घास भैरू महोत्सव — लोक आस्था का रहस्यमय उत्सव
राजस्थान के बूंदी जिले की धरती अपने लोकविश्वासों और परंपराओं के लिए जानी जाती है। यहाँ हर त्यौहार में एक ऐसी जादूगरी रची-बसी है जो सिर्फ़ देखी नहीं जाती, बल्कि महसूस की जाती है। दीपावली की चमक उतरने के दो दिन बाद, जब बाकी जगहों पर दीये बुझ चुके होते हैं और त्योहारों की थकान बस रही होती है, बूंदी के गाँव—ठिकरदा, बड़ौदिया, सथूर, और हिण्डोली—एक बार फिर जगमगा उठते हैं। यह जागरण किसी धार्मिक विधान का नहीं, बल्कि लोकदेवता घास भैरू के प्रति समर्पित उस अद्भुत उत्सव का है जिसे लोग पूरे साल प्रतीक्षा करते हैं—घास भैरू महोत्सव।
भाईदूज के दिन आयोजित यह महोत्सव लोक आस्था, जादू, कला और सामाजिक चेतना का उत्सव है। बूंदी की सर्द हवा में उस दिन ढोलक-मंजीरे की ध्वनि, घंटियों की झंकार और लोगों की हँसी मिलकर ऐसा वातावरण बनाती है कि लगता है जैसे कोई रहस्यमय नगर सांस ले रहा हो। घास भैरू यहाँ के लोकदेवता हैं—खेती के रक्षक, बैलों के संरक्षक, और मेहनतकश जीवन के प्रतीक। इसलिए इस दिन बैलों को सजाया जाता है, उनके माथे पर सिंदूर, गले में घंटियाँ और सींगों पर रंग-बिरंगे कपड़े बाँध दिए जाते हैं। इन सजे हुए बैलों को पूरे गाँव में परिक्रमा कराई जाती है, और उनके पीछे रस्सियों से बंधा एक पत्थर चलता है, जिसे देवता का प्रतीक माना जाता है।
जब सवारी निकलती है, तब हर गली एक जीवंत कथा सी लगती है। कहीं कोई व्यक्ति सिर कटा दिखाई देता है, तो कहीं कोई ज़मीन में समाधि लिए बैठा है। कोई नुकीले काँटों पर नृत्य कर रहा है, तो कोई साँप-बिच्छुओं के साथ खेलता नज़र आ रहा है। दर्शक विस्मित हो उठते हैं—यह जादू है या चमत्कार? लेकिन जो जानते हैं, वे मुस्कुराकर कहते हैं—यह बूंदी की लोककला है, यह हाथ की सफाई और परंपरा की रचनात्मकता का सम्मिलन है।
इन करतबों की हैरत देखने लायक होती है। पुरानी बावड़ियों में पत्थर पानी पर तैरते दिखाई दे जायेंगे , ट्रैक्टर और मोटरसाइकिलें काँच के गिलासों पर खड़ी हुई मिल जायेंगी , कहीं आपको हवा में लटकती साइकिलें मिल जायेंगे जो आपको किसी थ्रिल्लिंग मूवी से कम रोमांच देने वाली नहिओ है । एक छोटी बच्ची काँच के टुकड़ों पर नंगे पाँव चलती दिख जायेगी , पूरी भीड़ सांस रोकती हुई इन करतबों से विस्मित । यह सब किसी आधुनिक तकनीक से नहीं, बल्कि ग्रामीण बुद्धि और संतुलन की विलक्षण कला का प्रदर्शन है। यही तो इस महोत्सव का जादू है—जो भौतिकता से परे, सीधे विश्वास और श्रद्धा की जड़ तक पहुँच है।
घास भैरू महोत्सव सिर्फ चमत्कारों का मंच ही नहीं मानिए , यह लोकचेतना का विद्यालय भी है। सम समायिक सामाजिक मुद्दों को लेकर भी यह त्यौहार काफी सजग है l अब आपको “बाल विवाह मत करो” जैसी झांकी दिख जायेगी । मिट्टी से बने बाल दूल्हा-दुल्हन और उनके बीच बैठा एक छोटा बच्चा—यह दृश्य मौन होकर भी बहुत कुछ कह जाने वाला है । अन्य झांकियों में नशा-मुक्ति, महिला सशक्तिकरण और शिक्षा जैसे विषयों को स्थानीय गीतों, नृत्यों और हास्य-व्यंग्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है । यह देखना अद्भुत है कि कैसे एक ग्रामीण उत्सव समाज के सबसे गंभीर मुद्दों पर मुस्कान के साथ संवाद करते है।
सांझ ढलते ही जब ढोलों की थाप बढ़ती है, तब पूरा गाँव एक जीवंत नाट्यशाला में बदल जाता है। बच्चे, युवा, बुजुर्ग—सभी अपने अपने किरदार निभाते हैं। कोई शराबी बनकर ठुमकता है, कोई पति-पत्नी के रूप में लोकगीत गाता है। मंच नहीं होता, पर हर गली मंच बन जाती है, और दर्शक अनायास ही अभिनय का हिस्सा बन जाते हैं । यही है लोकजीवन की सच्ची लोकतांत्रिकता—जहाँ हर कोई कलाकार है और हर कोई दर्शक।
भाईदूज पर बैलों की पूजा एक धार्मिक ही नहीं दार्शनिक अर्थ भी देती है । बैल भारतीय किसान के श्रम, धैर्य और समृद्धि के प्रतीक हैं। जब वे घास भैरू की सवारी के साथ पूरे गाँव की परिक्रमा करते हैं, तो यह आस्था और कृषि का अद्भुत संगम जैसा दीखता है। माना जाता है कि इससे देवता प्रसन्न होकर गाँव को रोग, अकाल और विपत्तियों से मुक्त रखते हैं।
सिर पर कलश लिए महिलाएँ गीत गाती हैं, बैलों की घंटियाँ लय बनाती हैं, और आस्था पूरे गाँव को एक सूत्र में बाँध देती है।
कहते हैं यह परंपरा सैकड़ों वर्षों पुरानी है। संभवतः इसकी शुरुआत फसल के मौसम से जुड़ी किसी ग्रामीण धार्मिक आस्था से हुई होगी—जब किसान देवता से अपनी भूमि की सुरक्षा और पशुधन की वृद्धि की कामना करते थे। धीरे-धीरे इसमें मनोरंजन, जादू और कलात्मकता जुड़ती चली गई, और अब यह बूंदी की पहचान बन चुका है—एक ऐसा उत्सव जो न इतिहास में कैद होता है, न भविष्य में खत्म।अच्छा लगता है यह सब देखकर ,आज के इस जमाने में जब लोक परम्पराएं विलुप्त सी हो रही है ,बूंदी के इन गाँवों ने कम से कम इन्हें जीवित रखा है l
घास भैरू महोत्सव को देखना मानो किसी रहस्यमय स्वप्न में प्रवेश करने जैसा ही है । यह एक ऐसा अनुभव है जहाँ लोकभक्ति, कौशल और कल्पना एक साथ नृत्य करती हैं। यहाँ विज्ञान और विश्वास के बीच की रेखा धुँधली हो जाती है, और जो बचता है वह है—अद्भुतता का सौंदर्य।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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