आत्मबोध से विश्वबोध तक — चेतना की वह यात्रा जो मनुष्य को ‘मैं’ से ‘हम’ बनाती है
मनुष्य की सबसे लंबी यात्रा कोई भौगोलिक नहीं होती — न वह अंतरिक्ष तक जाती है, न महासागर पार करती है; वह भीतर जाती है। यह यात्रा अहं से अनंत तक की है — जहाँ एक सीमित व्यक्ति अपने भीतर के ब्रह्मांड को पहचानता है और धीरे-धीरे सृष्टि से अपना तादात्म्य अनुभव करता है। यही है आत्मबोध से विश्वबोध की यात्रा — जो अध्यात्म और विज्ञान दोनों के लिए समान रूप से प्रासंगिक है।
मनुष्य आज ज्ञान से नहीं, सूचना से घिरा हुआ है। वह सब कुछ जानता है — जीनोम से लेकर ब्लैक होल तक — पर स्वयं को नहीं। यही आधुनिक सभ्यता का सबसे बड़ा विरोधाभास है: हम ब्रह्मांड की उत्पत्ति का अनुमान लगा सकते हैं, पर अपने ही मन की गहराई नहीं माप सकते। इसीलिए आत्मबोध केवल धार्मिक या दार्शनिक शब्द नहीं, बल्कि मानव मस्तिष्क की वैज्ञानिक आवश्यकता है।
न्यूरोसाइंस के अनुसार, आत्मबोध (सेल्फ अवेयरनेस) मस्तिष्क के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स, इंसुला, और पोस्टीरियर सिंग्युलेट कॉर्टेक्स जैसे हिस्सों की सक्रियता से जुड़ा है। जब मनुष्य “मैं कौन हूँ” पर विचार करता है, तो ये क्षेत्र अपने ही अनुभवों का मेटा-रिप्रेज़ेंटेशन बनाते हैं — अर्थात् मस्तिष्क स्वयं को देखता है। यह वही क्षण है जब जीव, जो अब तक बाहरी उत्तेजनाओं पर प्रतिक्रिया देता था, पहली बार स्वयं को एक विषय के रूप में देखता है। यहीं से “बोध” की उत्पत्ति होती है। आधुनिक शोध बताते हैं कि ध्यान (मेडिटेशन) और आत्म-अवलोकन जैसी प्रक्रियाएँ इस न्यूरल सर्किट को मजबूत करती हैं — जिससे व्यक्ति के भीतर शांति, एकाग्रता और सहानुभूति बढ़ती है। इस अर्थ में आत्मबोध केवल दार्शनिक यात्रा नहीं, बल्कि न्यूरल इवोल्यूशन का अगला चरण है — जहाँ मस्तिष्क अपने ही विचारों का निरीक्षक बन जाता है।
मनोविज्ञान आत्मबोध को सेल्फ अवेयरनेस या सेल्फ कॉन्सेप्ट कहता है। फ्रायड ने ईगो को चेतन सत्ता माना जो इड (प्रवृत्तियों) और सुपर ईगो (नैतिक नियंत्रण) के बीच संतुलन बनाती है। लेकिन कार्ल युंग ने इसे और गहराई दी — उनके अनुसार, मनुष्य का सेल्फ उसके समस्त अनुभवों, विचारों और अवचेतन की समग्रता है। जब व्यक्ति इस समग्रता को पहचान लेता है, तब वह इंडिविजुएशन की अवस्था में पहुँचता है — जहाँ वह अपने असली स्वरूप को जानता है। यही युंग का आत्मबोध है, जो भारतीय ‘आत्मा के साक्षात्कार’ के समानांतर खड़ा है। यह आत्मा कोई धार्मिक सत्ता नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर का वह बिंदु है जो अनुभव और साक्षी दोनों है।
आधुनिक कॉन्शसनेस स्टडीज़ का सबसे बड़ा प्रश्न यही है — “क्या चेतना मस्तिष्क से उत्पन्न होती है या मस्तिष्क चेतना का उपकरण मात्र है?” भारतीय वेदांत कहता है — “चेतना सर्वव्यापी है, मस्तिष्क उसका माध्यम है।” यह दृष्टि आज क्वांटम न्यूरोसाइंस में भी गूँज रही है। भौतिक विज्ञानी रोजर पेनरोज़ और न्यूरोसाइंटिस्ट स्टुअर्ट हैमरॉफ की ऑर्च-ओआर थ्योरी के अनुसार, चेतना क्वांटम स्तर पर माइक्रोट्यूब्यूल्स में होने वाली घटनाओं से उत्पन्न होती है — यानी यह पदार्थ की सीमाओं से परे है। यह विचार हमारे उपनिषदों से आश्चर्यजनक समानता रखता है — “एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।” अर्थात् चेतना कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं, सार्वभौमिक उपस्थिति है। इस प्रकार आत्मबोध इस सार्वभौमिक चेतना की पहली झलक है — जब व्यक्ति भीतर उस सत्ता को महसूस करता है जो उसे ही नहीं, समस्त सृष्टि को स्पंदित कर रही है।
