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व्यंग्य का वैश्विक और हिंदी साहित्यिक परिप्रेक्ष्य

A flat-vector illustration of a large round table split into two symbolic halves: the left side representing Western satire with elements like a quill, Victorian chair, Orwellian dystopian city silhouette, a floating island inspired by Swift, and a whimsical rabbit-hole swirl; the right side representing Hindi satire with a desi inkpot, wooden chair, typewriter, tea-stall ambience, loudspeaker, broken slippers, and a crowded bazaar outline. Two human silhouettes—one in Western attire and one in Indian kurta—stand at opposite sides of the table, smiling in a reflective, humorous way. Background features subtle beige texture with soft mandala and scroll-like patterns. No text in the image.

व्यंग्य का वैश्विक और हिंदी साहित्यिक परिप्रेक्ष्य

मैं इन दिनों यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि व्यंग्य का संसार कितना विस्तृत है—सीमा पार करें तो कैसा है, और अपनी हिंदी में उसका रूप-रंग कैसा रहा है। यह खोज जब पश्चिमी साहित्य और हिंदी साहित्य को एक ही मेज़ पर बैठाकर देखने लगती है तो कई दिलचस्प बातें सामने आती हैं। पश्चिम के साहित्य में लेविस कैरोल की अबूझ तुकबंदियाँ हैं, एल्डस हक्सले की चेतावनियाँ हैं, जॉनथन स्विफ्ट की तीखी क्रूरता है, जॉर्ज ऑरवेल का भयावह यथार्थ है, और जेन ऑस्टेन की मुस्कुराती हुई चुटकियाँ हैं—हर लेखक अपने ढंग से मानव समाज की मूर्खताओं का पोस्टमार्टम करता दिखता है।

जेन ऑस्टेन का संसार ही ले लीजिए—जहाँ विवाह, धन, वर्ग, नैतिकता, घर-परिवार और सामाजिक व्यवहार हर पन्ने पर किसी न किसी रूप में कटाक्ष का लक्ष्य बनते हैं। Pride and Prejudice में अहंकार और पूर्वाग्रह इतराते फिरते हैं, Sense and Sensibility में भावुकता और तर्क आपस में कुश्ती लड़ते हैं, Emma में ऊँचे घराने की लड़की अपने दिमाग का घमंड लेकर चलती है और Northanger Abbey में नकली रोमांचकता पर हल्का-फुल्का ठहाका मिलता है। दूसरी ओर ऑरवेल की Animal Farm और 1984 सत्ता की विसंगतियों को लहूलुहान कर देती हैं, और जोसेफ़ हेलर का Catch-22 युद्ध और नौकरशाही की बेहूदगी को नंगा करके छोड़ देता है।

पश्चिम में आलोचकों ने व्यंग्य को तीन बड़े स्वभावों में बाँट रखा है—कहीं वह धीरे से मुस्कुराता है, कहीं क्रोध से चीखता है, और कहीं उन विचारधाराओं का भंडाफोड़ करता है जिन्हें हम पवित्र मानते रहे हैं। हास-परिहास वाले व्यंग्य में अपनापन है, तीखे प्रहारवाले व्यंग्य में आक्रोश है, और विचारधारात्मक व्यंग्य में एक दार्शनिक बेचैनी है जो पाठक की नींद उड़ा देती है।

हिंदी साहित्य के पास भी व्यंग्य का उतना ही बड़ा खजाना है, बस हमारी मिट्टी की खुशबू अलग है। यहाँ शरद जोशी अपनी मुस्कराती हुई वाक्य-मुद्राओं से रोजमर्रा की बेवकूफियों को पकाते हैं, परसाई सामाजिक और राजनीतिक पाखंड की हड्डियाँ तोड़ते हैं, ज्ञान चतुर्वेदी उपभोक्तावाद और सत्ता की गंदगी को medical precision से चीरते हैं। काका हाथरसी उस हँसी को सामने लाते हैं जो भीतर की कड़वाहट को चुटकुलों में भिगोकर हल्की कर देती है, जबकि कबीर उलटबाँसियों में संसार के भ्रमों को आधे शब्दों में उघाड़ जाते हैं।

हिंदी में व्यंग्य के रूप इतने विविध हैं कि वह निबंध में भी है, कविता में भी, उपन्यास में भी, नाटक में भी, और अब कार्टून, स्टैंड-अप और सोशल मीडिया के मीम्स में भी। उसके विषय कभी सत्ता होती है, कभी समाज, कभी धर्म-अंधविश्वास, कभी बाजार, कभी लेखक-समुदाय की अपनी ही विडंबनाएँ। उसका स्वर कभी रसोई की खिलखिलाहट जैसा कोमल होता है, कभी सड़क के गड्ढों पर टूटते स्कूटर जैसा कड़वा। कभी संकेतों में बोलता है, कभी सीधे-सीधे गुस्सा होकर।

अगर पश्चिम में ऑस्टेन, स्विफ्ट और ऑरवेल मुस्कुराते-गुस्साते-टटोलते हुए समाज को खँगालते हैं, तो हिंदी में परसाई, शरद जोशी और चतुर्वेदी उसी परंपरा के देसी अवतार हैं। जहाँ स्विफ्ट की क्रूरता है, वहाँ परसाई की तिक्त मुस्कराहट मिलती है। जहाँ ऑस्टेन की सूक्ष्म चुटकियाँ हैं, वहाँ शरद जोशी की महीन विडंबना है। जहाँ हक्सले और कैरोल विचारों और भाषा की संरचनाओं को सताते हैं, वहाँ चतुर्वेदी उसी प्रकार हमारे सामाजिक ढाँचे को हिला देते हैं।

इन दोनों संसारों को साथ रखकर देखें तो पता चलता है कि व्यंग्य की जड़ें भाषाओं में नहीं, मनुष्य की आदतों में गड़ी होती हैं। समाज कहीं भी हो—उसकी विसंगतियाँ समान होती हैं। सत्ता जहाँ भी हो—उसमें पाखंड पनपता है। मनुष्य जहाँ भी है—वह गलती, लालच, दिखावा और मूर्खता से मुक्त नहीं। इसलिए व्यंग्य हर भाषा में उत्पन्न होता है, हर साहित्य में विकसित होता है और हर समाज को आईना दिखाता है।

मेरी यह खोज अभी जारी है। मैं यह समझना चाहता हूँ कि हिंदी व्यंग्य-जगत को भी क्या इन्हीं वैश्विक श्रेणियों में रखा जा सकता है—क्या हमारे यहाँ हल्के चुटकी वाले व्यंग्य, तीखे कटाक्ष वाले व्यंग्य और विचारधारात्मक व्यंग्य अलग-अलग धाराओं के रूप में दिखाई देते हैं? मुझे लगता है कि हाँ—पर इस विचार को स्थापित आलोचकों की स्वीकृति की जरूरत है। अंततः व्यंग्य एक ऐसी विधा है जो सीमाएँ तोड़ती है—वह वैश्विक भी है और स्थानीय भी, देहात की चौपाल से लेकर विश्व-साहित्य के मंच तक समान रूप से मान्य।

व्यंग्य का असली सौंदर्य यही है कि वह हँसते-हँसते सच बोल देता है—और यही सच दुनिया की हर भाषा को एक अदृश्य धागे से जोड़ देता है।

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