भाग १
कृष्ण-कथा की असंख्य लीलाओं में गोवर्धन-लीला एक अद्भुत पाठशाला है—जहाँ ईश्वर स्वयं निर्देशक हैं, स्क्रिप्ट-राइटर भी वही हैं, और पात्रों की चूकें भी उनकी करुणा की बड़ी योजना का हिस्सा बन जाती हैं। भागवत के विस्तार में देखें तो दसम स्कंध के नब्बे अध्यायों में से चालीस वृंदावन-लीलाओं को समर्पित हैं, और उन्हीं में चार अध्याय गोवर्धन-लीला के हैं—पूजा, पर्वत-उद्धारण, ब्रजवासियों की विस्मय-भरी चर्चा, और अंत में इंद्र-स्तुति एवं क्षमा। कथा की धुरी सरल है—इंद्र का गर्व, कृष्ण का करुणा-मय हस्तक्षेप, और भक्त-समाज की सामूहिक रक्षा—पर इसके भीतर दर्शन, साधना और मनोविज्ञान का पूरा व्याकरण धड़कता है। सबसे पहले तो कृष्ण अपने वचन—“भक्तों की रक्षा करूँगा”—को प्रत्यक्ष कर दिखाते हैं। वे चाहें तो सुदर्शन से बादलों को रोक दें, वनाग्नि की तरह जलप्रलय भी निगल लें, पर वे गिरिराज को उठाते हैं ताकि भक्त-भक्तवत्सल भगवान की एक और सुंदर आदत जगजाहिर हो—वे अपने सेवकों को श्रेय देना पसंद करते हैं। जैसे कुरुक्षेत्र में विजय का श्रेय अर्जुन को, जैसे रामायण में महिमा का श्रेय हनुमान को, वैसे ही यहाँ सुरक्षा का यश गिरिराज को—यही कारण है कि गोवर्धन को हरिदास-वर्य कहा गया, हरिदासों में भी श्रेष्ठ सेवक, क्योंकि सेवक वही श्रेष्ठ जो सेवा में आनंद लेता है; जिनकी देह पर गोपाल, गोप, गायें, स्वयं श्यामसुंदर चलें तो आनंद और भी बढ़े।
यह लीला भक्तों की निज-इच्छा की पूर्ति का माध्यम भी है। गोपियाँ सूर्य-पूजन इसीलिए करतीं कि सूर्य शीघ्रास्त हो, चंद्र उगे और कृष्ण गोचार से लौट आएँ; गोपाल बालक चंद्र-पूजन इसीलिए करते कि भोर जल्दी हो और वे फिर कृष्ण के साथ वन में निकलें। भगवान मनोमय हैं—सबके हृदय का स्पंदन जानते हैं—सो सात दिन-सात रात का अटूट सान्निध्य रचते हैं, ताकि “विरह” के एक-एक काँटे को “मिलन” की रेशमी पट्टी से बाँध दें। साथ-साथ वे एक और सूत्र खोलते हैं—देवपूजा का मोह नहीं, “मामेकं शरणं व्रज” का निश्चय। गिरिराज की पूजा वस्तुतः कृष्ण-पूजा ही है—कृष्ण और गोवर्धन में भेद नहीं; यहाँ वे भक्त-भाव से प्रकट हैं, जैसे चैतन्य महाप्रभु भगवत्-स्वरूप होते हुए भी भक्त-रूप से अवतीर्ण हुए।
इधर इंद्र का प्रसंग हमारे भीतर के साधक के लिए आईना है। देवता भी च्युत हो सकते हैं—ईर्ष्या, मान और “मुझे क्यों नहीं पूछा?” जैसी सूक्ष्म वासनाएँ बुद्धि को ढँक लेती हैं। पाँच ग्राम मिट्टी पन्द्रह लीटर खीर को अखाद्य बना दे—यह उपमा बताती है कि थोड़ी-सी दूषिता कितना अनर्थ कर सकती है। अनुकूल परिस्थितियों में सब भक्त दिखते हैं; परीक्षा तब होती है जब अपमान, उपेक्षा और उकसावे