आज मनुष्य सूचना-संस्कृति का दास बन चुका है। वह दिनभर स्क्रीन पर हजारों चेहरों, विचारों और विज्ञापनों से संवाद करता है, पर अपने भीतर की निस्तब्धता से नहीं। न्यूरोलॉजिकल दृष्टि से यह निरंतर उत्तेजना (कॉन्स्टैंट स्टिमुलेशन) डोपामिन ओवरलोड पैदा करती है, जिससे मस्तिष्क शॉर्ट टर्म प्लेज़र का आदी हो जाता है। परिणाम — अस्थिर मन, अधूरा ध्यान और आत्म-संबंध का लोप। यही कारण है कि आज आत्मबोध सिर्फ आध्यात्मिक विलास नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य की वैज्ञानिक आवश्यकता बन गया है। माइंडफुलनेस, योग, ध्यान और कॉन्टेम्प्लेटिव न्यूरोसाइंस — ये सभी आत्मबोध के आधुनिक नाम हैं। इनसे मस्तिष्क की न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ती है, तनाव घटता है और भावनात्मक संतुलन पुनः स्थापित होता है।
आत्मबोध का अगला चरण है विश्वबोध — जब व्यक्ति अपने अहं की सीमाओं से ऊपर उठता है और समस्त अस्तित्व से एकात्म होता है। न्यूरोसाइंटिस्ट रिचर्ड डेविडसन के अनुसार, दीर्घकालिक ध्यान अभ्यास से कम्पैशन सर्किट्स सक्रिय हो जाते हैं — यह वह न्यूरल नेटवर्क है जो दूसरों के दुख को महसूस कर सहानुभूति उत्पन्न करता है। यहाँ व्यक्ति का सेल्फ रेफरेंशियल नेटवर्क (डिफॉल्ट मोड नेटवर्क) शांत हो जाता है, और एम्पैथी नेटवर्क जाग्रत होता है। यह ठीक वही स्थिति है जिसे हमारे ऋषियों ने “सर्वभूत हिते रताः” कहा। अर्थात् जब ‘मैं’ का स्वर कम होता है, तभी ‘हम’ की ध्वनि प्रकट होती है। यही चेतना का विकास है — व्यक्तिगत से वैश्विक, आत्म से विश्व तक।
जब आत्मबोध का दीपक भीतर जल उठता है, तो उसका प्रकाश बाहर फैलना ही चाहता है — यही उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जैसे सूरज केवल अपने लिए नहीं चमकता, वैसे ही जाग्रत मनुष्य केवल अपने उद्धार के लिए नहीं जीता। आत्मबोध का अगला पड़ाव है विश्वबोध — जब चेतना अपने सीमित घेरे से निकलकर समष्टि की अनुभूति करती है। यह केवल दर्शन नहीं, एक जैविक अनिवार्यता है — क्योंकि मस्तिष्क की संरचना ही ऐसी है कि वह सहभागिता में खिलता है, एकाकीपन में नहीं।
आधुनिक न्यूरोसाइंस बताता है कि हमारे मस्तिष्क में मिरर न्यूरॉन्स नामक कोशिकाएँ होती हैं — जो दूसरों के अनुभवों को हमारी चेतना में “प्रतिबिंबित” करती हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है और हम उसे देखते हैं, तो हमारे मस्तिष्क में वही सिग्नल सक्रिय होते हैं जो उसके मस्तिष्क में — यही सहानुभूति (एम्पैथी) का जैविक आधार है। इसका अर्थ यह हुआ कि चेतना केवल व्यक्तिगत नहीं, साझा भी है। हम सब अपने न्यूरल स्तर पर भी जुड़े हुए हैं — एक-दूसरे की संवेदना से, पीड़ा से और आनंद से। यही साझा चेतना धीरे-धीरे ग्लोबल कॉन्शसनेस का रूप लेती है। यह तब जन्म लेती है जब व्यक्ति अपनी सीमित पहचान — धर्म, राष्ट्र, भाषा या जाति — से परे जाकर यह अनुभव करता है कि “जो पृथ्वी मुझे पालती है, वही सबको पालती है; जो वायु मुझे जीवन देती है, वही सबके फेफड़ों में बह रही है।” यही वह क्षण है जब ‘मैं’ का बोध ‘हम’ में विलीन हो जाता है।
एक समय था जब मनुष्य ने प्रकृति को पूज्य माना था, फिर उसने उसे प्रयोग का विषय बना लिया। 21वीं सदी का सबसे बड़ा संकट बाहरी नहीं, भीतर का है — चेतना के असंतुलन से उपजा संकट। मानव ने प्रकृति को रिसोर्स कहकर वस्तु बना दिया, जबकि वह स्वयं उसी तंत्र का अंश है। यही विस्मरण हमें जलवायु परिवर्तन, प्रजातियों के विलुप्त होने और मानसिक विक्षोभ के युग में ले आया है। विश्वबोध का अर्थ है — अपने अस्तित्व को प्रकृति के साथ एक देखना। ऋग्वेद के ऋषि ने कहा था — “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” जब यह भाव भीतर से जागता है, तब पेड़ काटना अपने ही अंग को काटने जैसा लगता है। यही चेतना पर्यावरणीय नीति नहीं, आत्मीयता का विस्तार बन जाती है। आज के समय में इकोलॉजिकल अवेयरनेस केवल पर्यावरणीय विषय नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागृति का दूसरा नाम है।
