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बजट और बसंत : एक राग, कई रंग

एक विडंबनापूर्ण दृश्य जिसमें लोकतंत्र की सड़ी हुई गलियों में बजट का राग अलापा जा रहा है; आम आदमी और मध्यमवर्गीय जनता इस राजनैतिक तमाशे में अलग-अलग रोल निभा रही है — कोई चटनी को आशीर्वाद समझ रहा है, तो कोई भूख से तड़प कर ग़ज़ल गा रहा है।

बजट और बसंत अब साथ-साथ आते हैं।
कविगन स्मार्ट हो चले हैं ,बसंत की रागिनी पतझड़ी सी सूख गयी , सत्ता ने बजट का राग दरबारी गाने के लिए ही अनुदानित किया गया है।

नेतागण चिहुंक उठे —

“सब कच्ची सामग्री हम प्रदान करेंगे।
बजट में हमने सब कुछ अलॉट कर दिया है —
विरहिणी, कोयल, सोने की चोंच मन्डा कागा ,
पूरब से आई पुरवाई, पलाश के फूल, पीली सरसों, काली घटा,उन्नत यौवन …
और क्या चाहिए बोलो?
बस गाये जाओ  बजट राग, जो हमने हर वर्ग के लिए तैयार किया है —
सत्ता पक्ष के लिए अलग,
विपक्ष के लिए विशेष,
गरीब के लिए सांत्वना भरा,
और मध्यमवर्ग के लिए… उम्मीदों वाला झुनझुना!”

राग बजट-भरतार 🎶

(सत्ता पक्ष की ओर से लोकतंत्र के मंडप में गया जा रहा है )

सत्ता पक्ष को देखो सखि
कैसे बसंती बयार में इन सबके मुरझाए चेहरों पर एक अनोखी आभा बिखर गई है!
जैसे कोयल अपने ही स्वर में मगन रहती है,
वैसे ही ये नेता लोग —
बजट के आगमन पर
लोकतंत्र के मंडप की चौखट पर
ढोल-ताशे, शहनाई लेकर
राग दरबारी में गायन आरंभ कर चुके हैं।

🎶 सुर बसंती बहार के कुछ इस प्रकार सुनाई दे रहे हैं 🎶

गाएं गीत खुशी के सखिया,
आया बजट-भरतार!
अरे कोई चौक पुराओ, सजाओ बंदनवार,
आज भवन में आएंगे मेरे पालनहार —
बजट-भरतार!
हो री सखी मंगल गाओ जी,
हो री सखी चौक सजाओ जी,
आएगा आज मेरा बजट-भरतार!
अरे कोई टीका लगाओ जी,
अरे कोई काजल सजाओ जी,
विपक्ष की नज़र से इसे बचाओ जी!
आज खुलेंगे मेरे भाग के द्वार,
आज आएगा मेरा बजट-भरतार!

अब ज़रा मध्यमवर्गीय आम आदमी की सुने

उसे पकड़ो वहीं — अपने बेडरूम में,
जहाँ वो थका-हारा,
अपनी तोंद फैलाए,
रिमोट हाथ में लिए,
बजट का राग ढूँढ रहा है…चैनलों को बदलते हुए..एक जैसे सुर से बोर भी नहीं होता आदमी..

चलो, कुछ मदद कर देते हैं उसकी —
उसके लिए भी एक राग तैयार है!

🎶 आया रे बजट वाला खेल 🎶

(“आया रे खिलौने वाला…” की तरज पर)

आया रे बजट वाला खेल,
खिलौना ले के आया रे!
आया रेआया रे!

धूल झोंक के आंखों में,
सपनों का झूला सजाया रे!
आया रेआया रे!

आओ मेरे करदाताओं,
ऐसे ना शोर मचाओ रे,
एक हाथ से भरो जेब,
दूजे हाथ लुटाओ रे!

आया रे बजट वाला खेल,
खिलौना ले के आया रे!
आया रेआया रे!

क्यों ये शोर मचाये , क्यों राग मरसिया गाये ? –२

खा बजट की गोली और चैन से सो जाए l

“छूटों की बारिश भिगोये तेरी काया  रे !”

