पूँजीवाद की टंकी से फ्लश करता बाजार
देखा जाए तो पूँजीवाद (capitalism) ने हमारी ज़िंदगी के हर कोने में घुसपैठ कर ली है। मान न मान मैं तेरा मेहमान ,ऐसे ही हैं ये यह सज्जन,(हैं हैं सज्जन कहने का रिवाज है जी ) पूँजीवाद जी नाम है इनका ,ये सिर्फ़ ड्रॉइंग रूम, मॉल और शेयर मार्केट तक ही सीमित नहीं रहे हैं मित्र … इन्होंने तो चुपके-चुपके हमारे बाथरूम तक पर कब्ज़ा कर लिया है ।
जब हम छोटे थे, तब “नेचर कॉल” एक बहुत ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया थी —
जहाँ मन किया, जैसा सिस्टम मिला, देश काल परिस्थिति से समझौता किया और बस निपट ही लिए । शायद इसीलिए शौचादि से निवृत होने को पहले निपट लेना भी कहते थे l
वो कच्ची बस्तियों के आँगन से गुजरती रेल कि पटरियां हो, गाँव कि गली या किसी बाबुदीन का बंजर खेत या काका कि मेंड हो या शहर की कच्ची बस्तियों का कचरे का ढेर — हर जगह इंडियन स्टाइल का प्राकृतिक कमोड रुपी “मोड” मौजूद है । घुटने मोड़िए, थोडा दबाब बनाइये , प्रकृति से सीधा कनेक्शन बनाइए और काम पूरा कीजिए।
धीरे-धीरे क्या हुआ? हम बड़े हुए, और बाथरूम के कमोड का “मोड” बदल गया।
हमने सोचा, हम शायद मॉडर्न हो गए…चलो अच्छा हुआ ,कमोड के सहारे ही सही l फिर हामरी आत्ममुग्धता पर सवाल खड़ा किया कि जनाब असल में मॉडर्न हमारी ज़रूरतें नहीं हुईं है , मॉडर्न बेरहम बाजार के बिज़नेस मॉडल हो गए।
पहले इंसान दिन में दो बार जाए या दस बार जाए, मामले का निपटारा आराम से हो जाता था l किसी को नजर भी नहीं आता और कोई बिल भी नहीं बनता था। मुफ्त की प्रक्रिया, फ्री की फिलॉसफ़ी जिसे जब चाहे झाड दो ।
लेकिन जैसे ही वेस्टर्न कमोड और टिश्यू पेपर का घातक कॉम्बो आया, कहानी बदल गई —
अब हर फ्लश बटन के “प्रेस” के साथ खर्च जुड़ गया।
पहले बाथरूम चिंतन आटे दाल के भावका होता था ,अब टिश्यू पेपर तक के खर्चे ने चिंतन का स्वरूप बदल दिया है l
“पूँजीवाद को असली ब्रेकथ्रू तभी मिला जब उसे समझ आया कि सबसे बड़ा प्रॉफिट कहाँ है –उपभोक्ता की निजी जिन्दगी में दखल देने में ..और बाजार झट से उसके बेडरूम से लेकर बाथरूम तक में घुस आया l
आपके सबसे प्राइवेट मोमेंट में वह नजर जमाये है ।
धर दबोचा है उसने आपको वहां ,जहाँ आप अकेले होते हैं, कमज़ोर से होते हैं, मोबाइल भी साइड में रख देते हैं, और तभी दीवार पर टंगे रोल से अर्थव्यवस्था बेताल की तरह लटकी हुई आपको चिढा रही है ।
इंडियन स्टाइल में आदमी पूरा स्क्वैट मारकर बैठता था। योगासनों के हिसाब से यह एकदम “वैज्ञानिक” पोज़ था – घुटने मजबूत, कमर लचीली, पेट साफ।
लेकिन “वैज्ञानिकता” छोड़कर हम “डिग्निटी” की भाषा को परिभाषित करने लगे हैं ।
नया नैरेटिव यह बना दिया हमने :
जो मग और पानी से काम चलाए, वह टियर-2, टियर-3, देहाती टाइप का बन्दा ।
जो वेस्टर्न कमोड + टिश्यू + नुकीली प्रेशर जेट कि चोंच (जिससे पीछे से पानी एक सभ्य ऐंगल पर निकलता है), वह “डिग्निफाइड, क्लासी, अर्बन, वेल-रीड” टाइप का ।
मतलब, अब तन का मैल मेरा मतलब मल की सफ़ाई भी दो श्रेणी में बाँट दी गई –
