दोस्ती और उधार
दोस्ती वैसे तो अमृत जैसी मानी जाती है। लेकिन जैसे ही उसमें “उधार” की खटास पड़ जाती है, वह अमृत मंथन करते-करते कब छाछ बन जाए, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। दोस्ती अगर खूबसूरत रिश्तों की मिठास है, तो उधार उसमें डाला गया शहद है—थोड़ा हो तो स्वाद बढ़ा देता है, लेकिन ज़्यादा हो जाए तो सब कुछ चिपचिपा और गड़बड़ कर देता है।
दोस्ती कभी-कभी एक दुधारू गाय की तरह होती है। उधार का दूध समय-समय पर दुहते रहना ज़रूरी है। मगर कई लोग होते हैं जो सोने देने वाली मुर्गी को हलाल कर एक ही बार में सारे अंडे निकाल लेना चाहते हैं। यही असली मुश्किल है। वैसे उधार दोस्ती की केंची नहीं, बल्कि कहिए कि ऐसा मोह प्रेम का धागा है जो दोस्ती के रिश्ते को ज़िंदा रखता है। वरना उधार लेने वाला तो आपको कब का भूल चुका होता है—आप ही हैं जो उधारी वसूलने की डोर से बंधे रोज़ उसके दरवाज़े पर परिक्रमा करते रहते हैं।
अब ज़रा सोचिए—वह दोस्ती किस काम की जिसमें बिल चुकाने का वक्त आते ही कोई पहले बाथरूम की ओर नहीं दौड़े, कोई मोबाइल पर “अर्जेंट कॉल” अटेंड करने नहीं लगे, और कोई जेब की अंधेरी गुफ़ाओं में पुराने सिक्कों के पीछे छिपा पर्स ढूँढने नहीं लगे! ऐसी दोस्ती ,दोस्ती कम और औपचारिकता ज़्यादा लगती है। हाँ ,यह सब आप नहीं देखेंगे जब दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाए—जैसे कि दोस्त अपनी बहन की शादी उसी हरामी दोस्त के यहाँ कर दे—मतलब की दोस्ती का इससे ज्यादा बुरा सिला और क्या दिया जा सकता है , यह रिश्ता अब जीवन भर की जद्दोजहद का पैकेज बन चुका है।
आपने नोटिस किया होगा, दोस्त की गलती अगर सिर्फ़ टिकट गलत तारीख़ की बुक करना हो, तो सत्तर हज़ार का नुकसान भी हँसकर सहन कर लिया जाता है। दोस्त कोई “वन-टाइम फ्रूट” नहीं होता; यह तो पूर्णकालिक पारिवारिक सब्सक्रिप्शन है—“सदा के लिए, शर्तें लागू।” पर जैसे ही रिश्ते में पैसा घुसा, उसका यूज़र मैन्युअल अचानक बदल जाता है। पहले वही यार जो आपकी दुकान पर चाय पिएगा, माँ का हाल पूछेगा, और आपका दुख बाँटेगा—वही अचानक आपकी क्रेडिट कार्ड लिमिट पर हाथ साफ़ कर देता है। छुट्टियाँ तो गईं ही, दोस्ती भी “नो रिफंड–नो रिटर्न” स्कीम में फँस गई।
दोस्ती भी लेवल प्लेयिंग खेल है। सामने वाला अपने गिरे हुए स्तर तक पहले आपको खींचता है। आप भी उसके गिरे स्तर पर द्रवित होकर कह देते हैं —“कभी पैसों की ज़रूरत पड़े तो बता देना।” और हफ़्ते भर में सचमुच उसकी ज़रूरत आ जाती है। आप ढाई लाख ट्रांसफ़र कर देते हैं, और पत्नी आपके मोबाइल में बैंक अलर्ट देखकर समझ जाती है कि बचपन की दोस्ती अब बचपन की गलती साबित होने वाली है।
दोस्ती निभाने के लिए कई बार विशेषज्ञ अभिनय की ज़रूरत होती है। आप नम्रता और रणनीति का मिश्रण बनकर दोस्त के घर पहुँचते हैं—दिल में कर्ज़ की फाइल और हाथ में मिठाई का डब्बा लेकर। लौटते समय जेब हल्की हो सकती है, लेकिन चेहरा भारी—क्योंकि आपने दोस्ती तो बचा ली। मगर एक दिन मन में सवाल उठता है—क्या मैं हमेशा वही गलती क्यों करूँ? क्या दोस्त की “कस्टमर केयर” में मेरा नाम सिर्फ़ “इमरजेंसी डोनर” के रूप में दर्ज है?
पैसा वापस माँगने की तकनीक भी आध्यात्मिक और कूटनीतिक हो जाती है। सीधे माँगो तो शर्मिंदगी, पर “गुड मॉर्निंग” भेजो तो सूक्ष्म दबाव। हर सुबह का सुप्रभात जैसे कहता हो—“भाई, मैं जिंदा हूँ, और मेरे पैसे भी जिंदा हैं!” इस गुड मॉर्निंग रिप्लाई का इंतज़ार आप अपने पहले क्रश के “हम्म्म…” से भी ज़्यादा करते हैं।
उन संदेशों के पीछे का मनोविज्ञान बड़ा सुंदर है। आप मित्रता के बहाने आर्थिक अनुरोध को खेत की तरह बोते हैं—अगर अंकुरित हो जाए तो ठीक, न हो तो भी आपका दोस्ती का चेहरा बचा रहे। फिर एक दिन दोस्त का निमंत्रण आता है—“भाई, माता का जागरण है, ज़रूर आना।” या “गृह प्रवेश रखा है।” आप जाते हैं, सत्कार करवाते हैं, छप्पन भोग खाते हैं। लौटते वक्त सोचते हैं—काश! ढाई लाख में से बीस हज़ार की ही किस्त चुकता कर देता।
और जब अचानक खबर मिले—“दोस्त अंडरग्राउंड हो गया है”—तो समझिए खेल खत्म। अब आप जैसे लुटे–पिटे अठारह लोगों का नया व्हाट्सऐप ग्रुप बनता है—सभी एक ही दुकान से ठगे गए ग्राहक। ग्रुप में भावनात्मक समर्थन खूब चलता है, लेकिन जब रिकवरी की तरकीबों के धडाधड इनोवेटिव तरीके ग्रुप में साझा होते हैं , तो उनमें से अब कुछ आपदा में अवसर की तरह ग्रुप में ही “भावनाओं के कर्ज़” का ब्यौरा देने लगते हैं। कभी रोकर, कभी विनती करके, कभी बस “भाई, ज़रूरत पड़ गई” लिखकर, और यह उधारी का चक्र चलता रहता है।
मोरल: दोस्ती अच्छी है—लेकिन पैसे देते वक्त उसे “उदारता” मानिए, “अंधश्रद्धा” नहीं। दोस्ती के बाज़ार में उधार हमेशा “subjected to market risk” होता है। कृपया पैसे देने से पहले दोस्ती की “terms and conditions” ध्यान से पढ़ लें।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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