरोप बनाम खंडन। और हर मोड़ पर—वे स्क्रीन की रोशनी के बाहर भी एक किरदार निभाते दिखते हैं: कभी पति, कभी दोस्त, कभी “परिवार का बेटा”, कभी देश का चेहरा। यही वजह है कि उनके फैन आज भी सिर्फ डायलॉग नहीं, द्वंद्व भी याद रखते हैं—क्योंकि चमक के पीछे की छाया कहानी को असली बनाती है।
उनके शुरुआती करियर का मूड “परवाना” की तरह मनोवैज्ञानिक था—ज्यादातर फिल्में फ्लॉप। “आनंद” (1971) में राजेश खन्ना के सामने “बाबू मोशाय” बनकर पहली बार दर्शक ने उसे नोटिस किया; बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर मिला, पर बतौर हीरो मैदान खाली-खाली। “बॉम्बे टू गोवा” (1972) ने पहिया थोड़ा घुमाया—महमूद ने कहा, “जैसा आता है वैसा नाचो”; वही बने 70 के दशक का क्लासिक स्टेप। इसी बस-यात्रा के टिकट पर सवार हुए सलीम–जावेद की निगाहें, और 1973 में आया ‘पासा पलट’ पल : “जंजीर”। पुलिस स्टेशन तुम्हारे बाप का घर नहीं है—यह डायलॉग नहीं, हिंदी सिनेमा की नई राजनीतिक धड़कन थी। ‘एंग्री यंग मैन’ का जन्म हुआ, और विजय नाम का किरदार दर्शकों की रगों में दौड़ पड़ा। फिल्म चली, वादा पूरा—दोस्तों के साथ लंदन जाना था; पिता ने शर्त रखी—“जया के साथ जाओ तो शादी करके जाओ।” 3 जून 1973—जया बहादुरी बनीं जया बच्चन; रील लाइफ ने रियल लाइफ का हाथ थाम लिया।
फिर आया 1975—“दीवार” और “शोले”। एक तरफ “आज मेरे पास बिल्डिंग्स हैं…तेरे पास क्या है?” और दूसरी तरफ “ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे”—माने एक ही आदमी के भीतर इंकलाबी सख़्ती और उतनी ही दोस्ताना नर्मी। “दीवार” ने स्क्रिप्ट राइटरों को इज़्ज़त दिलाई, “शोले” ने भारतीय पॉप-कल्चर को डायलॉग्स का खज़ाना। उस दौर में लंबी शर्ट की गांठ भी फैशन बन गई—गलती से सिलाई छोटी-दर्ज़ी ने की, पर ट्रेंड बनाया “विजय” के किरदार ने। 1977-78 में “अमर अकबर एंथनी”, “त्रिशूल”, “डॉन”, “मुकद्दर का सिकंदर”—हर तरफ वही ऊँची कद-काठी, लोहे की नजर, और दर्द से सना रौब। “डॉन को पकड़ना…” से लेकर “रोते हुए आते हैं सब…” तक, बच्चन साहब ने ग़म को भी स्टारडम दे दिया।
80s में स्टारडम और प्रयोग साथ-साथ चले—“दोस्ताना”, “काला पत्थर”, “लावारिस” में “मेरे अंगने में…” जैसा शरारती करिश्मा, तो “सिलसिला” में रियल-रिलेशनशिप की चर्चाओं का सिनेमाई साया। पर यही दशक उनकी असली परीक्षा लेकर आया—1982 “कूली” का हादसा। देश ने सांस रोककर इंतज़ार किया; अस्पताल के बाहर दुआओं का मेला; इंदिरा गांधी का ताबीज़ वाला प्रसंग—विश्वास और विज्ञान साथ-साथ। ठीक होने के बाद फिल्म की एंडिंग बदलनी पड़ी—जैसे किस्मत ने स्क्रिप्ट री-राइट कर दी हो।
वे अस्पताल से वापस आए—सिर्फ जीवन में नहीं, परदे पर भी। “मर्द को दर्द नहीं होता”—ये डायलॉग जितना किरदार का था, उतना ही अभिनेता की हिम्मत का।
