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हम, हमारा बचपन और सरकारी स्कूल

एक पुराने, जर्जर सरकारी स्कूल के मिट्टी के मैदान में खेलते बच्चे, पाटोर जैसी छत से टपकती बारिश, और सामुदायिक भवन में चलती कक्षा की झलक।

हम, हमारा बचपन और सरकारी स्कूल
सरकारी स्कूल की बिल्डिंग में हुआ हादसा किसी एक दिन की चीख़ नहीं है,
ये तो वर्षों से Me too… Me tooकी गुहार लगाते एक बहरे सिस्टम की दीवार से सिर पटकने जैसा ही है। न जाने कब से गुहार लगाई जा रही है, लेकिन सरकार के बहरे कानों में जूँ रेंगने भी लगे तो उसे मसलकर सरकार रेंगने लायक नहीं छोड़े!

जबसे शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल के आश्रमों से निकलकर सरकारी स्कूलों में पहुँची है, तब से है। पहले तो सरकार की मंशा को नेता जी गाँव-गाँव पहुँचाने लगे… “आपके गाँव में स्कूल खोलने का इरादा है।” सरकार की मंशा तो शायद यही थी कि गुरुकुल प्रणाली ही लागू रहे — यानी खुले आसमान के नीचे, पेड़ की छाँव तले बच्चे पढ़ें, और प्रकृति का भरपूर आनंद लें। जिस दिन धूप चले, बारिश हो या आँधी आए — उस दिन स्कूल की छुट्टी कर देना ही सहज समाधान हो।

लेकिन नहीं — सरकार को लगा कि सिर्फ़ विद्यादान ही नहीं विद्या के देवी सरस्वती माँ का मंदिर भी बनाना चाहिए, इसके लिए इमारत की ‘मंशा’ जाहिर कर दी। बस, यहीं से खेल शुरू हुआ। इमारतें काग़ज़ पर बनने लगीं, मरम्मतें फ़ाइलों में होती रहीं। जब तक गाँव का कोई भामाशाह अपनी ज़मीन और उस पर स्कूल की इमारत बनवाकर सरकार से ‘गाँव में स्कूल’ आने की विनती न करे, तब तक शिक्षा सिर्फ़ योजनाओं में चलती रही।

मुझे याद है, हमारा स्कूल पाँचवीं क्लास तक दो पाटोर नुमा पोर्शन में चलता था। सामने मैदान, जिसमें फ़ुट भर की भूरभूरी मिट्टी। ऑफिस के नाम पर ग्रामसेवक की पुरानी सरकारी बिल्डिंग में ही साझेदारी और सह-अस्तित्व के साथ हेडमास्साब का दफ़्तर खुल गया था। वही एक टेबल, हेडमास्साब ने जमा ली थी — जिस पर एक अर्थ ग्लोब, एक नाम की तख़्ती और पीछे गांधी जी और नेहरू जी का पोस्टर लगाकर उसे स्कूल के रोल मॉडल कार्यालय का जामा पहना दिया गया था! यह था सरस्वती के मंदिर का गर्भगृह!

वो ग्रामसेवक बिल्डिंग दो कमरों की थी — एक में कार्यालय, पीछे वाले हिस्से में रहने की व्यवस्था, जहाँ ग्रामसेवक का परिवार और हेडमास्साब दोनों एक साथ रहते थे। यही प्राथमिक स्कूल की सरकारी अनुदान प्राप्त बिल्डिंग थी। ये तब बनी जब हम तीसरी कक्षा में आए। इससे पहले मिडिल स्कूल था, जो कि एक पुराने खंडहरनुमा किले जैसे ढाँचे में था। इसका प्रमोशन होकर यह माध्यमिक स्कूल हो गया था, तो प्राइमरी स्कूल को नई बिल्डिंग में शिफ्ट करवाया गया।

हमने पहली और दूसरी कक्षा वहीं पढ़ी थी, और तीसरी में इस ‘नए घर’ में ऐसे आए जैसे बरसों से किराए के मकान में रहने वाला कोई परिवार अपने खुद के घर में शिफ्ट होता है। जी, टूटा-फूटा कैसा भी, अपना घर अपना ही होता है जी!