पानी वाली सफ़ाई : लोअर मिडिल क्लास वाला जुगाड़
टिश्यू वाली सफ़ाई : अप्पर क्लास का क्लासिक ,इसे वो ‘सेव वाटर कैंपेन’ से भी जोड़ देंगे l
और ऊपर से हमें यह समझाया गया कि भाई, यह सब “हाइजीन” के नाम पर हो रहा है।
जिन्होंने पोखरों तालाब कुँओं में नहाकर अपना बचपन काटा, उन्हें समझाया जा रहा है कि पानी से साफ़ करना ग़लत है जी , पेड़ काटकर बने कागज़ से पोंछना सही है।
पूँजीवाद का कमाल देखिए –पहले हमारा टॉयलेट जाना सिर्फ़ जैविक ज़रूरत थी,
अब यह आर्थिक गतिविधि बन चुका है।कल बाजार किसी सेलेब्रिटी के मुंह से यह भी कहलवा सकता है कि ‘दिन में हर आधा घंटे में वाशरूम जाना चाहिए ,निपटना आये या ना आये ,टिश्यू पेपर इस्त्मेला करना जरूरी है l ‘
कल्पना कीजिए, कल कोई इकोनॉमिक्स का स्टूडेंट यह शोध करता हुआ मिले “इंडियन जीडीपी में एक छुपा हुआ सेक्टर है – बाथरूम इकॉनमी।
हर फ्लश, हर टिश्यू, हर सेनिटाइज़र, हर खुशबूदार स्प्रे – सब मिलाकर यह मल्टी बिलियन इंडस्ट्री है।”
पहले क्या होता था?
गाँव की शादी में 200 लोगों को खिलाओ और फिर बिना वेट कराये सभी को एक साथ निपटने को भेजो lये सामूहिक निपटारा जिसमें गाँव में हर किसी के खुले खेत सबकी अगुवानी के लिए अपनी चौड़ी छाती लिए खड़े मिलते हैं l खर्चा पानी का भी नहीं था ,गाँव की मिटटी का इस्तेमाल हाथ पोंछने के लिए आ जाता था।
अब अगर पाँच-सितारा होटल में किसी की शादी हो, तो बाथरूम की सजावट, टिश्यू ब्रांड, फ्लश की ध्वनि, खुशबू वाला स्प्रे – सब “स्टेटस सिंबल” हैं।
मुद्दा सिर्फ़ सफ़ाई का होता तो ठीक था,पर यहाँ तो मामला सीधा सीधा आदमी की जेब तक पहुँचा दिया गया है।
सोचिए, पहले ग़रीब और अमीर में फर्क कपड़े, गाड़ी, घर से दिखता था,
अब यह फर्क इस बात से पता चलता है कि वह किस स्टाइल के कमोड पर बैठता है, और पीछे से कौन सा सिस्टम चालू है।हमारे एक प्रसिद्द नेता तो इसे स्वचालित प्रणाली तक लेकर गये थे l कहते हैं न आवश्यकता आविध्कार कि जननी है l उन्हें थोडा और मौका दिया होता तो शायद कल यह तकनीक भी इजाद हो जाती कि कमोड के कण्ट्रोल बोर्ड में फीड कर दिया जाए कि ,’कितने ग्राम निपटना है ,कितने समय में ,पानी कि धार उसका टेम्परेचर और किस स्पीड से कितने समय तक फ्लश चलेगा ,निपटने के पहले वेलकम स्पीच ,होते समय प्रोसेसिंग रिपोर्ट और होने के बाद स्टूल एनालिसिस कि ताजा तरीन रिपोर्ट और साथ में नेताजी कि कस्टमर अनुभव की रेटिंग भी l
पूँजीवाद इतनी चुपके से आया कि हमें पता भी नहीं चला कि हमने क्या खोया।
देखिये बाजार ने आपकी जरूरत को समझा है ,आपकी आपदा को समझा है, उसे अवसर में बदला है बस l निपटना एक आपदा है ,यह दिन देखे न रात ,न ही देखे कि जगह देश और काल l जब जी चाहे आ जाए मुंह उठाये l इस आपदा ने तो साम्यवाद फैला रखा है l
बाजार में प्रोडक्ट इनोवेशन इस आपदा के अवसर को शत प्रतिशत भुनाने का एक तरीका है मित्र l
अब आप हैं कि बाल कि खाल निकालेंगे कि वेस्टर्न कमोड के मामले में क्या इनोवेशन जरूरी है?