बीच में राजनीति में गए, फिर लौटे—पर लौटे तो ऐसे कि “शहंशाह”—“रिश्ते में बाप” वाले अंदाज़ से बॉक्स-ऑफिस को फिर अपना पता दिया।
90s के आरंभ में “अग्निपथ” जैसी कल्ट—जिसकी गूंज तब की आलोचना से आगे, आने वाली पीढ़ियों तक चली—नेशनल अवॉर्ड मिला, पर बिज़नेस का मौसम हर शुक्रवार मेहरबान नहीं होता। एबीसीएल का वित्तीय संकट, कर्ज़, इज़्ज़त दाँव पर—यहीं से शुरू हुआ बच्चन का दूसरा जन्म। 2000 में टीवी पर आए—“कौन बनेगा करोड़पति”—और सच कहिए, इसके बाद तो घर-घर में डिनर-टेबल का प्राइम टाइम बदल गया। वही बैरीटोन जो AIR को भारी लगा था, अब हिंदुस्तान का सबसे भरोसेमंद सवाल पूछ रहा था—“कंप्यूटर जी, लॉक कर दीजिए?” उसी दौर में “मोहब्बतें” ने सिनेमा में भी कमबैक का परचम गाड़ दिया—फिर “कभी खुशी कभी ग़म”, “बंटी और बबली”, “सरकार”, “पा” (जहाँ बेटे के पिता बनकर उन्होंने अभिनय-व्याकरण उलट दिया), “पीकू” का खड़ूस-प्रेमिल पिता, और “पिंक” का गूँजता फ़ैसला—“नो मीन्स नो।”
बीच में एक और व्यक्तिगत लड़ाई—हेपेटाइटिस-बी से—जिसमें 25% लिवर पर खड़े होकर भी उन्होंने काम, अनुशासन और जज़्बे के दम पर खुद को “वर्किंग वंडर” बना दिया। यह सिर्फ स्टारडम नहीं, ‘रिज़िलिएंस’ की पाठशाला थी। 2010s के बाद “ब्रह्मास्त्र”, “झुंड” जैसे प्रोजेक्ट्स; और 2024 में “कल्कि 2898 ए.डी.” में अश्वत्थामा—81 की उम्र में भी फ्रेम में प्रवेश करते ही स्क्रीन की गुरुत्वाकर्षण बदल देने की ताक़त। कौन कहता है कि सुपरहीरो केप पहनते हैं; कभी-कभी वे सिर्फ शॉल ओढ़ते हैं और बोलते हैं—तो सिनेमा खड़ा होकर सुनता है।
अमिताभ बच्चन की टाइमलाइन असल में तीन अशरों का संगम है—आवाज़, अदा, और आचरण। आवाज़—जो कविता की सीढ़ी से आई, अदालत की हाज़िरी में गूँजी, और टीवी क्विज़ की कुर्सी पर बैठकर भी उतनी ही गरिमा से बोली। अदा—जो “विजय” की आँखों से बरसी, “एंथनी” की शीशे वाली सेल्फ-टॉक में हँसी, “डेबेट” वाले कोर्टरूम में तर्क बनी। और आचरण—जो गिरने के बाद उठना सिखाता है, हार को किस्से में बदलता है, और किस्से को इतिहास। यही वजह है कि ‘एवोल्यूशन ऑफ स्टार ऑफ द मिलेनियम’ कोई फिल्मोग्राफी का हिसाब-किताब नहीं, एक देश की सामूहिक स्मृति है—जब हम कहते हैं: “हम जहाँ खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है”—तो दरअसल हम उसी विश्वास-स्थापन की बात करते हैं, जिसे एक अभिनेता ने 50+ साल लगातार निभाया।
और हाँ, इस गाथा में एक छोटा-सा राज़ भी दर्ज कर लीजिए—स्क्रीन पर जितनी बार उनका नाम “विजय” हुआ, बॉक्स-ऑफिस उतनी बार मुस्कुराया। पर सच ये है कि वास्तविक “विजय” किसी नाम में नहीं था; वह था जज़्बे में—रोल कोई भी हो, उम्र कोई भी हो, माध्यम कोई भी हो—बच्चन साहब हर बार एक नए अमिताभ बनकर लौटे। यही तो “अमित-अभ”—अखंड आभा—का अर्थ है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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