आज कार्तिक अमावस्या की वह निस्तब्ध रात्रि होगी , जब आकाश का चंद्र लुप्त हो जाएगा , दिशाएँ गहन तम में डूब जायेंगी और समस्त जगत एक क्षण को मौन प्रतीत हो रहा होगा — तभी भारतभूमि दीपों की अनगिन पंक्तियों से उज्ज्वल हो उठेगी । यही विरोधाभास इस पर्व का सौंदर्य है कि जहाँ शून्यता और अंत का संकेत होता है, वहीं से प्रकाश और नवजीवन का आरंभ होता है। अमावस्या की अंधेरी गोद से ही दीपावली का उजाला जन्म लेता है। मानो यह सम्पूर्ण संस्कृति यह कह रही हो — “तमस को मिटाने का उपाय उसे नकारना नहीं, उसमें दीप जलाना है।”
दीपावली एक सामाजिक उत्सव से बढ़कर वैश्विक चेतना में भारतीय आत्मा का प्रतीक है। इस रात्रि को भारतवर्ष में जितनी श्रद्धा से मनाया जाता है, उतनी ही विविधता से भी,उतने ही समर्पण से । वैष्णव परंपरा में यह दिन श्रीराम के अयोध्या आगमन का, मर्यादा और धर्म की पुनर्स्थापना का प्रतीक है। जैन परंपरा में यही वह दिवस है जब भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया — अतः दीपों का प्रज्वलन ज्ञानज्योति का प्रतीक बन गया। शैव दृष्टिकोण से यह कालरात्रि शिव की ज्योति के जागरण की रात्रि है, और शाक्त परंपरा इसे महालक्ष्मी के प्राकट्य का पर्व मानती है — वह लक्ष्मी जो केवल धन नहीं, अपितु सौंदर्य, संतुलन और समरसता की अधिष्ठात्री हैं। आर्य और वैदिक काल की परंपराएँ इसे ऋतु परिवर्तन, कृषि वर्षारंभ और नवसंवत्सर के संकेत के रूप में देखती रही हैं। इस प्रकार यह एक ऐसा उत्सव है जिसमें सभी संप्रदायों के प्रतीक एक साथ आलोकित होते हैं।
दीपावली का दार्शनिक अर्थ इससे भी गहरा है। उपनिषद् की वाणी “तमसो मा ज्योतिर्गमय” इसी चेतना का उद्घोष करती है — कि मनुष्य अपने भीतर के अंधकार, अज्ञान और अहंकार से उठकर विवेक, सत्य और करुणा की ओर चले। दीपक जब रोशन होता तो वह केवल बाहरी घर आँगन की दीवार नहीं, हृदय की तिमिरतम गुफाओं को भी आलोकित करता है। उसका तेल श्रद्धा है, बाती साधना है और ज्योति स्वयं ज्ञान है। यही कारण है कि दीपक की लौ को सदैव ऊर्ध्वगामी दिखाया गया — जैसे मनुष्य की चेतना का लक्ष्य भी ऊर्ध्व दिशा में ही है।
महालक्ष्मी की आराधना दीपावली की आत्मा है। किन्तु यह पूजन केवल धनसंचय का अनुष्ठान नहीं, अपितु धन के शोधन का संस्कार है। लक्ष्मी का वास्तविक अर्थ है — वह ऊर्जा जो संतुलन और सौंदर्य रचती है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।” जहाँ लक्ष्मीस्वरूपा नारी, करुणा, सहिष्णुता और सृजनशीलता का आदर होता है, वहीं स्थायी समृद्धि निवास करती है। दीपावली हमें स्मरण भी कराती है कि समृद्धि का प्रथम सोपान सदाचार है, और धन की सार्थकता तभी है जब वह दान और सेवा में रूपांतरित हो।
