“भाईदूज — तिलक की रेखा में स्नेह, उत्तरदायित्व और रोशनी”
भाई बहिन का त्यौहार है आज –भाई दूज —रिश्ते की उस महीन डोर का उत्सव है जो जिम्मेदारी, आदर और भरोसे से बुनी जाती है। दीवाली के उजास के बाद जब घरों की लौ थोड़ी धीमी पड़ती है, उसी लौ का अर्थ इस दिन रिश्तों के माथे पर फिर चमकना होता है—बहिन की प्रार्थना के रूप में, भाई के वचन के रूप में।
सबसे पहले समय और तिथि स्पष्ट कर लें, ताकि अनुष्ठान की लय सही बैठे।हिन्दू तिथि पंचांग तिथि का अवलोकन करें तो इस वर्ष भाईदूज (यम द्वितीया) गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025 को मनाई जाएगी। द्वितीया तिथि 22 अक्टूबर की रात्रि 8:16 बजे से प्रारम्भ होकर 23 अक्टूबर की रात्रि 10:46 बजे तक रहेगी। पारंपरिक मान्यता के अनुसार तिलक/टीका करने का श्रेष्ठ समय इसी दिन का अपराह्न माना जाता है—दोपहर 1:13 से 3:28 बजे तक का काल विशेष रूप से शुभ है। समय तय हो गया तो मन भी स्थिर हो गया है —क्योंकि अनुष्ठान का मूल तत्व ही है मन की एकाग्रता।
पौरोनिक कथा पर जाएँ तो भाईदूज का केंद्र यम और यमुना के स्नेह में धड़कता है। कहा जाता है—एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यम अपनी बहन यमुना के घर अचानक जा पहुँचे। बहन ने सत्कार किया, तिलक किया, भोजन कराया और वचन लिया कि वे हर वर्ष इसी तिथि को आएँगे। यम ने प्रसन्न होकर आशीष दी—जो भाई इस दिन अपनी बहन के घर तिलक पाएगा, उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा। यहाँ ‘अकाल-मृत्यु’ कोई जादुई छूट या दिवाली डिस्काउंट ऑफर नहीं, बल्कि प्रतीक है—जीवन के असमय संकटों से बचने के लिए पारस्परिक सतर्कता, परिवार के साथ की सुरक्षा, और रिश्ते में निभाए जाने वाले दायित्वों का स्मरण हमें सतट रूप से रहे । इसी दिन से प्रेरित होकर कई प्रदेशों में यह पर्व भैया दूज, भाऊबीज, भात्र-द्वितीया जैसे नामों से प्रतिष्ठित है। एक दूसरी स्मृति कृष्ण-सुभद्रा की है—नरकासुर वध के उपरान्त सुभद्रा ने कृष्ण का तिलक कर दीर्घायु की कामना की—यही संकेत देता है कि शक्ति और नीति का संयोग, परिवार की प्रार्थना से संपूर्ण होता है।
अब अनुष्ठान की सरल, किन्तु सूक्ष्म रूपरेखा थोडा सा बताएं । प्रातः स्नान कर लें—यमुना-स्नान का विधान कई स्थानों पर है; न जा सकें तो गंगाजल मिले जल से स्नान कर सूर्य को अर्घ्य दें। घर की दहलीज़ पर यम के नाम का चौमुखा दीप जलाना शुभ माना जाता है—दक्षिण दिशा की ओर लौ रहना ‘यम-दिशा’ के भय को प्रतीकतः शांत करने का भाव है। तिलक की थाली सजा लें—रोली, अक्षत, दीपक, पुष्प, कलावा/मौली, मिठाई और नारियल/गोला रखें। भाई को चौकी पर आसन देकर गणेश-स्मरण के साथ तिलक करें; कलाई में मौली बाँधें, आरती उतारें, मिठाई खिलाएँ और भोजन कराएँ। अनेक घरों में नारियल देने का रिवाज़ है—नारियल का कठोर कवच और भीतर का मधुर जल इस रिश्ते की प्रकृति जैसा ही है: बाहर से सुरक्षा, भीतर से स्नेह।
दिशाओं की सूक्ष्मता भी लोकाचार में प्रिय है—तिलक के समय भाई का मुख उत्तर या उत्तर-पश्चिम की ओर और बहन का मुख पूर्व या उत्तर-पूर्व की ओर होना शुभ माना गया है। यह केवल ज्योतिषीय संकेत नहीं, प्रतीक भी है—उत्तर ध्रुवता का, पूर्व प्रकाश-उदय का। अनुष्ठान के अंत में भाई बहन को आदरपूर्वक उपहार देता है—राशि नहीं, भावना बड़ी होती है। कई जगह एक और सुंदर रीति निभती है: बहन पहले ठाकुर जी को तिलक करती है, फिर भाई को—मानो दिव्यता से रिश्ता जोड़कर ही हम पारिवारिक संकल्प लेते हैं।
