छट पर्व –जहाँ अस्त हुए सूरज को भी पूजा जाता है
उगते हुए सूरज को सलाम करने की हमारी आदत तो एक वैश्विक आदत है —“राइजिंग सन”—जिसे कभी किसी अंग्रेज़ ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए गर्व से कहा था कि वहाँ सूर्य कभी अस्त नहीं होता। पर हमारी संस्कृति ने एक सहज परंतु अद्भुत सुधार किया—हमने सीखा कि डूबते सूरज को भी प्रणाम करना चाहिए। हमारे यहाँ पश्चिम में उतरता सूर्य उतना ही पवित्र है जितना पूर्व में उगता; देवता दिशा से नहीं, भावना से पूज्य होते हैं। इसलिए दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल की षष्ठी-सप्तमी पर करोड़ों लोग जब डूबते और उगते सूर्य के आगे अर्घ्य देते हैं, तो वह सिर्फ आकाश के किसी गोले को नहीं, जीवन की निरंतरता, श्रम की गरिमा, और आशा की अविचल रीत को नमस्कार होता है। कोई कव्वाली गुनगुनाती है—“चढ़ता सूरज धीरे-धीरे ढलता है”—और हम मुस्कुरा कर याद करते हैं कि ढलना कमजोरी नहीं, प्रकृति का विराम है; हर ढलान अगली ऊषा की सीढ़ी है।
छठ का संगीत जैसे-जैसे नज़दीक आता है, यूपी-बिहार-झारखंड की मिट्टी अपने बच्चों को पुकारने लगती है। मुंबई जैसे महानगर अचानक हल्के लगते हैं—टो वाले मातादीन से लेकर चाट वाले बटेसर भैया तक, और मनोज मुंतशिर जैसे शब्द-साधक तक—सबके टिकट कटते हैं, और पुरवैया के एक झोंके में दिल डगमगा उठता है: “के पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा, चल आज देशवा की ओर।” साल का यह अकेला ऐसा पर्व है जब “माँ और माटी” साथ-साथ बुलाती हैं—घर आजा बेटा, छठ मैया की हथेली पर सजी यह कच्ची साँची सूपिया घाट तक तुझे ही तो ले जानी है।
छठ माता कौन हैं—धारणाएँ कई हैं। पुराणों में नवरात्रि की माँ कात्यायनी का एक रूप मानी जाती हैं; कहीं ब्रह्मा की मानस-पुत्री—जहाँ जन्म में देह का नहीं, मन का सृजन अधिक बड़ा होता है। आधुनिक विज्ञान की फ़िल्में जब मस्तिष्क तरंगों के संगम से नए जीवन की कल्पना करती हैं तो हम विस्मय से ताली बजा देते हैं; पर वही संभावना वेद-पुराण में पढ़ते हैं तो उसे कल्पना कहकर टाल देते हैं। यह यक़ीन और अविश्वास के बीच झूलता मन ही तो है—दिन में रॉकेट भेजता युवा भारत, और रात को गीता के दो पन्ने पढ़कर आँख मूँदने का संकल्प भी वही करता है। आधुनिक होना मूर्ख होना नहीं; जड़ों से कट जाना विकास नहीं, उखड़ जाना है। हमें तय करना होगा—हम पशु के असंतोष में अटके रहेंगे या देवत्व की यात्रा पर चलेंगे।
इतिहास की धुँध में झाँकें तो छठ की प्रतिध्वनियाँ महाभारत तक सुनाई देती हैं—कहा जाता है, द्रौपदी ने व्रत किया; अंगदेश (आज का भागलपुर) के राजा, सूर्यपुत्र कर्ण ने भी इस उपासना को महापर्व का स्वरूप दिया। कर्ण और सूर्य का वह रिश्ता इतना उज्ज्वल है कि कुरुक्षेत्र की धूल भी आज तक सुनाती है—जब कर्ण तीरों की वर्षा में ढह रहे थे, आकाश का सूर्य जैसे एक पल को उदास हो उठा। हम भी तो सूर्य को पिता-तुल्य मानते हैं; छठ के जल में उतरकर जब अर्घ्य देते हैं, तो वह भक्त का नहीं, संतान का प्रणाम होता है—हज़ारों बरस पुराने एक बंधन की मानो सार्वजनिक घोषणा: हम सूर्य की संतान हैं—तपना जानते हैं, चमकना भी जानते हैं।