की आँधी चले। वही समय बताता है कि भीतर की बाउंड्री कहाँ है—देवता अपनी मर्यादा नहीं लाँघते, असुर मर्यादाभंग करते हैं; साधक की पहचान भी इसी रेखा पर टिकती है। इसी संदर्भ में वह चुटीली पर सटीक कथा याद आती है—बीरबल ने बहुभाषी पंडित की मातृभाषा तब पकड़ी जब उसने अँधेरे में अचानक जल फेंकने पर स्वाभाविक गाली उसी भाषा में दी—उत्तेजना में निकलने वाला पहला शब्द हमारी असली परत खोल देता है। इंद्र की उत्तेजना भी वैसी ही है—यज्ञ-अधिकार छिन गया, सम्मान घटा, तो सम्वर्तक मेघ बुलाकर ब्रज का सर्वनाश ठान लिया; यह “लस्ट” का सूक्ष्म रूप है—मान-कामना जब अपूरी रह जाए तो क्रोध, स्मृति-भ्रंश और निर्णय-नाश का सिलसिला चल पड़ता है, जैसा गीता के दूसरे अध्याय का क्रम बताता है।
कथा की भूमि पर अब नंद के आँगन में प्रवेश करें। कृष्ण बाल-सुलभ जिज्ञासा में नहीं, बल्कि शास्त्रीय तर्क के साथ पूछते हैं—यह जो इंद्र-पूजा की तैयारी है, विधिपूर्वक है या बस परंपरा-गत? कृषक-वैश्य का जीवन वर्षा पर आश्रित है, पर वर्षा देना इंद्र का धर्म है; आपको अपनी ड्यूटी के लिए देवता को रिश्वत क्यों? और फिर दृष्टि पलटती है—हमारा वास्तविक आश्रय तो गिरिराज है—घास, लकड़ी, जल, आश्रय—जीवन के समस्त पोषक तत्त्व यहीं से। नंद राज मानते-मानते मान जाते हैं—इंद्र-पूजन स्थगित, गोवर्धन-पूजा आज से। विधि भी सरल—जो इंद्र के लिए पका, वही गिरिराज के समक्ष अर्पित; परिक्रमा, गौ-पूजन, ब्राह्मण-तोष, वेद-घोष, प्रसाद-वितरण—सब साथ। और फिर होता है वह अलौकिक दृश्य—कृष्ण स्वयं गिरिराज-स्वरूप होकर भोग स्वीकारते हैं; पर्वत-मुख “अन्न! अन्न!” पुकारता है, तब तक जब तक तुलसीदल का स्नेह-ग्रास न मिले। यहीं ब्रज की सामुदायिकता अपने शिखर पर है—सब साथ, सबके लिए, सबका प्रसाद; और इसी उत्सव के विरुद्ध इंद्र का अहंकार उबलता है—“मेरी पूजा रोककर पत्थर की पूजा!”—गर्व के बादल अब सचमुच के बादलों को बुलाते हैं। कथा यहाँ से प्रलय-छाया में उतरती है—पर गोवर्धन की छाया में आश्रय की दीर्घिका भी यहीं से उज्ज्वल हो उठती है।
भाग २
सम्वर्तक मेघों का कोलाहल, बिजली की चाबुक, वायु के सात प्रहार, अंधकार की चादर—इंद्र का प्रकोप ब्रज को डुबाने को उतावला है। ब्रजवासी दौड़ते हैं—कृष्ण! कृष्ण!