आज गीता जयंती है—वह पवित्र दिन जब हम कुरुक्षेत्र की धूल में जन्मे उस ज्ञान की ओर लौटते हैं, जिसने मनुष्य के भ्रम, भय और दुविधाओं को सदियों से प्रकाश की ओर मोड़ा है। संसार में कितनी ही किताबें लिखी गईं, कहीं कानून दर्ज हुए, कहीं दर्शन, कहीं इतिहास—परंतु ऐसा बहुत कम होता है कि किसी युद्धभूमि में, मृत्यु और संकट के बीच कोई ग्रंथ जन्म ले और मानवता का शाश्वत मार्गदर्शक बन जाए। श्रीमद्भगवद्गीता केवल शब्दों का संग्रह नहीं; यह चेतना का वह संक्षिप्त, तीक्ष्ण और जीवनदायी स्रोत है, जिसमें पूरा वन, पूरा संसार एक बूँद में समा गया हो। इसी अद्भुत जन्मक्षण की स्मृति को सनातन धर्म गीता जयंती के रूप में मनाता है।
कुरुक्षेत्र की वह सुबह आज भी मानो आंखें बंद करते ही जीवंत हो उठती है। शंखों की ध्वनि, रथों की गर्जना, हवा में बारूद-सी घुली अनिश्चय की गंध… और उन्हीं के बीच खड़ा अर्जुन—एक योद्धा, पर उससे भी पहले एक मनुष्य। अपने ही सगे-संबंधियों को शत्रु की तरह सामने देखकर उसके हाथ कांप उठते हैं। जिस गांडीव से उसने विजय के अनगिनत स्वप्न देखे थे, वही आज उसके हाथों में सीसा बन चुका था। सबके लिए रणभूमि थी, पर अर्जुन के लिए यह मन की रणभूमि बन गई थी—जहाँ वह युद्ध से नहीं, अपने ही भीतर उठे प्रश्नों से पराजित हो चुका था। और ठीक इसी दोपहर, जब संसार थम-सा गया था, जब धूल और भ्रम के बीच एक योद्धा टूट रहा था, तभी स्वयं योगेश्वर कृष्ण, सारथी के रूप में खड़े होकर वह ज्ञान प्रकट करते हैं, जिसने न केवल अर्जुन को, बल्कि पूरी मानवता को संभाला।
कहते हैं कि ग्रंथ शांति में जन्म लेते हैं, पर गीता युद्ध में जन्मी। तनाव, मोह, शंका और निराशा की आग में तपकर जो ज्ञान निकला, वह इसीलिए आज भी अटूट है—मानव मन से सीधा संवाद करता है। कृष्ण का वचन—“कर्मण्येवाधिकारस्ते…”—सिर्फ अर्जुन के लिए कहा गया वाक्य नहीं था। वह हर उस व्यक्ति का उत्तर था जो जीवन की दुविधाओं में खड़ा है, जिसे आगे का रास्ता नहीं दिखता, जिसे भय बांधे हुए है। इस संवाद को व्यास ने बाद में संकलित किया, पर उसका जन्म तो इसी क्षण, इसी रणभूमि में हुआ—नंदीघोष रथ पर, तब जब मनुष्यता सबसे ज्यादा कांप रही थी।
गीता जयंती मनाने की परंपरा इसलिए अद्वितीय है कि दुनिया के किसी भी धर्म में ग्रंथ का “जन्मदिन” नहीं मनाया जाता। सनातन धर्म केवल पढ़ने की बात नहीं करता—वह जीने की बात करता है। गीता का हर अध्याय मनुष्य के किसी न किसी प्रश्न का उत्तर है। कहीं आत्मा की अमरता है, कहीं ज्ञान का मर्म, कहीं भक्ति का रहस्य, कहीं कर्म का धर्म—और अंतिम अध्याय में तो जैसे मानव जीवन का सम्पूर्ण लेखा-जोखा रख दिया गया है। कौन-सा कर्म उपयुक्त है, कौन-सा त्याग उचित है, संकट में मनुष्य किसे पकड़कर खड़ा रहे—इन सबका सार स्वयं कृष्ण ने अपने मुख से दिया, वह भी तब जब सामने खून, रिश्ता, कर्तव्य और मृत्यु का घना जाल फैला था।
आज के समय में जब मनुष्य का कुरुक्षेत्र बदल गया है—रथों की जगह ऑटोमोबाइलें हैं, शंख की जगह मोबाइल की बजती सूचनाएँ, युद्ध की जगह रोज़मर्रा की छोटी-बड़ी पीड़ाएँ—परंतु मनुष्य की दुविधाएँ, भय और मोह आज भी वही हैं। कोई छात्र करियर के मोड़ पर अर्जुन है, कोई पिता परिवार की चिंता में, कोई व्यापारी संकट में, डॉक्टर समाज के दवाब में, कोई साधारण गृहस्थ अपनी जिम्मेदारियों में—हर व्यक्ति अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहा है। और कृष्ण का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है: “डरो मत। रुको मत। कर्म करो। फल की चिंता मत करो।” चिंता मन का शत्रु है, कर्म उसका धर्म।
गीता जयंती इसलिए केवल उत्सव नहीं, आत्मा की पुनर्स्मृति है। इस दिन लोग गीता का पाठ करते हैं, श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं, भजन गाते हैं, कुछ उपवास रखते हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण है—गीता के ज्ञान को जीवन में उतारने का संकल्प। महर्षि शिवानंद कहते थे—“गीता पढ़ने की नहीं, जीने की पुस्तक है।” और शायद यही वह वाक्य है जो बताता है कि गीता जयंती क्यों मनाई जाती है—क्योंकि यह याद दिलाती है कि इस कलिकाल में जब गुरु दुर्लभ हैं, सत्य अक्सर धुंधला है, और मनुष्य लगातार विचलित—तब कृष्ण का उपदेश ही वह दीपक है जो राह दिखाता है।
हम सब किसी न किसी रूप में अर्जुन हैं। हम सब कहीं न कहीं कुरुक्षेत्र में खड़े हैं। और गीता ही वह सारथी है जो हर युग में, हर मनुष्य से कहती है—“उठो, अपने धर्म पर डटे रहो, अपने कर्म को पहचानो; यही जीवन का मार्ग है।”

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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