और फिर शुरू होता है चार दिनों का वो अनुपम क्रम, जिसमें अनुष्ठान से अधिक शुचिता, कर्मकांड से अधिक करुणा, और शास्त्र से अधिक लोक-संस्कृति की धड़कन सुनाई देती है। पहला दिन—नहाय-खाय—घर की धुलाई, देह-मन की पवित्रता, और सात्त्विक भोजन से शुचि का आरंभ। दूसरा दिन—खरना—मिट्टी के चूल्हे, स्वच्छ बर्तनों, उपले की आँच पर पकती गुड़ की खीर और रोटी, कहीं-कहीं लौकी-भात या “लौकी-दाल” की सुगंध; और वहीँ रसोई से उठती वह अनकही प्रार्थना कि कल के निर्जल व्रत में मन की नदी सूखी न रह जाए। तीसरा दिन—निर्जला उपवास—जब होंठ मरु-सा सूखते हैं, पर आँखें गीतों में गंगा-जमुना बहा देती हैं। “पहिले-पहिल हम कहीं छठी मइया व्रत तोहार करी…” जैसे भोलेपन से भरे गीत व्रतिनी की मासूम भूल-चूकों की क्षमा भी माँग लेते हैं और विश्वास भी भर देते हैं कि इस पूजन का मंत्र कोई संस्कृत रचना नहीं, भोजपुरी-मगही-मैथिली-अंगिका-बज्जिका की मधुर लोक-ध्वनि है। चौथे दिन उषा अर्घ्य से पारण तक—जब पहली किरण जल की पलक पर ठहरती है और सैकड़ों-हज़ारों सूपियाँ एक साथ उठकर चमकती धुन बना देती हैं, तब लगता है जैसे भोर ने पूरे समाज को एक स्वर में बाँध दिया हो।
घाट की मिट्टी पर बने वेदी के चार कोने—कहीं गन्ने के पूले, केले के पौधे, हरी टहनियाँ—मानो प्रकृति की चार दिशाएँ होकर वेदी की रक्षा कर रही हों। यही वेदी छठ मइया हैं—कोई मूर्तिभंजक या मूर्तिपूजक विवाद यहाँ टिकता ही नहीं, क्योंकि पूजा का केंद्र मिट्टी, अन्न, फल, जल और श्रम हैं। कोई पुरोहित-परंपरा का आग्रह नहीं; जो कुछ भी नहीं जानता, वह भी छठ जानता है—क्योंकि छठ “लोक” का पर्व है, और लोक के पास ज्ञान शास्त्रों से नहीं, अनुभव से आता है।
डूबते सूर्य का अर्घ्य और उगते सूर्य का अर्घ्य—दोनों साथ क्यों? क्योंकि छठ हमें सिखाती है कि ढलान को दोष मत दो, वही तो नई भोर का बीज है। हम पश्चिम को पूर्व जितना ही पवित्र मानकर जीवन के पूर्ण चक्र को स्वीकारते हैं। इस स्वीकार में कैसी अद्भुत उदारता है—कि संघर्ष के दिन भी स्मरणीय हैं, और विश्राम के क्षण भी वंदनीय; परिश्रम की दाह भी पूज्य है, और शीतलता का प्रवाह भी आवश्यक। यही संतुलन छठ का तत्त्व है—अग्नि और जल का संगम, जो क्रांति को विद्रोह बनने से रोकता है, आस्था को अंधत्व होने से बचाता है, और आधुनिकता को जड़ों से जोड़कर चलना सिखाता है।
और उस क्षण जब घाट पर भीड़ समुद्र-सी डोलती है, तब किसी का कोई भेद शेष नहीं रहता—न जात, न लिंग, न धन, न पद। हर वेदी पर सबका हक़, हर सूपिया में सबका आशीर्वाद। यह शायद भारत का सबसे लोकतांत्रिक क्षण होता है—जहाँ धर्म, दर्शन, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक एकात्मता एक ही फ्रेम में मुस्कुराते दिखाई देते हैं। सोचिए, यदि हम साल के तीन सौ पैंसठ दिन वैसे ही रह पाएँ जैसे छठ की सुबह रहते हैं—निर्मल, स्नेहमय, समरस—तो विश्वगुरु बनना कोई नारा नहीं, स्वाभाविक परिणाम होगा; “वसुधैव कुटुंबकम्” कोई उद्घोष नहीं, जीवन की शैली बन जाएगी।
छठ के गीत इस पूरे अनुभव का धड़कता हुआ हृदय हैं—“कहाँ से लइब ऐ बांस के बहँगिया…” गाती हुई माताएँ जब अपने बच्चों के दीर्घायु, सद्गति, सद्बुद्धि की कामना करती हैं, तो शब्दों के पार एक कंपन सा उठ रहा होता है—यह सिर्फ प्रार्थना नहीं, पीढ़ियों के भविष्य के लिए ऊर्जा-संकल्प है। ठेकुआ की खस्ता मेवाँ-सी खुशबू, गुड़ की मिठास, धूप में सूखते फल-फूल, नदी के किनारे सजी सूपियाँ—सब मिलकर एक जन-उत्सव नहीं, एक जन-उपासना रचते हैं, जहाँ हर परिवार “घर” से “समाज” और “समाज” से “मानवता” की ओर विस्तार पाता है।
क्या ही कहें मित्र -उगते सूरज की पहली किरण जब अर्घ्य के जल में सोने की लकीर बनाती है, तो लगता है जैसे आकाश स्वयं झुककर कह रहा हो—ढलना हार नहीं, रुकना नहीं; हर अस्त के बाद एक नवोदय तय है। छठ मइया आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण करें; आप सुखी रहें, समृद्ध रहें। और हाँ, यदि इस बार गाँव न जा पाए हों तो अगली बार ज़रूर जाएँ—क्योंकि माँ और माटी की पुकार अनसुनी करने से मन का कोई कोना हमेशा अधूरा रह जाता है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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