समोसे का सार्वभौमिक सत्य

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“समोसा सिर्फ नाश्ता नहीं—भारतीय समाज, राजनीति और प्रेमकथाओं का सबसे स्थायी त्रिकोण है। डॉक्टर से लेकर दफ़्तर और दाम्पत्य तक, हर मोड़ पर यह तला-भुना फल अपना प्रभाव दिखाता है। बर्गर रोए या बाबू सोए—पर समोसा आए तो सब जग जाएं! यही है समोसे का सार्वभौमिक सत्य।”

पुरुष सूक्त और सृष्टि–चिन्तन : पर्यवेक्षक की चेतना में जन्मा ब्रह्मांड

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 27, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

“पुरुष सूक्त हमें बताता है कि ब्रह्मांड कोई जड़ मशीन नहीं, बल्कि एक ऐसे प्रेक्षक की चेतना में जागता हुआ दृश्य है, जिसके ‘सहस्र सिर’ अनगिनत जीवों की आँखों से दुनिया को देख रहे हैं।” “जैसे ही प्रेक्षक देखता है, संभावनाएँ ठोस रूप ले लेती हैं — यही वह दार्शनिक सेतु है जो क्वांटम भौतिकी और संख्य दर्शन को जोड़ता है।” “वेदांत का पुरूष कहता है — ब्रह्मांड 25% दृश्य, 75% अदृश्य है; और यह अदृश्यता ही चेतना का विशाल क्षेत्र है जहाँ से प्रकृति अपनी अभिव्यक्ति पाती है।” “सृष्टि तब जन्म लेती है जब चेतना प्रकृति को ‘देखती’ है — वही क्षण है जहाँ विज्ञान, दर्शन और अध्यात्म एक बिंदु बनकर खड़े हो जाते हैं।”

हिरण्यगर्भ का रहस्य : सृष्टि से पहले के अंधकार में चमकती एक स्वर्ण-बूँद

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 27, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

“जब कुछ भी नहीं था—न आकाश, न पृथ्वी—तब भी एक चमकता बीज था, ‘हिरण्यगर्भ’। यही वह आदिम स्वर्ण-कोष है, जहाँ ब्रह्मांड समय और स्थान बनने से पहले ही संभावनाओं की तरह छिपा पड़ा था, और जहाँ से सृष्टि की पहली धड़कन जन्मी।”

भारतीय सिनेमा जगत — जाने कहाँ गए वो दिन

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 26, 2025 Blogs 0

“सिनेमाघर कभी मनोरंजन का देवालय था, जहाँ चाय-कुल्फी की आवाजें, तंबाकू की पिचकारियाँ, आगे की सीटों की रुई निकालने की परंपरा और इंटरवल का महाभारत—सब मिलकर एक सामूहिक उत्सव बनाते थे। वह जमाना गया, जब फिल्में हमें हमारी रियलिटी से कुछ पल उड़ा ले जाती थीं।”

युद्ध का नित नया बदलता चेहरा

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 25, 2025 Foreign Affair 0

युद्ध का इतिहास दरअसल मनुष्य नहीं, तकनीक की कहानी है। नरमार की भोथरी गदा से लेकर ड्रोन, AI, सैटेलाइट और हाइपरसोनिक मिसाइलों तक—हर दौर में विजेता वही बना जिसने दूर से, सस्ते में और सुरक्षित प्रहार करने की कला सीख ली। युद्धभूमि बदल चुकी है, हम अब भी पुराने सपनों में अटके हैं।

आप तो बस लिखते रहिए..

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 24, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“आप लिखते हैं तो लोग आपको क्रांतिकारी समझ लेते हैं—खुद रिमोट बदलने से डरते हैं पर क्रांति की बंदूक आपके कंधे पर रखकर चलाना चाहते हैं। यह व्यंग्य उन लोगों का चश्मा है जो चाहते हैं—बगावत आपकी हो, जोखिम आपका हो… और तमाशा उनका।”

कान-भरैयों का महाग्रंथ :बात आपकी, कथा इनकी—और बीच में कानों की चिल्लम

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 24, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“कान-भरैयों की दुनिया बड़ी विचित्र है—ये आधा सुनते, चौथाई समझते और बाकी अपनी कल्पना की दही में फेंटकर ऐसी तड़कती-भड़कती कहानी बना देते हैं कि बेचारा सुनने वाला सोचता रह जाए—‘मैंने तो नमस्कार कहा था, इसमें षड्यंत्र कहाँ से आ गया?’ यह व्यंग्य उन्हीं महापुरुषों का महाग्रंथ है।”

अब मेरा कौन सहारा: देसी इलाज, सरकारी योजनाएँ और छेदी लाल का व्यंग्य

Ram Kumar Joshi Nov 23, 2025 व्यंग रचनाएं 2

सरकारी अस्पताल से बाहर निकलता छेदी लाल सिर्फ़ दवा की कमी से नहीं, टूटी परंपराओं और बदलती नीतियों से भी परेशान है। संधाणा के दिनों से लेकर आरजीएचएस की च्यवनप्राश छूट तक, और अब आयुर्वेदिक दवाओं के कटते नामों से लेकर एलोपैथिक सूची के फैलते आकार तक—उसकी शिकायत में जनता का असली दर्द झलकता है। व्यंग्य का सीधा सवाल यही है कि जब “स्वदेशी” के नाम पर वोट माँगे गए थे, तो देसी दवाओं का गला किस टेबल पर घोंटा जा रहा है?

व्यंग्य का वैश्विक और हिंदी साहित्यिक परिप्रेक्ष्य

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 22, 2025 आलोचना ,समीक्षा 0

पश्चिमी साहित्य में ऑस्टेन, स्विफ्ट, ऑरवेल और हक्सले जिस तीक्ष्ण हास्य से समाज और सत्ता की विसंगतियों को खोलते हैं, वहीं हिंदी में परसाई, शरद जोशी और चतुर्वेदी उसी परंपरा को देसी अंदाज़ में आगे बढ़ाते हैं। व्यंग्य भाषा नहीं देखता—वह मनुष्य की आदतों, पाखंड, लालच, दिखावे और सामाजिक मूर्खताओं पर चोट करता है। यही कारण है कि व्यंग्य वैश्विक भी है और गहरे स्थानीय भी।

पूँजीवाद की टंकी से फ्लश करता बाजार 

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

पूँजीवाद आज हमारे जीवन का रिमोट कंट्रोल बन चुका है। वह तय करता है कि हमें क्या खरीदना है, क्या छोड़ना है और किस चीज़ में ‘स्मार्ट चॉइस’ बनने का भ्रम पैदा करना है। बाजार अब सिर्फ चीजें नहीं बेचता, हमारी कमजोरियाँ, असुरक्षाएँ और आदतें भी खरीद लेता है। हर फ्लश, हर swipe, हर click के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—जो हमें उपभोक्ता से ज्यादा उपलब्ध दिमाग मानता है। इस व्यंग्य में दिखाया गया है कि कैसे एक विशाल टंकी की तरह पूँजीवाद ऊपर बैठा है, और नीचे पूरा समाज उसकी एक हल्की-सी फ्लश से बहने लगता है।