अन्नकूट महाप्रसाद — स्वाद, परंपरा और साझेपन की कथा
दीवाली और गोवर्धन के दिवस के बीच का यह एक दिन का अंतराल। आज ओपीडी में इतनी व्यस्तता रही कि साँस लेने की भी फुर्सत नहीं मिली थी। तभी एक फोन आया — पास के मंदिर की प्रबंध समिति का। हर साल उस मंदिर में अन्नकूट प्रशादी बनाने के लिए हमारी ओर से एक बोरी बाजरा जाता है। उसी का स्मरण वो करा रहे थे l
सच कहें तो भारत की हर परंपरा अपने भीतर कोई न कोई विशेष प्रयोजन लेकर आती है — और दिवाली तो इन सब परंपराओं का संगम है। ऐसी ही एक प्यारी और सामुदायिक परंपरा है — अन्नकूट प्रसाद की।
आज भी यह परंपरा मंदिरों में पूरे उत्साह से निभाई जाती है। पर अब यह केवल मंदिरों तक सीमित नहीं रही — समाज के हर कोने में संस्थाएँ, मंडल, और यूनियनें मिलकर इस आयोजन को जीवित रखे हुए हैं। दिवाली के अगले दिन जब गोवर्धन पूजा होती है, तो दोपहर में मंदिरों में अन्नकूट का भोग तैयार होता है।
परंपरागत रूप से इसमें बाजरे को कूट-पीसकर तैयार किया जाता है, फिर उसे उबालकर बाजरा तैयार होता है ,दूसरी तरफ़ा एक कढाहे में कढ़ी बनाई जाती है —छाछ और बेसन से मिलकर उबालकर और उसमें मसलों की बघार देकर तैयार होती है ,परम्परिक रूप से उसी में हरी सब्जी , ग्वारफली, बैंगन, मूली जैसी मौसमी सब्ज़ियाँ डालकर ‘भोग’ तैयार किया जाता है। पहले यह आयोजन पूरी तरह सामुदायिक होता था — गाँव-गाँव के घरों से बाजरा, सब्ज़ियाँ, छाछ (जो कढ़ी का प्रमुख अवयव है) और मसाले सीधे मंदिर पहुँचते थे।
तभी तो उस अन्नकूट का स्वाद अनूठा होता था — हर घर के स्वाद का अंश उस प्रसाद में घुला होता था, और शायद वही उसका असली ‘स्वाद’ था।
पहले लोग मंदिर के आँगन में पंगत में बैठते थे। अपने घर से नमक की छोटी पोटली लेकर आते, एक पत्तल में बाजरे की कूड़ी लगती, बीच में कुएँ जैसी जगह बनाकर उसमें कढ़ी डाली जाती। खाने के दौरान ध्यान रहता कि बाजरे की बनी मेंढ़ नहीं टूटे और कढ़ी अपना रास्ता बनाकर बाहर न निकल जाए। न बीच में पानी पीने की फुर्सत, न उठने की इच्छा — बस भोग के साथ “राधे-राधे, श्रीहरि गोवर्धनधारी” के भजन गूँजते रहते, और पूरा वातावरण भक्ति व आनंद से भर जाता।
समय बदला है। अब लोग सीधे रुपये से सहयोग करते हैं। सामग्री बाज़ार से आती है। परंपरा अब भी है, बस उसकी आत्मा में थोड़ा ‘मॉडर्न टच’ आ गया है। अब मंदिर के आँगन में बैठकर अन्नकूट का प्रसाद परोसते समय हरे पत्तों की पत्तलों की जगह प्लास्टिक की प्लेटें, गिलास, चम्मच दिखाई देते हैं। बाजरे के साथ चावल, दस तरह की दालें, सूखी व गाढ़ी सब्ज़ियाँ, और कढ़ी में अब डिब्बाबंद मसालों की खुशबू होती है। लेकिन कढी ने अपना स्वरुप पूरी तरह बदल दिया, छाछ जैसा अवयव तो अब रेयर एलिमेंट हो गया ,उसकी जगह पानी में सिट्रिक एसिड मिला लेते हैं l
लेकिन वह स्वाद — जो पहले सामूहिक श्रम, अपनत्व और सच्चे सहयोग से आता था — अब केवल स्मृति में रह गया है।