पाटोर पोर्शन खुली  किताबों की तरह था … ऊपर पाटोर की छत, बारिश में औलातियों  की टप-टप… प्रकृति प्रदत्त हवा, पानी, धूप — सब हमें खुले बहाव की तरह मिलते। बारिश में टपकने के डर से अपने को और अपनी  किताबों को बचाते हुए जगह बदलते रहते… गर्मियों में धूल की आँधियों में आँखें मिचमिचाते, हिंदी की बालपुस्तकें रटते, पहाड़े — दो-दूनी चार, दो-तिया छः — ज़ोर-ज़ोर से दोहराते रहते।

खेल-कूद में चोट लगने की संभावनाएँ नगण्य थीं, क्योंकि मिट्टी का गद्देदार मैदान ऐसा था कि उसमें दौड़ना मानो मिट्टी में धँस जाना हो। हाँ, मिट्टी की परतें हमारे कपड़ों और उनके नीचे शरीर पर चढ़ जाया करती थीं, जिन्हें साफ करने का मिशन रविवार को मम्मी द्वारा ‘रगड़ने के पत्थर’ और डॉक्टर सोप साबुन से पूरा होता था। साबुन, कपड़ों और शरीर दोनों के लिए एक ही होता था।

गाँव में इतनी शांति थी कि स्कूल की घंटियाँ साफ़ सुनाई देती थीं। पहली घंटी बजती, तो हम झोला सम्भालते, तैयार होते, और दूसरी घंटी बजते ही दौड़ पड़ते। मास्साब की संटी से मार खाना  हमारा मुख्य शगल था, इसलिए हर बार देर से पहुँचते।

प्रार्थना बाहर मैदान में, तेज़ धूप में होती, जिसमें कई बार बच्चों के बेहोश होकर गिरने की घटनाएँ आम थीं। उन्हें टाँगा-झोली करके किसी पेड़ की छांव में लिटा दिया जाता था। कई बार हम बच्चों ने जानबूझकर गिरने और बेहोश होने का नाटक भी किया था ताकि छांव में कुछ देर चैन मिल सके। धीरे-धीरे जब मास्टरों को इस ‘नाटक’ का भेद खुला, तो उन्होंने हमें चेतावनी दी—”खबरदार! जो कोई गिरा तो…”
वो दो पात्रों वाला पोर्शन, जिनमें हमारा बचपन गुज़रा, हमारे वहाँ से चले आने के बाद भी कई वर्षों तक जस का तस बने रहे। हाँ, इस बीच एक और दिलचस्प घटना हुई—एक सामुदायिक भवन का निर्माण हो गया। यह भवन कभी नसबंदी कैंप, कभी किसी भूले-भटके सरकारी अधिकारी जैसे मलेरिया इंस्पेक्टर, डीडीटी छिड़कने वाले या टीकाकरण टीम के लिए ‘गेस्ट हाउस’ की तरह काम करता रहा।

धीरे-धीरे उसी सामुदायिक भवन में हमारी कक्षाएँ लगनी शुरू हो गईं। पहली बार हमें आधुनिक छत के नीचे पढ़ाई करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पर गाँव की सच्चाई यही है कि जब शादी-ब्याह का मौसम आता, तो वही सरकारी स्कूल की इमारत बारात के ठहरने की जगह बन जाती। स्कूल की फ़र्श, टेबल-कुर्सियाँ सब काम आ जातीं। अलग से टेंट का खर्च नहीं होता। मास्साब खुद बारातियों को पंचमेल और पूरी-रायते जिमाने की व्यवस्था में सहयोग देते। हमें खुशी इस बात की होती कि उस दिन स्कूल की छुट्टी हो जाती।

छठवीं कक्षा में हम फिर से वापस उस किले-नुमा इमारत में पहुँचे, जहाँ पहले की तरह ही नॉस्टैल्जिक माहौल था। पहले दो क्लास जो वहाँ पढ़ी थीं, उनमें से आधा समय तो मास्टरों और घरवालों द्वारा पीटे जाने और हमारे रोने में बीता। हम स्कूल के लिए निकलते, कई बार तो हमें स्कूल का रास्ता ही इतना प्यारा लगता कि हम मंज़िल तक नहीं पहुँचते—बीच रास्ते में ही बैठे रहते, तब तक कि छुट्टी न हो जाए। फिर सभी बच्चों के साथ वापस घर आ जाते। हमारे यह ट्रिक ज़्यादा दिन नहीं चली क्योंकि मास्टर जी अपने हाथ की खुजली, जो कई दिनों से हमें न पीटने के कारण बढ़ गई थी, मिटाने हमारे घर तक आ पहुँचे और हम पर जमकर हाथ  आज़माया। वैसे भी, उस समय माता-पिता तो पीटने की पावर ऑफ अटॉर्नी मास्टरों को दे ही चुके थे एडमिशन के वक़्त।

