अंगूठे का दर्द,अंगुली नहीं जानती

Pradeep Audichya Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"अंगूठा डिजिटल युग का असली मुखिया है—स्याही वाले निशान से पहचान तक और मोबाइल की स्क्रीन पर टाइपिंग तक। लेकिन दुख यह है कि अंगूठे की जिम्मेदारी जितनी बढ़ी, सम्मान उतना नहीं मिला। उंगलियाँ अंगूठियों से सजती-संवरती रहीं, और अंगूठा दर्द झेलता रहा। उसका दुख वही है—‘अंगूठे का दर्द, अंगुली नहीं जानती।’ यही व्यंग्य है कि पहचान भी वही तय करे और बलिदान भी वही दे।"

कचरा गाथा: नाली के सम्राटों की जंग!

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 21, 2025 Blogs 0

सुबह की ताज़ी हवा और गालियों की महक—यही हमारी कॉलोनी का ‘नियम’ है। इस बार झगड़े की वजह बनी नाली में बहाया गया कचरा। एक परिवार ने रंग और खानपान का हवाला दिया, तो दूसरे ने संस्कारों की दुहाई। मोहल्ला जुटा, चायवाले ने विशेषज्ञ राय दी। मैं सोच रहा था—डीएनए टेस्ट करवा दूँ! लेकिन श्रीमती जी ने रोक दिया—“अरे, थोड़ी देर में यही लोग चीनी माँगने पहुँच जाएँगे।”

कोल्हू का लोकतंत्र-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 19, 2025 व्यंग रचनाएं 2

यह लोकतंत्र दरअसल एक कोल्हू है जिसमें बैल बनकर हम आमजन जोते जा रहे हैं। मालिक—नेता और अफसर—आराम से ऊँची कुर्सियों पर बैठकर तेल चूस रहे हैं। जनता की आँखों पर रंग, धर्म और जाति की पट्टियाँ बाँध दी गई हैं ताकि वह देख ही न सके कि असल में किसके लिए घूम रही है। तेल की मलाई मालिकों के हिस्से में जाती है, जनता को मिलती है सिर्फ़ सूखी खली और भ्रमित श्रेय।

दोस्ती और उधार-हास्य व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 18, 2025 Blogs 2

दोस्ती अमृत है, मगर उधार की चिपचिपाहट इसे छाछ बना देती है। वही दोस्त जो आपकी माँ का हाल पूछता था, अचानक आपकी क्रेडिट कार्ड लिमिट साफ़ कर देता है। रिकवरी के लिए आप गुड मॉर्निंग भेजते हैं और जवाब का इंतज़ार वैसा ही करते हैं जैसे पहले क्रश के ‘हम्म्म’ का। और जब वह अंडरग्राउंड हो जाए, तो समझिए आपकी दोस्ती अब एक व्हाट्सऐप ग्रुप की भावनात्मक कर्ज़ बैठक बन चुकी है।”

लेखक, शॉल और सोहन पापड़ी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

लेखक और शॉल का रिश्ता उतना ही अटूट है जितना संसद और हंगामे का। शॉल ओढ़े बिना लेखक अधूरा, और सोहन पापड़ी के डिब्बे के बिना समारोह अधूरा। यह सम्मान की रीसायकल संस्कृति है—जहाँ शॉल अलमारी से निकलकर अगले कार्यक्रम में, और सोहन पापड़ी बारात तक पहुँच जाती है। लेखक झुकता है—पहले शॉल के बोझ से, फिर आयोजकों की विचारधारा की ओर।

हिंदी दिवस-माइक, माला और मातृभाषा

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 13, 2025 Important days 0

ओपीडी में लेखक-डॉक्टर को एक चालाक रिश्तेदार ‘हिंदी दिवस’ पर मुख्य अतिथि का न्योता थमा देता है—मंशा डोनेशन बटोरने की। तैयारियों के बीच सड़क पर ‘हिंदी माता’ मिलती हैं—लंगड़ाती, अपमानित, साल भर किनारे धकेली हुई। शाल-ताम्रपत्र की औपचारिकता, विभागीय खानापूर्ति और नौकरी-प्रतियोगिता में हिंदी की हीनता पर वे करुण कथा सुनाती हैं। लेखक लौटकर ठठा नहीं, बच्चों को श्रेष्ठ हिंदी साहित्य भेंट करने का संकल्प लेता है।

मैं और मेरी हिंदी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 13, 2025 व्यंग रचनाएं 0

मैं, अंग्रेज़ी दवा लिखने वाला डॉक्टर, अब हिंदी में लिखने लगा तो शहर के ‘हिंदी प्रहरी’ गुरुजी मेरी हर पोस्ट में बिंदी-अनुस्वार ढूंढते फिरते हैं। फेसबुक की वॉल अब क्लासरूम बन गई है—खद्दर कुर्ता, झोला, फाउंटेन पेन और ‘हिंदी की टूटी टांग’ का स्थायी दर्द। मैं त्रिशंकु-सा, हिंग्लिश और देसी मुहावरे के बीच लटका, गूगल इनपुट से जूझता, फिर भी लिखने की खुजली शौक से खुजाता हूँ। बेखौफ़, मुस्कुराते हुए.

जमाई राजा—कलियुग के कौवे 

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 12, 2025 व्यंग रचनाएं 1

श्राद्ध पक्ष में कौवों की कमी ने परम्पराओं को भी स्टार्टअप बना दिया। अब्दुल चाचा दो कौवे पालकर खीर चखवाने का 101 रुपये वाला ‘डिलीवरी सेवा’ चला रहे हैं। पर असली ‘कागभुशुंडी’ तो कलियुग का जमाई है—जाति-धर्म से परे, ससुराल की मुंडेर पर बैठकर कांव-कांव करता और थाली में पहला निवाला पक्का करता। कौवे न मिलें तो जमाई ही तर्पण का ब्रांड एम्बेसडर, नाग पंचमी तक आउटसोर्सिंग पक्की! हो जाएगी

मोगली आज़म -लघु नाटिका

Ram Kumar Joshi Sep 12, 2025 व्यंग रचनाएं 0

मोगली सल्तनत का दरबार दो सदियों के बीच झूला झूलता है—एक ओर शाही खंजर, सुराही, घूंघरू; दूसरी ओर जींस, बीयर, पिज़्ज़ा और जिम। बादशाह की नीतियाँ अख़बारों से सीखी गईं, शहज़ादा सलीम ‘हैलो डैड’ कहकर बगावत की सूचना कुरियर से देता है। नर्तकी का ग्लास सिंहासन तक पहुँचता है, तलवारें जंग खाती हैं और घोड़े बेरोज़गार। सत्ता का तख़्त अंततः नृत्य-मंच में बदल जाता है—और जनता तमाशा देख हँसती।

पान-दर्शन शास्त्र-हास्य व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 11, 2025 व्यंग रचनाएं 0

पान हमारी सभ्यता का ऐसा रस है जिसने गली-कूचों को संसद बना दिया। दीवारों पर मुफ्त “पीक आर्ट,” नेताओं के वादों में कत्था-चूना और जनता के मुँह में चुनावी पान—यह वही संस्कृति है जहाँ पानवाला ही न्यूज़ चैनल, गूगल मैप और थिंक-टैंक रहा। आज इंस्टा स्टोरी ने उसकी जगह ले ली है, मगर स्वाद, लाली और व्यंग्य अब भी उसी गिलौरी में छुपा है।