डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 26, 2025
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एक और सरकारी छत गिरी, मासूम मरे, सिस्टम फिर बच निकला — जैसे संविधान में इसके लिए छूट हो। सरकार की संवेदना ट्विटर और प्रेस के लिए आरक्षित रही, नतीजे में निलंबन, मुआवजा और मगरमच्छी आँसू मिले। असल सवाल वही रहा — कब तक ढहती छतों के नीचे संवेदनशीलता दफन होती रहेगी और सिस्टम बाल बांका किए बिना बच निकलता रहेगा?
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 21, 2025
व्यंग रचनाएं
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हर कोई अपने पदचिन्ह छोड़ जाना चाहता है, लेकिन अब ये निशान कदमों से नहीं, जूतों से पहचाने जाते हैं। महापुरुषों के घिसे जूतों में वैचारिक उभार चिपका दिए गए हैं, ताकि गहरे पदचिन्ह बन सकें। नेता, जनता, डॉक्टर और यहां तक कि श्रीमती जी तक—सब अपने-अपने क्षेत्र में फुटप्रिंट छोड़ने की होड़ में हैं। पर दिशा रहित कदमों से क्या पदचिन्ह बनेंगे?
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 20, 2025
व्यंग रचनाएं
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गड्डापुर शहर में विकास की परिभाषा गड्ढों से तय होती है। यहाँ खुदाई केवल निर्माण कार्य नहीं, आस्था, राजनीति और प्रशासन की साझा विरासत है। गड्ढे भरने पर जनता चिंतित हो उठती है—जैसे विकास रूठ गया हो। नेता इन्हीं गड्ढों के सहारे वोट पाते हैं, और नगरवासी गड्ढों को अपना ‘खुदा’ मान लेते हैं। गड्ढे ही यहाँ पहचान हैं, परंपरा हैं—ट्रेडमार्क हैं।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 18, 2025
व्यंग रचनाएं
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लोकतंत्र आश्वासनों पर टिका है, जहाँ हर पार्टी का घोषणा-पत्र वादों का कठपुतली शो होता है। जनता वोट रूपी टिकट से यह खेल देखती है, अपनी गरीबी और भुखमरी के बावजूद। नेतागण पांच साल में एक बार उन्हें खास महसूस कराते हैं, जिससे सरकारें बनती हैं। आश्वासन बाहर से मिलें या अंदर से, यही सरकार के गठन का आधार है। जनता भी आश्वासन की घुट्टी चाहती है, चाहे नेताओं से मिले या बाबाओं से, क्योंकि "अच्छे दिन" का यही आश्वासन है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 16, 2025
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इस रचना में किराएदार की ज़िंदगी की उन अनकही व्यथाओं को हास्य और व्यंग्य के लहज़े में उजागर किया गया है, जिन्हें हम सभी कभी न कभी भुगत चुके हैं। मकान मालिक की एक्स-रे दृष्टि, दूध की बाध्यता, रद्दी की एफडी और ‘बेटे समान’ किराएदार बनने की त्रासदी — सबकुछ इतने रोचक ढंग से बुना गया है कि हँसी के साथ एक टीस भी उभरती है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 15, 2025
व्यंग रचनाएं
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बाढ़ आई नहीं कि सरकारी महकमें ‘आपदा प्रबंधन’ में ऐसे सक्रिय हो गए जैसे ‘मनौती’ पूरी हो गई हो। नदी उफनी नहीं कि पोस्टर लग गए, हेलिकॉप्टर उड़ गए, और राहत की थैलियाँ गिरने लगीं। मगरमच्छ तक घरों में घुस आए और मंत्रीजी बोले—“हर घर नल-जल योजना अब पूरी हो चुकी है।” प्रेस कांफ्रेंस में ठंडा पिलाकर सवाल बंद करवाना ही शायद सरकार का असली राहत प्रबंधन है।
Pradeep Audichya
Jul 14, 2025
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सेठजी को अब ‘सेठ’ होने से संतोष नहीं, उन्हें ‘समाजसेवी’ भी बनना है—वो भी बिना समाज की सेवा किए! अखबार, होर्डिंग, माला और माइक की व्यवस्था है, गाय तक बुलवाई गई है फोटो के लिए। जीवन पर प्रकाश डालते मास्टर साहब बिजली चोरी, मंदिर पर कब्ज़ा और गरीबों की "सुरक्षा" के किस्से खोल देते हैं। मुनीम तुरंत टोका — “अब ज्यादा प्रकाश ठीक नहीं है।”
Prahalad Shrimali
Jul 13, 2025
व्यंग रचनाएं
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मुंगेरीलाल केवल एक चरित्र नहीं, हर आम आदमी की अंतरात्मा है जो कठिन यथार्थ के बीच भी सुनहरे सपने देखता है। वह न पाखंडी है, न अवसरवादी—बल्कि एक ऐसा मासूम है जो बिना किसी प्रचार के देश की खुशहाली का सपना पालता है। उसकी दुनिया रंगीन जरूर है, लेकिन अहिंसक, नेकनीयत और हानिरहित है। ऐसे मुंगेरीलाल देश पर बोझ नहीं, बल्कि भावना के सच्चे वाहक हैं।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 10, 2025
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गुरु अब ज्ञान के प्रतीक नहीं, शॉर्टकट और टिप्स देने वाले बाज़ारू ब्रांड बन चुके हैं। चेला बनना खतरे से खाली नहीं, क्योंकि हर चेला गुरु बनने की फिराक में है। गुरु-शिष्य परंपरा अब कोर्ट-कचहरी, दलाली, और सट्टे की दुनिया में ‘गुरु मंत्र’ से ज़्यादा ‘टिप्स मंत्र’ में बदल चुकी है।
Sunil Jain Rahee
Jul 8, 2025
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जब देव सोते हैं तो देश की नींव भी ऊंघने लगती है। जनता, बाबू, साहब और चपरासी सब अपनी-अपनी तरह से नींद का महिमामंडन करते हैं। जागने की ज़िम्मेदारी बस सेना और कुछ अदृश्य प्रहरी निभाते हैं। इस नींद में सत्ता फलती है, और जनहित सो जाता है।