तो अब इस बिल्डिंग पर आएँ—कभी यह राजा-महाराजाओं के ज़माने की बिल्डिंग थी। यहाँ करौली रियासत के राजा के गाँव का जागीरदार का निवास हुआ करता था। आधे से ज़्यादा खंडहर हो चला था—लेकिन बचा-खुचा हिस्सा जो अभी भी नहीं गिरा था, वहीं पर स्कूल चल रहा था।

दीवारें दो फीट मोटी, और उनमें अजीब तिरछे सुराख, जिनका दूसरा सिरा ज़मीन तक जाता था। ये दरअसल सुरक्षा हेतु बनाए गए थे, जिनमें से बंदूकें टिकाकर दुश्मनों को ढेर किया जा सकता था। लेकिन हमारे लिए ये छेद नकल की पर्चियाँ छुपाने के काम आते थे। यही नहीं, यहीं मास्साब अपने पान, तंबाकू, ज़र्दे की पीक थूकते, और लड़कों के प्रेम-पत्र भी इन छेदों में बड़ी श्रद्धा से छिपाए जाते।कई कबूतरों के प्रणय स्थल थे,वहीँ उनके लिए आश्रय स्थल भी ! कबूतरों की गुटरगू और हम बचों की गुफतगू साथ साथ चलती ! यानि की स्कूल पूरा हवादार और रोशनी दार था ,इसलिए बिजली की जरूरत नहीं !

सीमेंट की जगह पत्थर, चूना और बजरी से बनी दीवारें थीं। चूना और बजरी का खंजर मिश्रण तैयार होता था—उसके लिए एक गोल चक्कर सा कुण्ड था, जिसमें पत्थर का एक बड़ा गोल सिलिंडर घूमता था। उसे बैल की सहायता से चलाया जाता था।गाँव की दूसरी पक्की इमारतें भी उसी तकनीक की बनी हुई !  ये तकनीक उस समय तक चलती रही जब तक हम थोड़ा होश संभालने लायक हुए।

स्कूल का दरवाज़ा इतना छोटा था कि मास्साब को झुककर भीतर आना पड़ता। दो मंज़िला इमारत थी। सीढ़ियाँ इतनी संकरी कि एक बार में या तो कोई एक चढ़ सकता था या उतर सकता। नीचे से ऊपर चढ़ने वाला आवाज़ देता—“आ रहा हूँ!”—तब ऊपर वाला रुक जाता। सीढ़ियाँ अंधेरी थीं, और लाइट की व्यवस्था सिर्फ दो कमरों में थी—एक जहाँ रात का चौकीदार ठहरता और दूसरा जहाँ हेडमास्टर का ऑफिस था।

वो चौकीदार—जिसे देखकर कोई भी रामसे ब्रदर्स की फ़िल्मों के स्थायी पात्र, ‘पुरानी भूतिया हवेली का लालटेन पकडे हुए चौकीदार ..”चले जाओ यहाँ से..क्यों आये हो यहाँ..!” मान ले—दरअसल दिन में वह स्कूल का चपरासी था। दिन में चपरासी, रात को चौकीदार—एक ही तनख्वाह से दोहरी ड्यूटी। क्योंकि इस किले के साथ कई भूत-चुड़ैलों की कहानियाँ जुड़ी थीं, इसलिए रात में वहाँ कोई और रुकने को तैयार नहीं होता। हर गाँव में एक न एक ऐसी बिल्डिंग होनी ही चाहिए जो गाँव के बेरोजगार भटक रहे  भूत और चुड़ैलों के लिए अनाथाश्रम की तरह काम करे!