यह लेख लिखते समय श्रीमती जी स्टाफ से कह रही हैं कि “प्रसाद के लिए बर्तन ले जाना , मंदिर से सीधे घर भेज देंगे।” अब मंदिर के आँगन में बैठकर प्रसाद ग्रहण करने की जो स्वतंत्रता थी, वह इस आधुनिकता और प्रसिद्धि ने छीन ली है। अभी अगर मंदिर के अहाते में खाते हुए पकडे जाएँ तो कोई भी टोक देगा — “अरे डॉक्टर साहब! आप भी …” “घर ही भेज देते ,आप ने क्यों तकलीफ की भला ।”
धार्मिक और पौराणिक कारण तो सब जानते हैं — यह परंपरा भगवान श्रीकृष्ण और गोवर्धन गिरिराज से जुड़ी है। जब श्रीकृष्ण ने इंद्र का गर्व तोड़ने हेतु गोवर्धन पर्वत की पूजा प्रारंभ करवाई, तो उस समय जो भोग लगाया गया, वही आगे चलकर अन्नकूट प्रसाद कहलाया। यह भोग गाँव के देसीपन और सादगी से भरा ‘गंवई अंदाज’ था — मिट्टी की सुगंध और लोक-रस से सराबोर।
अब इसके प्रायोगिक (व्यावहारिक) प्रयोजन भी हैं। धनतेरस से लेकर दिवाली तक मिठाइयों की चक्क्मार छकाई से जीभ थक चुकी होती है, उसे नमकीन का स्वाद चाहिए होता है — तो अन्नकूट का प्रसाद जीभ को तृप्ति देता है। “कुछ मीठा हो जाए” की जगह “अब कुछ नमकीन हो जाए” का भाव स्वतः मन में उठता है।
दूसरा कारण यह भी है कि दिवाली के 1 महीने पहले सी ही दिवाली तक घर की महिलाएँ सजावट, लिपाई-पुताई, और पकवानों में थक जाती हैं। इसलिए अगले दिन मंदिरों में पुरुषों द्वारा सामूहिक रूप से अन्नकूट प्रसाद तैयार किया जाता है, ताकि स्त्रियों को विश्राम मिल सके। क्यूँ की स्त्रियों का वैसे भी आधा समय रसोई में ही निकलता है l इसे और पुष्ट करता है पाँचवाँ दिन — भाई दूज, जब घरों में “कच्ची रसोई” बनती है ,उस दिन रसोई में कढाई और तवा चढ़ाना वर्जित होता है — यानी बिना तली हुई, सरल, सादी रसोई — ज्यादातर दाल बाटी बनती है ,या दाल भात ,और यह रसोई भी अधिकतर पुरुषों द्वारा ही बनायी जाती है।
शाम को जब मैं टहलने निकला तो एक प्रसिद्ध मंदिर के बड़े अहाते में अन्नकूट की तैयारी जोरों पर थी। वहाँ समिति के बीस लोग बैठे थे — यह केवल प्रसाद बनाने का आयोजन नहीं था, बल्कि इस बहाने सामूहिक दिवाली मिलन का आयोजन भी हो गया । इसी कारण अन्नकूट का आयोजन एक समुदायिक उत्सव माना जाता है — ताकि त्योहार केवल सजावट या मिठाई तक सीमित न रहे, बल्कि ‘साझेपन’ और ‘सहयोग’ का उत्सव भी बने।
परंपरा अब भी जीवित है, हाँ — उसका स्वरूप अवश्य बदल गया है। मंदिरों, धर्मशालाओं और सामुदायिक हॉलों में अन्नकूट के आयोजन होते हैं, लोग बैठकर भोज करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं, और सोशल मीडिया पर साझा करते हैं। पर जो आत्मीयता पहले उस एक पत्तल में समाई होती थी — जिसमें पूरे गाँव का स्वाद और स्नेह घुला होता था — उसे आज के चमचमाते आयोजनों की झिलमिल रोशनी शायद ही छू पाती है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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