—और यही भक्त-जीवन का सूत्र बनता है: संकट में मन किसका नाम ले, पैरों को कौन दिशा दे? बिल्वमंगल ठाकुर की “गोविंद दामोदर माधवेति” की धुन जैसे इस क्षण ब्रज-जन के होंठों पर अपने आप आ बैठती है। कृष्ण मुस्कुराते हैं—“डरो मत, गिरिराज हमारी शरण हैं”—और बाएँ हाथ की कनिष्ठिका, कहें तो उसके नख-प्रान्त तक पर पर्वत उठ जाता है; मानो हाथी की सूँड का कमल, शिशु का खिलौना-छाता। पर्वत-तल पर हरियाली का कालीन, रत्न-दीवारें, झीलें, पीने का जल, बैठने का सुख—आश्रय का यह नगर कुछ ऐसे सजता है कि बाहर का कालिमा भीतर की उजास को छू भी न सके। कहते हैं कृष्ण के चरण-नखों का तेज जगत का दीपक है; यहाँ तो कौस्तुभ-मणि भी दमक रही है, सुदर्शन ऊपर घूम रहा है, अनंत-सेष बाहरी वलय रचते हैं—बूँदें छूकर भाप हो जाती हैं, हवा शीतल झ्झौंकों में बदल जाती है। ब्रज-तल का यह “नग्न काव्य” सात दिन-सात रात रस-संगम बन जाता है—माधुर्य, वात्सल्य, सख्य, दास्य, शान्त—सभी रस एक ही दृश्य में साथ-साथ स्पंदित।
रास-भाव की चुहल भी कम नहीं। यशोदा का मातृत्व आँखें भिगो देता है—“लाला, हाथ दुखेगा!”—कृष्ण की खिलंदड़ी तसल्ली—“मैय्या, आज गिरिराज अपने आप उठ रहे हैं, आपने जो अन्नकूट खिलाया है, उसी की तृप्ति का भार है यह।” उधर माधुमंगल ब्राह्मण-गर्व से फुँकार भरते हैं—“मेरे मंत्र की शक्ति है!”— और सचमुच क्षण-भर को उँगली और पर्वत के बीच एक सूक्ष्म अंतर दिख भी जाता है, ताकि हास्य का फव्वारा फूट पड़े। गोपियाँ व्यंग्य-स्मित से तंज कसती हैं—“दाएँ हाथ से नहीं, बाएँ से उठाया—अर्धांगिनी की शक्ति के बिना कैसे?”—और रस का घेरा और संपन्न हो जाता है। किसी को नींद आ जाती है तो कोई करताल थिरकाता है, कोई लूडो-साँप-सीढ़ी में बच्चों सा मग्न, कोई बस नयनों से नयन मिलाए खड़ा—ऐसा सामुदायिक उत्सव जहाँ “मैं” गलकर “हम” बन जाता है।
इधर इंद्र अपनी ही खबर लेने भेजता है—रिपोर्टर लौटकर कहते हैं—“कोई मरा नहीं; सब पर्वत के नीचे आनन्दित हैं!”—इंद्र स्वयं ऐरावत पर आ धमकता है; अस्त्र-शस्त्र सब व्यर्थ—क्योंकि ऊपर सुदर्शन, बाहर अनंत, भीतर कौस्तुभ, और बीच में कृष्ण की करुणा—यह चतुष्कवच अजेय है। एक अलग प्रसंग भी है जहाँ कथा शिव-पार्वती और कुंभाज मुनि के सन्दर्भ में है —कहते हैं, पार्वती जी जो सदैव भगवान शिव से प्रश्न किया करती थीं, एक दिन उन्होंने पूछा —
“भगवन बड़े हैं या भक्त?”
शिव मुस्कराए और बोले —
“भक्त बड़े हैं, और वह भी वैष्णव भक्त। यदि विश्वास न हो तो किसी वैष्णव भक्त को बुलाकर परीक्षा कर लो।”
तब कुम्भज ऋषि को आमंत्रित किया गया। पार्वती जी ने स्वयं रसोई बनाई — विविध व्यंजन, प्रसाद, मिष्ठान्न सब कुछ सजाया गया।
वैष्णव भक्त आदरपूर्वक भोजन के लिए बैठे।
भगवान ने मन में सोचा — “देखें, परीक्षा कैसे ली जाए।”
जैसे ही ऋषि भोजन करने लगे, भगवान ने अदृश्य रूप से थाली के प्रत्येक व्यंजन का स्वाद लेना शुरू कर दिया।
जो भी कौर ऋषि मुख में रखते, उससे पहले ही भगवान उसे चख लेते।
पार्वती जी हैरान — थाली में रखा सारा भोजन देखते-देखते गायब हो गया!