उसने भी अपने निजी अनुभवों यानि कि  ‘भूतों और चुड़ैलों से लाइव एनकाउंटर’ का संग्रह तैयार कर रखा था, जिन्हें वो नए बच्चों, मास्साबों और प्रधानाचार्य को बड़े चाव से सुनाता।

कुछ कमरे ऐसे थे जिन्हें “चुड़ैलनिवास” घोषित कर दिया गया था, और उन्हें ‘नॉन-परफॉर्मिंग असेट्स’ की तरह मौन अवस्था में छोड़ दिया गया था। हम बच्चों की जिज्ञासा अक्सर उन कमरों में झाँककर किसी भूत-चुड़ैल से मुलाकात करने की रहती थी। रोमांच और थ्रिल की कोई कमी नहीं थी उस किले में।

दूसरी मंज़िल पर एक कोना था, जहाँ टॉयलेट बने थे। वे इतने जर्जर थे कि जैसे ही हम अंदर जाते, पूरा पोर्शन हिलने लगता। टॉयलेट कभी ठीक से उतरता नहीं—वह इमारत के मूड के साथ ही खुलता-बंद होता।

ऊपर की छत पर 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्वों के कार्यक्रम होते। एक दीवार के पास एक बड़ा-सा खुला आँगन था। उसी के पास एक सेठ की ग्राउंडनट (मूँगफली) मिल थी, जो स्कूल की दीवार से सटी हुई थी। उस मिल के छिलकों का एक विशाल ढेर स्कूल की छत तक चढ़ा हुआ था, जिसे हम ‘फिसलन पट्टी’ की तरह इस्तेमाल करते थे—सीधे दूसरी मंज़िल से उस पर फिसलते थे!

किले के दो मुख्य द्वार थे। एक के बाहर खाली मैदान था। पूरी बिल्डिंग का जीर्णोद्धार के नाम पर और उसे स्कूल की ज़मात पहनाने के लिए वहाँ ऊँची दीवारें खड़ी कर दी गईं और गोल गुम्बद वाले मुख्य द्वार पर बड़े मोटे अक्षरों में लिखवा दिया गया:
ज्ञानार्थ प्रवेश, सेवार्थ प्रस्थान”
हम दसवीं कक्षा तक पढ़े, लेकिन उस लाइन का मतलब न तब समझे, न किसी ने पूछा।

बगल की ज़मीन पर कुछ किसानों ने क़ब्ज़ा कर लिया था। जो ज़मीनें बची थीं, उन पर दीवार नहीं बनने दी जा रही थी। कई बार हमें बच्चों को ही वहाँ भेजा जाता था, उनसे भिड़ने के लिए।

दूसरा दरवाज़ा, जिसकी मैंने पहले ज़िक्र किया, छोटा और सँकरा था—वो शॉर्टकट रास्ता था स्कूल में घुसने का, लेकिन ‘रोमांचकारी’ भी। उस रास्ते के पास एक आरा मशीन थी। दरअसल, सेठ ने किले की खाली ज़मीन पर कब्ज़ा करके वहाँ मिल बना ली थी।
आरा मशीन लगातार चलती रहती थी, लकड़ी का बुरादा आँखों में घुसना तय था, फिर भी हम आँख मिचमिचाते वहीं से स्कूल में प्रवेश करते। सबसे बड़ा रोमांच ये था कि आरा मशीन की ब्लेड कभी भी टूट सकती थी—यानि ज़िंदगी दाँव पर थी।

मास्साबों की राय में वही रास्ता सुरक्षित था, क्योंकि अगर हमने जाना बंद किया, तो मिल वाला उस पर भी कब्ज़ा कर लेगा!

और आज… आज चालीस साल बाद भी वहाँ कुछ बदला नहीं है। वही दीवारें, वही रास्ता, वही खंडहर, वही खतरे… और हम?
हम तो बस किसी चमत्कार से उन तमाम खतरों को पार कर बच निकले हैं—ज़िंदा हैं—और अब उस बीते बचपन को देखकर एक ही शब्द आता है… आश्चर्य!”

और फिर… कल देखा अख़बार में…
मी टू’ की शिकार वही मिट्टी, वही मार, वही मासूमियत, और वही सरकारी इमारत, जो कभी गिरने के डर से काँपती थी, आज सचमुच ढह गई…
जैसे वर्षों से कोई इंतज़ार में बैठा था कि कब उसकी शिकायत सुनी जाए—या फिर… कब वो अंतिम साँस ले।

रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित

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