“आदमी और कुत्ते की आवारगी”
गली कूंचों में अनाथ घूम रहे कुत्तों पर आजकल अदालतें भी फरमान जारी करने लगी हैं। खासकर उन कुत्तों पर जिन्हें कुत्ता प्रेमी ,कुत्ता मानने से इन्कार कर चुके हैं l कुत्ता और डोगी में फर्क है l कुत्ता पूरा कुत्ता होता है ,डोगी एक अभिजात्य वर्ग का कुलीन खानदानी ,’जग में नाम रोशन करने वाला राज दुलारा l’ जैसे आवारा पार्क की हुई गाड़ियाँ जबरन उठाये जाने के लिए ट्रैफिक पुलिस ने निजी ठेक उठवा दिए हैं ,यही हश्र अब इन ‘कुत्तों के उठावने’ का का होगा l कुत्ता प्रेमियों से निवेदन है की अपने अपने गूदड़ी के लालों को सात तालों में बंद रखे ,गिद्द की सी नजर रहेगी इन उठाने वालों की l लगाम कसने की तैयारी है—कुत्तों के लिए आश्रय गृह खोले जा रहे हैं, राहत स्थल तय हो रहे हैं, यहाँ तक कि कच्ची बस्तियों में भी बसाया जा सकता हैं।एक होमली सा वातावरण इन्हें सरकार देना चाहेगी l हो सकता है आगे चलकर इनके वैद कागजात भी बन जाएँ ,इन्हें देश के जागरूक मतदाता सूची में शामिल कर लें । मगर सवाल यह है—कैसे तय होगा कि एक कुत्ता कितना ‘कुत्ता’ है?
आजकल तो कुत्तापन, कुत्तों में भी दुर्लभ-सा हो गया है। शायद यही वजह है कि अदालत ने संज्ञान लिया है। कुत्ते का काटना तो माफ किया जा सकता है, मगर कुत्ते ने अगर इंसान जैसी आदतें अपना लीं—तो मामला गंभीर हो जाता है। मामला बस इतना है कि अदालत का निशाना फिलहाल कुत्तों पर है। वरना आवारगी में तो आदमी का रिकॉर्ड कहीं ज्यादा पुराना और शानदार है। आदमी की पूँछ ज़रूरत के हिसाब से टेढ़ी या सीधी—जहां लाभ दिखा, वहीं झुका दी, जहां नुकसान, वहीं तान दी। कुत्ते के लिए कानून, आदमी के लिए ‘एडजस्टमेंट’।
आवारगी और कुत्तापन—दोनों एक साथ किसी इंसान में नहीं पनप सकते। आदमी को पहले कुत्ता बनना पड़ता है, फिर आवारा… या पहले आवारा बनना पड़ता है, तब जाकर कुत्तापन आता है। मगर असली दिक्कत कुत्ते के साथ यह है कि वह आवारा और कुत्तापन दोनों एक साथ दिकहता है —और यही उसकी पोल खोल देती है।
मेरे शहर में आजकल ऐसे आवारगीपन की हदें पार कर चुके साँड़, गोडे और बैलनुमा जीव दिखाई देते हैं, जिन पर न जाने कब सरकार की नज़र पड़ेगी। फर्क बस इतना है कि ये ‘आवारा’ नहीं कहलाते, क्योंकि इनके पास काग़ज़ात हैं—जैसे शरणार्थी पासपोर्ट लेकर आते हैं। शायद सरकार एक दिन इनका भी वोटर कार्ड बनवा दे, और नेता लोग सड़क से संसद तक इनकी बसावट में सरकार मदद कर रही है—जगह, पानी, चारा… सब! नेता इन्हें देखते हैं तो आंखों में वोटों की झिलमिलाहट भर आती है।
नेताओं की बात करें तो वे भी इन कुत्तों चिढ़ते हैं। यह मामला चोरी और ऊपर से सीना-जो़री का है। असली कुत्तापन तो यह है कि जिसे देखकर कॉपी की, उस मूल स्रोत को मिटा देना ताकि कोई सबूत न बचे। और अब तो हाल यह है कि कुत्ते भी अपना कुत्तापन छोड़कर, इंसानों की तरह बर्ताव करने लगे हैं—चुपचाप, पूँछ दबाए, अपनी इज़्ज़त को किसी तरह बचाते हुए, अपनी किस्मत पर रोते हुए। शायद ये इंतज़ार कर रहे हैं कि किसी दिन किसी पार्टी या नेता का ध्यान इन पर भी पड़ जाए, इनको वोट बैंक मान लिया जाए—फिर चाहे आवारगी हो या कुत्तापन, दोनों को लोकतंत्र की पनाह मिल ही जाएगी।