देखिये इनसान का काम तो नहीं बदला न , जरूरत भी नहीं ,तो फिर इनोवेशन हमने सिर्फ इस लिए किया कि कम से कम प्रॉफिट का एंगल तो बढ़ जाए ।
इंडियन स्टाइल में इनोवेशन कोई काम का नहीं था क्युकी प्रॉफिट भी ज्यादा नहीं था — इसलिए वह “बैड डिज़ाइन” बता दिया हमने ।
वेस्टर्न स्टाइल में प्रॉफिट हाई है — इसलिए उसे “मॉडर्न डिज़ाइन” घोषित कर दिया है ।
अब आप हैं न,ख्वामखाह कपाल भाँती करके वही पुराना राग अलाप रहे हैं – स्क्वैटिंग पोज़ शरीर के लिए बेहतर है,
– पानी सबसे सस्ता और असरदार क्लीनर है,
और उसके ऊपर दलील कि यह सब फ्री है l
बस पूँजीवाद को आपकी इन्ही बातों से उसके खिलाफ साजिश की बू आती है , वो कह रहा है
कोई चीज़ मुफ्त क्यों है?
जो टिश्यू रोल दीवार पर लटक रहा है,
वह सिर्फ़ पेपर नहीं, पूरा बिज़नेस मॉडल है।
जो हैंडल दबाकर आप फ्लश करते हैं,
वह सिर्फ़ पानी नहीं, पानी के साथ मार्केटिंग की पूरी धार बह रही होती है।
और हम? मिडिल क्लासिये ..क्या ही कहें आपकी l
हम बीच में है , आधे स्क्वैट और आधे कॉन्फिडेंस में फँसे हुए हैं।
अंदर से अभी भी इंडियन हैं,
दिखावे के लिए वेस्टर्न कमोड पर बैठे हैं,
जेब से ग्लोबल इकॉनमी को मज़बूत कर रहे हैं,
और दिमाग से यह सोच रहे हैं –
“यार, कहीं मैं गाँव वाला तो नहीं लग रहा?”
मित्रा आपको शायद पता नहीं हो ,खेला हो गया है , एक अरब से ज़्यादा लोगों की टॉयलेट आदतें बिना किसी जनमत-संग्रह, बिना किसी बहस, बिना किसी “राष्ट्रव्यापी चर्चा” के बदल दी गईं —
और हमें लगा, हम “डेवलप” हो गए।
असल में, डेवलप हुआ सिर्फ़ मुनाफ़ा।
बाक़ी तो हम बस, मुफ्त से महँगे की तरफ़ सरकते गए –घुटनों से कमर तक,मग से टिश्यू तक,
आदत से बाज़ार तक।और पूँजीवाद…बाथरूम के कोने में चुपचाप बैठा मुस्कुरा रहा है –
“वाह, क्या मार्केट पकड़ा है।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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