रसोई खाली हो गई, रसों की थालियाँ सूख गईं।
घबराकर पार्वती जी ने पुकारा —
“प्रभु! ये क्या लीला है? सब भोजन कहाँ चला गया?”तब भगवान बालक का रूप धरकर वहाँ पहुँचे।
कहा — “माँ, मुझे बहुत भूख लगी है।”
और कुम्भज ऋषि के साथ बैठ गए।जल्दी ही बालक ने हाथ धोने को जल लिया और अनजाने में कुछ छींटे ऋषि पर पड़ गए।
कुम्भज ऋषि को उठना पड़ा — उन्हें अपवित्रता का आभास हुआ।उन्होंने शिकायत की —
“प्रभु, आपने तो मुझे अधूरा भोजन ही छोड़ने को विवश कर दिया।मेरे प्रभु को भी भोग नहीं लगा इस तरह तो l ”
भगवान ने मुस्कराकर कहा —
“चिंता मत करो, तुम्हारी तृप्ति अधूरी नहीं रहेगी।खूब जल दूँगा, बहुत दूँगा।” वही जल बाद में इंद्र के मेघों से बरसा।गोवर्धन-लीला में मेघों का सारा जल कुम्भज मुनि के मुख में उतरवा देते हैं । और जब इंद्र की टंकियाँ खाली, मोटरें बन्द और पावर-सप्लाई कृष्ण के स्विच से कट जाती है, तब अहं का ताप उतरता है, विवेक लौटता है—इंद्र समझते हैं—“मैं च्युत हुआ।” वे सुरभि के साथ आते हैं; कृष्ण गौ-स्नेह से पिघलते हैं; और वह अनुपम संवाद होता है—“मैं तुम्हारी ‘पोज़ीशन’ नहीं, तुम्हारा ‘डिस्पोज़ीशन’ बदलना चाहता हूँ।” यही लीला का केन्द्र-बिन्दु है—ईश्वर दंड देकर नहीं, विमुक्त होकर नहीं, भीतर की गाँठ खोलकर सुधारते हैं; पद वही रहता है, भाव सुधर जाए तो व्यवस्था भी सुधरती है।
साधक के लिए यह कथा आशा की दीया जलाती है। इंद्र जितना बड़ा अपराध—भक्त-वध की चेष्टा—फिर भी क्षमा! तब हमारे अनजाने-अज्ञात अपराधों पर भी करुणा की संभावना क्यों न हो? पर उपाय वही—कृष्ण-शरण और वैष्णव-शरण। इंद्र के पास एक सुरभि थी, हमारे पास तो अनेक “सुरभियाँ” हैं—वरिष्ठ, सहचर, गुरुजन—जिनके माध्यम से क्षमा की याचना, मार्गदर्शन और मन का परिष्कार सम्भव है। गोवर्धन-दर्शन और परिक्रमा का महात्म्य इसी करुणा-परंपरा को जन-जन तक पहुँचाता है—मात्र दर्शन से मन-मलिनता धुलती है, इच्छा-मात्र से भी पुण्य का संकलन आरम्भ होता है; हमारे हृदय का पत्थर इन्हीं शिलाओं के स्पर्श से पिघलता है। परिक्रमा-परम्परा में सनातन गोस्वामी का प्रसंग, रघुनाथ दास की आसक्ति, आचार्यों के स्तुति-पुष्प—सब मिलकर बताते हैं कि गोवर्धन कोई “भूगोल” नहीं, “संगोल” है—संग का गोल, जहाँ समुदाय, करुणा और कृष्ण एक वृत्त में समा जाते हैं।
अन्नकूट की परंपरा भी यहीं से उजली होती है। सात दिन तक दिन में आठ बार भोजन न पा सकने वाले लाड़ले के लिए यशोदा ने एक साथ छप्पन भोग सजा दिए—तभी से “छप्पन-भोग” उत्सव की तस्वीर में बस गया। और तिथि-स्मृति भी यही कहती है—दीपावली के बाद भाई-दूज की पूर्वसंध्या, जब सुनंदा के यहाँ कृष्ण ने जो स्वाद पाया, उसने कह उठाया—“कल से भी अधिक!”—मानो आज की पूजा कल की स्मृति का सुगंधित विस्तार हो। कथा यह भी याद दिलाती है कि समय की धूल से गिरिराज की चोटियाँ क्षण-क्षण घटती हैं—पुलस्त्य मुनि के शाप की लोक-कथा हो या भूगोल का क्षरण—पर भक्त की आँख में पर्वत का कद कभी नहीं घटता; क्योंकि पर्वत अंततः कृष्ण का रूप है, और कृष्ण की कृपा का “ऊँचाई”-मान कोई माप-पट्टी नहीं नाप सकती।
अंत में यही आग्रह बचता है—मन को गोवर्धन की तरह बना लें: जो भी आए—गौ, गोपाल, गोपी, ब्रज की धूल, श्याम की धुन—सबको सहर्ष धारण करे, और हर भार को सेवा-आनंद में बदल दे। संकट की पहली बूँद गिरे तो जिह्वा पर “गोविंद दामोदर माधवेति” स्वतः फूटे; अपमान का पहला काँटा चुभे तो इंद्र की याद से विनय जागे; और सफलता का पहला आँचल मिले तो श्रेय अपने नाम न लिखकर गिरिराज की शिला पर रख दें। यही गोवर्धन-लीला का सार है—श्रेय का हस्तांतरण, अहं का विसर्जन, और शरण का आलोक। गिरिराज गोवर्धन की जय, जगत-गुरु श्यामसुंदर की जय—और हमारे भीतर के ब्रज की भी जय, जो हर वर्ष, हर दिन, हर क्षण इस कथा को अपने ही स्वर में जीवित रखता है।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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