एक दीपक में ही ब्रह्मांड का पूरा तत्त्वशास्त्र समाया है — मिट्टी का पात्र पृथ्वी तत्व है जो स्थिरता देता है, तेल जल तत्व है जो प्रवाह का प्रतीक है, लौ की अग्नि तेज तत्व है जो चेतना जगाती है, लौ का कंपन वायु है जो प्राण का संचार करता है, और दीप के चारों ओर फैला आकाश उस अनंतता का बोध कराता है जिसमें यह सब विलीन होता है। दीपक जलाना केवल अंधकार मिटाने की क्रिया नहीं, पंचतत्त्वों के संतुलन की साधना है। यही योग का व्यावहारिक रूप है — जहाँ बाह्य कर्म के माध्यम से आंतरिक समरसता स्थापित होती है।
दीपावली का सामाजिक आयाम भी उतना ही व्यापक है। यह वह एक पर्व है जो धर्म, जाति, भाषा और प्रदेश की सीमाओं से परे जाकर एक सांस्कृतिक एकता का भाव जगाता है। हर घर में दीप जलता है, चाहे वह महल हो या झोपड़ी; हर चेहरे पर उजाला झलकता है, चाहे वह व्यापारी का हो या किसान का। यह केवल प्रकाश का पर्व नहीं, सहभागिता और साझेपन का पर्व है — जहाँ अन्न, अनुग्रह और आनंद एक साथ अनुभव होते हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से भी दीपावली का प्रभाव मनोशुद्धिकारी है। सफाई और सजावट के अनुष्ठान बाहरी और भीतरी डिटॉक्स का प्रतीक हैं। जब घर स्वच्छ होता है तो मन भी हल्का होता है, और जब मन उज्ज्वल होता है तो जीवन में लक्ष्मी — अर्थात शांति — का आगमन होता है। दीपावली आव्हान कर रही है हम सभी का..आओ इस पर्व का सच्चा अर्थ जानें- सच्चा उत्सव बाह्य शोर में नहीं, आंतरिक मौन में है — जहाँ मनुष्य अपने भीतर की मलिनताओं को जलाकर नया बनता है।
दीपक स्वयं जलता है, पर प्रकाश सबको देता है। यही त्याग ही उसका सच्चा उत्सव है। दीपावली हमें यह प्रेरणा देती है कि जब चारों ओर अंधकार फैला हो, तब किसी और की प्रतीक्षा न करें — स्वयं दीप बनें। क्योंकि जो स्वयं जलना जानता है, वही दूसरों का मार्ग आलोकित कर सकता है। यही आत्मदीपकत्व का संदेश है — कठोपनिषद् कहता है — “तमसो मा ज्योतिर्गमय” — अर्थात् “मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल।” यह पंक्ति दीपावली का दार्शनिक सार है। मनुष्य का “अंधकार” अज्ञान है, अहंकार है, लोभ है। और उसका “प्रकाश” विवेक, सत्य और करुणा है।
इस अमावस्या की रात्रि में पहला ,दूसरा और इस तरह अनगिनित दीपक प्रज्वलित होंगे , बस ऐसा लगना चाहिए जैसे ब्रह्मांड ने कहा हो — “अब अंधकार का अंत निकट है।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
मेरी व्यंग्यात्मक पुस्तकें खरीदने के लिए लिंक पर क्लिक करें – “Girne Mein Kya Harz Hai” और “Roses and Thorns”
Notion Press –Roses and Thorns
संपर्क: [email protected]
YouTube Channel: Dr Mukesh Aseemit – Vyangya Vatika
📲 WhatsApp Channel – डॉ मुकेश असीमित 🔔
📘 Facebook Page – Dr Mukesh Aseemit 👍
📸 Instagram Page – Mukesh Garg | The Focus Unlimited 🌟
💼 LinkedIn – Dr Mukesh Garg 🧑⚕️
🐦 X (Twitter) – Dr Mukesh Aseemit 🗣️
Happy fiwlai