साथ देना तू मेरा-शिव भजन
यह कविता एक भक्त की भोलेनाथ से की गई विनम्र प्रार्थना है। जब संसार ठुकरा देता है, तब शिव ही सहारा बनते हैं। हर श्लोक में समर्पण, भक्ति और विश्वास की गूंज है—सच्चे ईश्वर से जुड़ने की एक सरल पर सशक्त पुकार।
यह कविता एक भक्त की भोलेनाथ से की गई विनम्र प्रार्थना है। जब संसार ठुकरा देता है, तब शिव ही सहारा बनते हैं। हर श्लोक में समर्पण, भक्ति और विश्वास की गूंज है—सच्चे ईश्वर से जुड़ने की एक सरल पर सशक्त पुकार।
इस कविता में एक रात का भावचित्र है — जहाँ चाँद नहीं निकला, फिर भी कोई और "चाँद सा" मौजूद है जो सबका ध्यान खींच रहा है। उसकी अदाएँ, शर्मीलापन, सौंदर्य और भावनाओं की सजीवता से पूरी महफिल रोशन है। वह निराशा के अंधेरे में भी एक दीपक सा जगमगा रहा है — शान-ए-महफिल बनकर।
यह कविता एक खोज है उस झूठ की, जिसे हमने सच मान लिया—जिसे प्रार्थनाओं, राष्ट्रगान, टीवी बहसों और भावनाओं में पवित्रता की तरह सजाया गया। यह झूठ अब विश्वास से अधिक विश्वसनीय हो गया है, और सत्य को दरकिनार कर चुका है।
यह कविता हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा मिलने के बावजूद उसके व्यावहारिक उपयोग में आने वाली चुनौतियों और उपेक्षा को दर्शाती है। यह बताती है कि कैसे हिंदी केवल कागजी कार्यवाही और भाषणों तक सीमित है, जबकि दैनिक जीवन, प्रशासन और तकनीकी क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व है। कविता हिंदी के प्रति दिखावे के सम्मान और वास्तविक उपेक्षा के बीच के अंतर को उजागर करती है, और इस बात पर जोर देती है कि हिंदी को सही मायने में सम्मान तभी मिलेगा जब वह जन-जन की भाषा बने और हर क्षेत्र में उसका सच्चा उपयोग हो।
बारिश की धीमी बूँदें जैसे प्रेम पत्र हों, जो धरती पर उतरते ही एक गीत बन जाएं। डॉ. मुकेश असीमित की कविता "बरसात की बूंदे" न केवल प्रकृति की कोमलता को दर्शाती है, बल्कि उसमें छिपे प्रेम, आत्मिक जुड़ाव और आशाओं को भी खूबसूरती से रचती है।
बारिश की हर बूंद, प्रतीक्षा की तपिश से दहकती है। पेड़-पत्ते जवां हैं, बगिया महकी है, लेकिन प्रेमी नहीं आया। बूंदें अब फूल नहीं, अंगारे बन गई हैं। विद्या पोखरियाल की स्वरचित कविता प्रेम, विरह और मानसून की इस जटिल रागिनी को भावभीने ढंग से उजागर करती है।
क्या आज़ादी सिर्फ कैलेंडर की छुट्टी बनकर रह गई है? डॉ. मुकेश असीमित द्वारा स्वरचित और स्वरांजलि में प्रस्तुत यह समकालीन कविता "स्वतंत्रता के शेष प्रश्न" — आज़ादी के अर्थ पर एक गूढ़, विचारोत्तेजक और आत्ममंथन कराती रचना है। जब पूरा देश तिरंगे के नीचे झूम रहा है, कुछ सवाल अब भी हवा में तैर रहे हैं... यह वीडियो स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, भारत की आज़ादी की वर्तमान व्याख्या को लेकर एक भावपूर्ण प्रस्तुति है। पूरी कविता ज़रूर सुनिए — शायद इन सवालों में कहीं आपका भी एक सवाल छुपा हो।
बरसात की एक शाम, एक बूढ़ा अपनी बीमार पत्नी को लिए डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर खड़ा है। डॉक्टर छतरी देता है, पर बूढ़े की आँखों की बारिश नहीं रुकती। यह कविता सामाजिक विषमता, करुणा और आत्मचिंतन की सघन अनुभूति कराती है।
प्रह्लाद श्रीमाली की यह रचना हास्य और कटाक्ष के माध्यम से सामाजिक व्यवहारों, ढकोसलों और राजनीतिक विडंबनाओं पर करारा व्यंग्य करती है। 'क्या मिला?' के सवाल के साथ यह रचना हमें अपने ही कर्मों, परंपराओं और सोच पर पुनर्विचार करने को मजबूर करती है।
यह कविता जीवन के संघर्ष, आत्मविश्वास और लक्ष्य साधना की प्रेरणा देती है। गिरने, थमने और लड़खड़ाने के बीच भी उठकर आगे बढ़ते रहने की बात करती है। यह पसीने को मेहनत का मोती मानती है और हार को मंजिल की सीढ़ी।