इस दिन के व्यवहारिक नियमों में सादगी और सात्त्विकता का आग्रह है। तिलक के समय कटु वचन, उलाहना, बहस से दूरी; भोजन/उपहार का निरादर न करना; नशा और मांसाहार से परहेज़; तिलक से पहले बहन का कुछ न खाना—ये सब बातें अनुष्ठान की शुद्ध ध्वनि को बनाए रखती हैं। बहन यदि भाई को नारियल/गोला दे तो दोनों उसका स्वाद अवश्य लें—यह मिठास रिश्ते के वचन में भी घुल जानी चाहिए। यदि भाई दूर हो, तो वीडियो कॉल पर भी तिलक का सांकेतिक अनुष्ठान किया जा सकता है—दीप, मंत्र, मिठाई और प्रतिज्ञा—चारों ही माध्यम दूरी को मिटा देते हैं; बाद में मिलते ही पूर्ण विधि से पुनः तिलक कर लें।
लोकजीवन में भाईदूज की एक मार्मिक लोककथा भी कही जाती है—एक बहन अपने भाई को अनेक अदृश्य ‘कालों’ से बचाती हुई उसके विवाह तक उसकी रक्षा करती है: शेर को मांस, साँप को दूध, नदी को ओढ़नी अर्पित कर संकट का मार्ग मोड़ देती है; सगाई-फेरे-रातजगा तक हर मोड़ पर वह सजग रहती है। कथा संकेत देती है—रिश्ते की सच्ची ‘रक्षा’ सिर्फ़ बाहुबल नहीं, बुद्धि, सजगता और उपस्थिती है। बहन, जो पारंपरिक प्रतीकों में ‘रक्षक’ कम और ‘संरक्षित’ अधिक कही गई, यहाँ स्वयं अनुष्ठान की अधिष्ठात्री है—यह उलटाव रिश्ते की समता और साझी जिम्मेदारी की सुंदर शिक्षा दे रहा है।
आज के समय में यह पर्व और भी प्रासंगिक है। तेज़ रफ़्तार जीवन, अलग-अलग शहर, अलग समय-क्षेत्र—बहुत कुछ हमें ‘संपर्क’ से ‘संबंध’ की दूरी पर ले जाता है। भाईदूज हमें साल में एक दिन री-कनेक्ट नहीं, री-कमिट कराता है। बहन का तिलक केवल दीर्घायु का आशीष नहीं—यह जीवनशैली, स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, काम-काज, और परिवार के प्रति भाई की प्रतिबद्धता की भी याद दिलाता है। भाई का उपहार केवल ‘तोहफ़ा’ नहीं—यह वादा भी है कि वह बहन की शिक्षा, करियर, निर्णय और आत्मसम्मान के लिए खड़े रहने के नैतिक कर्तव्य को निभाएगा। यूँ समझिए—तिलक की लाल रेखा विश्वास की नीति बन जाती है: असहमति भी आदर के साथ, दूरी भी संवाद के साथ, व्यस्तता भी संवेदना के साथ।
और हाँ, कुछ छोटे-छोटे आधुनिक संकल्प इस दिन से जोड़ दें तो पर्व साल भर जीवंत रहता है—महीने में एक दिन ‘सिब्लिंग-चेक-इन’, स्वास्थ्य/वित्त/कार्य पर पारदर्शी बातचीत, माता-पिता की जिम्मेदारियों का साझा रोडमैप, और किसी एक सामाजिक सेवा में साथ-साथ भागीदारी (रक्तदान, वृक्षारोपण, पशु-सेवा, या किसी ज़रूरतमंद परिवार की सहायता)। अनुष्ठान जब नीति बन जाता है, तभी संस्कृति दीर्घायु होती है—यही तो यम-यमुना की कथा का आधुनिक सार है।
अब जब 23 अक्टूबर 2025 का अपराह्न आए, तो दीये की लौ की तरह मन को स्थिर करें। थाली में रोली-अक्षत सजाएँ, नारियल की सुगंध को घर में घुलने दें, और तिलक की उस गरमाहट के साथ एक साझा वचन रखें—“हम भाई-बहन केवल खून के रिश्तेदार नहीं, एक-दूसरे के समर्थक, सहयात्री और सुरक्षा-वृत्त हैं।” यही भाईदूज का दार्शनिक, सामाजिक और पारिवारिक अर्थ है—और यही हमारे घरों की रोशनी लंबे समय तक उजली रखने का सबसे स्नेही तरीका भी।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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