विश्वबोध का अर्थ केवल पेड़-पौधों से जुड़ना नहीं, बल्कि मनुष्यों के बीच की दीवारें गिराना भी है। आधुनिक समाज में बढ़ती पोलराइज़ेशन और आइडेंटिटी क्राइसिस इस बात के प्रमाण हैं कि आत्मबोध अधूरा रह गया है। हम अपने विचारों, धर्मों और डिजिटल खेमों में बँटते जा रहे हैं, और यह मानसिक विभाजन ही बाहरी संघर्षों को जन्म देता है। साइकोलॉजी के आधुनिक शोध बताते हैं कि जब व्यक्ति “सेल्फ एक्सपैंशन” की अवस्था में पहुँचता है — अर्थात जब वह अपने हित को दूसरों के हित से जोड़ता है — तब उसके मस्तिष्क में ऑक्सिटोसिन और सेरोटोनिन जैसे हार्मोन बढ़ते हैं, जिससे स्थायी सुख (सस्टेनेबल हैप्पीनेस) का अनुभव होता है। दूसरों को समझना केवल नैतिकता नहीं, जैविक स्वास्थ्य का भी मार्ग है। यही विज्ञान की भाषा में विश्वबोध है — एक ऐसी चेतना जो समाज के हर प्राणी को अपने भीतर समेट लेती है।
दार्शनिक दृष्टि से विश्वबोध मानवता की एथिकल इवोल्यूशन है। चार्ल्स डार्विन ने कहा था कि “सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट” जीवन का नियम है, पर आधुनिक जीवविज्ञान अब यह जोड़ता है कि सभ्यता का विकास “कोऑपरेशन ऑफ द काइंडेस्ट” पर आधारित है। मनुष्य के मस्तिष्क में विकसित हुई नैतिक चेतना (मोरल कॉग्निशन) — जैसे अपराधबोध, करुणा या परोपकार की प्रवृत्ति — केवल समाज को टिकाए नहीं रखती, बल्कि विकास की नई दिशा देती है। भारतीय दर्शन में इसे “वसुधैव कुटुम्बकम्” कहा गया — यह कोई आदर्श वाक्य नहीं, बल्कि जैविक और नैतिक अनिवार्यता है। क्वांटम फिजिक्स भी कहती है कि ब्रह्मांड के कण एंटैंगल्ड हैं — एक का स्पंदन दूसरे को प्रभावित करता है। यही ब्रह्मांडीय सत्य नैतिकता का भी मूल है — तुम्हारा अन्याय मेरा संतुलन बिगाड़ता है, तुम्हारा दुख मेरी चेतना को स्पर्श करता है।
साहित्य और कला सदा से इस बोध के वाहक रहे हैं। कबीर के “साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय” में आत्मबोध है; पर उनके “सब साधन राम साधे, जो मन साधा जाय” में विश्वबोध का विस्तार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का “जहाँ मनुष्य भयमुक्त हो, और ज्ञान स्वतंत्र हो” — आत्म से विश्व तक की ही यात्रा का कवितामय रूप है। आज के लेखक, कवि, विचारक और वैज्ञानिक — सभी के लिए यही चुनौती है कि वे इस विभक्त युग में एकता की चेतना को पुनः जाग्रत करें। क्योंकि हर शब्द, हर विचार, हर कला — मनुष्य की चेतना का प्रतिबिंब है। और जब वही चेतना परिपक्व होती है, तो समाज भी परिपक्व होता है।
विश्वबोध कोई लक्ष्य नहीं, एक निरंतर प्रक्रिया है — एक इवोल्यूशन ऑफ अवेयरनेस। जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि उसका सुख किसी और के दुख पर नहीं टिक सकता, तब सभ्यता परिपक्व होती है। जब हम यह मान लेते हैं कि चेतना केवल मनुष्य तक सीमित नहीं, पेड़, पशु, जल और वायु तक फैली है, तब पृथ्वी का संतुलन लौटता है। यही कारण है कि आज विज्ञान और वेदांत दोनों एक ही दिशा में संकेत कर रहे हैं — कि मनुष्य को फिर से भीतर लौटना होगा ताकि वह बाहर को बचा सके। आत्मबोध हमें यह सिखाता है कि “मैं हूँ,” विश्वबोध यह सिखाता है कि “सबमें मैं हूँ।”
जब ‘स्व’ का दीप जगता है,
तब ‘सर्व’ का सूरज उगता है।
यही यात्रा — आत्म से विश्व तक —
मनुष्य को ईश्वर से जोड़ देती है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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