दिल्ली की गलियों में इन दिनों एक अजीब-सा सन्नाटा है। पहले यह सन्नाटा तब टूटता था जब मोहल्ले का आवारा कुत्ता या मोहल्ले का आवारा आदमी—या दोनों—भौंक देते थे। फर्क बस इतना था कि कुत्ता सड़क के मोड़ पर भौंकता था, आदमी सोशल मीडिया पर।
कुत्तों ने कान हिलाए, आदमी के कान खड़े हो गए । एक फरमान ने दस संभावनाओं के द्वार खोल दिए ,आयोग,मीटिंग ,चर्चा, आंकड़े ,कुत्ता पकड़ विभाग ,कमिश्नर जिसने कुत्तापन की स्पेशल स्टडी की हो , टेंडर ,बजट, चालान ,धरपकड़ …सरकारी महकमों की पौ-बारह फट जायेगी । कुत्ता-प्रेमियों के लिए विलाप का नया अध्याय खुल गया। जिनके पास कभी कुत्ता नहीं था, वे भी सड़क पर आकर इन कुत्तों के कुत्तापन की रक्षा करने पर उतर आए हैं।
मामला सीधा है—कुत्तों की आवारगी पर लगाम लगानी है। लेकिन क्या आवारगी सिर्फ कुत्तों में होती है? आदमी तो कुत्ते से भी आगे है। फर्क बस इतना है कि कुत्ता इसीलिए कुत्ता है क्योंकि उसकी पूँछ कभी सीधी नहीं होती, और आदमी की पूँछ—जरूरत के हिसाब से टेढ़ी या सीधी हो जाती है। किसके सामने झुकानी है और किसके सामने टांगों के बीच दबानी है—यह हुनर आदमी ने सीख लिया है, कुत्तों ने छोड़ दिया है। इसलिए पहचानना मुश्किल नहीं होगा।
सोचिए, अगर मोहल्ले के निक्कू भैया, जो सुबह से रात तक गली के नुक्कड़ पर खड़े रहते हैं, व्हाट्सऐप पर फॉरवर्ड भेजते हैं, और बीच-बीच में किसी से भी “देश बचाने” पर भौंकना शुरू कर देते हैं—अगर उन्हें भी पकड़कर “मानव शेल्टर” में डाल दिया जाए? शायद तब गलियों में शांति, ट्रैफिक में जगह और फेसबुक पर सुकून मिल सके।
कुत्तों की बात करें तो उनकी आवारगी ईमानदार है—खून में रची-बसी। वे वोट नहीं मांगते, टैक्स नहीं खाते, और जिसे काटते हैं, सीधे काटते हैं—बिना बहस के, बिना प्रेस कॉन्फ्रेंस के । आदमी की काट कहीं ज्यादा खतरनाक है—वो पहले आपको पुचकारेगा ,दुलारेगा ,जीभ बाहर निकाल कर ‘हैं हैं ‘की ध्वनि ,फिर धीरे से ऐसे काटेगा की आप पानी तक नहीं मांगेंगे ।और फिर भी ज़िंदा रहे तो पांच साल तक विकास के नाम पर काटता रहेगा।
सोचिए, अगर यही आदेश आदमियों पर भी लागू हो जाए—मोहल्ले के निक्कू भैया, जो सुबह से शाम गली के नुक्कड़ पर खड़े रहते हैं, व्हाट्सऐप पर क्रांति फैलाते हैं, और बीच-बीच में “देश बचाने” पर भौंक पड़ते हैं—अगर इन्हें भी किसी “मानव शेल्टर” में डाल दिया जाए, तो गलियों में सन्नाटा, ट्रैफिक में जगह और सोशल मीडिया पर सुकून मिल जाएगा।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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