आया रे बजट वाला खेल , खिलौना  ले के आया रे,

आया रे… आया रे!

अब गरीब को पकड़ लिया जाए…
कहाँ मिलेगा? अरे, नज़र दौड़ाओ सब जगह—किसी पुल के नीचे, रिक्शा खींचता हुआ, दिहाड़ी पर, फुटपाथ पर, ट्रैफिक लाइट के पास…
पकड़ लो उसे!
क्या कहा? उसे गाना नहीं आता?
अरे, उससे कहो—”यह आम आदमी का बजट है, तेरे लिए ही तो खास बनाया है सरकार ने!”
अब तुझे तो गाना ही पड़ेगा।

ठहरो…!
वो न जाने कहाँ से, खुद ही कोई अलाप सीख लाया है…
कोई अलग ही राग छेड़ रहा है ये तो…
देशद्रोह जैसा काम कर रहा है,
जिसके लिए बजट बनाया गया है,
वही उसके ख़िलाफ़ गा रहा है…!

🎶 यह बजट नहीं, कोई मज़ाक़ है…
(गरीब का मरसिया , “यह ग़ज़ल है न गीत है कोई…” की तर्ज़ पर)

यह बजट नहीं, कोई मज़ाक़ है,यह तो भूख की नयी कहानी है,

मेरी थाली में फैला खालीपन,खाने को सिर्फ़ पानी है।

कभी महंगाई ने छीना चैन,

कभी बेरोज़गारी की लंबी लेन।

गरीबों के संग भोंडा  मज़ाक़ है,

अरमानों की बुझती ख़ाक है।

कभी राशन ने रुलाया,

कभी बेबसी की छाया।

ओह… कभी बच्चों की भूख ने मारा,

कभी ग़रीबी ने ललकारा।

गिला सरकार से नहीं है,

मुझे उम्मीदों ने ही मारा…

कभी राशन ने रुलाया,

कभी बेबसी की छाया।

कभी महंगाई  ने मारा,

कभी भुखमरी ने मारा ,

गिला सरकार से नहीं है…,

मुझे चुप्पी ने ही मारा…!

ये बजट नहीं, है शतरंज की है चाल ,

ये तो जुमलों की महफिल है कमाल  ,

थोथे भाषणों  के पुलंदे है ये ,

मेरी आँखों में सिर्फ़ हैं सवाल ।

कभी ताली ने चौंकाया,

कभी हँसी ने मुँह चिढ़ाया।

मुक़ाबला करें भी तो किससे करें,

हर सवाल पर शोर मचाते हैं ये,

बेरोज़गारी का ज़िक्र किया हमने ,

तो हमीं को आँख दिखाते हैं  ये।

कहीं थी ये बेदिली,

ओह कहीं थी आंकड़ों की गिलाफ़त,

कहीं थी माल में  मिलावट  ,

किस-किस का नाम लूँ मैं,

मुझे TRP ने भी मारा…!

गिला सरकार  से नहीं है,

मुझे चुप्पी ने  ने मारा!

🎵 कभी बेकसी ने मारा,

ओह कभी बेबसी ने मारा…

गिला मौत से नहीं है —

मुझे बेमौत ही  मारा… 🎵

यह अनवरत राग है… लोकतंत्र का।
बजबजाता हुआ, गंधाता राग…
जो सत्ता के गलियारों में अलापा जा रहा है।

आम आदमी का मतलब ही क्या है सखी…
उसे सौंदर्य-बोध नहीं,
एक नज़र बाहर झाँक कर देखा तक नहीं उसने।
बस चला जा रहा है — अपनी रोटी की जुगाड़ में।

मध्यमवर्गीय ठीक है…
बजट की चटनी कम से कम अपनी थाली में देख कर
खुश तो हो रहा है।
एक दिन तो चटनी से रोटी खाएगा ही न।

डॉ. मुकेश असीमित—साहित्यिक अभिरुचि, हास्य-व्यंग्य लेखन, फोटोग्राफी और चिकित्सा सेवा में समर्पित एक संवेदनशील व्यक्तित्व।
डॉ. मुकेश असीमित
✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक

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