“हारे हुए प्रत्याशी की हाल-ए-सूरत”
चुनावी नतीजों की शाम ढल चुकी थी और लोकतंत्र का फ़ैसला स्पष्ट था — नेताजी को जनता ने विनम्रतापूर्वक घर बैठने का आदेश दे दिया था। मोहल्ले में खामोशी ऐसी थी जैसे किसी कद्दावर नेता की चुनावी सभा के दौरान लाउडस्पीकर अचानक बिगड़ गया हो। नेताजी के घर के बाहर टंगा विशाल पोस्टर अब भी “आपकी जीत निश्चित है” का बेसुरा राग तान रहा था।
नेताजी जिनका चेहरा और घर हमेशा हरा-भरा रहता था, दोनों पर ही जैसे बेमौसम के पतझड़ ने पीला पन ला दिया था।
नेताजी कुर्सी पर लुढ़क से गए निढाल।
नेताजी के चेहरे पर मुस्कुराहट की जगह एक स्थायी किस्म की उदासी स्थापित हो गई थी। घर के बाहर कभी उत्सव जैसा माहौल हुआ करता था, कार्यकर्ताओं की भीड़ लगी रहती, चाय-नमकीन की प्लेटें इधर से उधर दौड़तीं।
पर आज वहाँ एक सन्नाटा था ,बहार कुछ थकी हुई चप्पलें खुली हुई बेतरतीब से पडी थी , मुड़ी-तुड़ी बिछात थी और तीन अधपके से कार्यकर्ता बैठे थे। ये कार्यकर्ता अब ‘समर्थक’ से प्रमोट होकर ‘सांत्वनाकार’ बन चुके थे।
हार के बाद नेताजी की दिनचर्या बिल्कुल उलट चुकी थी। सुबह का अख़बार पढ़ना बंद कर दिया था। एक अच्छा खासा शोक संतप्त वातावरण l फ़ोन बजता था तो पहले उठा लेते थे , अब सिर्फ फ़ोन पर एक सरसरी निंगाह मारते हैं और नंबर को ब्लाक कर देने का इशारा दे देते हैं । पत्नी भी मौके पर कटाक्ष करने से नहीं चूकती — “कितनी बार कहा था, टिकट इसी क्षेत्र से मत लो ,लेकिन कौन माने हमारी !”
आए हैं कुछ मातमपुरसी को… जैसे नेताजी की जीते-जी शोकसभा में आए हैं मुँह लटकाए। इनमें से कुछ चुनाव प्रचार के दिनों में नेताजी के इर्द-गिर्द घूमने वाले तमाम शुभचिंतक थे, जो कल तक कह रहे थे — “नेताजी! इस बार जीत पक्की है। विपक्षी तो मैदान छोड़ कर भाग जाएंगे!”
अब वही महानुभाव गंभीर मुद्रा बनाकर बैठे थे। नेताजी के मुँह को बार-बार देख लेते कि कहीं कोई मौक़ा मिले तो कुछ बोलें।
सामने टेबल पर बासी बर्फी के टुकड़े जिन पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उनका नौकर अपने तौलिये से मक्खियाँ उड़ा रहा था।
इनमे से कुछ वो भी हैं जिनका अभी चुनाव खर्च का बिल पार्टी फंड में अटका पड़ा है।
खाली हाथ नहीं आए हैं कार्यकर्ता… हमारे यहाँ रिवाज है, मातमपुरसी में भी किसी रिश्तेदार के यहाँ जाते हैं तो साग-सब्ज़ी ले जाते हैं। तो ये ले आए हैं ठीकरा भर-भर कर नेताजी के साथ फोड़ने के लिए… बस माथा ढूँढ़ रहे हैं किसके सिर पर फोड़ें।
आख़िर मिल ही गए तीन सिर इनको —
“भाई साहब, ईवीएम में गड़बड़ी हुई है।”
दूसरा, “पार्टी ने धोखा दिया।”
तीसरा, “जात वालों ने धोखा दिया, अपने जात को छोड़कर कुजात को वोट दिया।”
लगा दिया नेताजी ने भी हाथ इन ठीकरों पर।
जब फूटने की आवाज़ आई तो थोड़ी मन को राहत मिली… नेताजी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई।
लोकतंत्र के असली सिपाही हार कहाँ मानते हैं?
नेताजी कुर्सी पर थोड़ा सीधे हुए, अपनी रीढ़ की हड्डी जो लगभग गायब हो गई थी इस चुनाव के दौरान और आलाकमान से टिकट मांगते वक़्त, उन्होंने अपनी पीठ पर हाथ फेरा तो नज़र आया कि थोड़ी बहुत रीढ़ की हड्डी अभी बची हुई है।
उसे भी आज आलाकमान के पास समर्पित करके आना होगा।
“क्या हुआ मैं चुनाव हारा। सरकार तो पार्टी की ही बनी है ना। कोई न कोई आयोग, निकाय, निगम, संघ, संस्थान में तो आलाकमान फिट कर ही सकते हैं… हो सकता है राज्यसभा में ही कोई सीट दिला दे…”
नेताजी की आँखों के आगे कुर्सियाँ घूमने लगीं… चक्कर घिन्नी की तरह।
नेताजी ने तुरंत गाड़ी निकलवाई, आलाकमान के यहाँ पहुँचे।
अहा देखा तो आलाकमान भैंस के तबेले में थे।
नेताजी वहीं पहुँच गए। आलाकमान किसी एक भैंस पर हाथ फेर रहे थे… भैंस की शक्ल और नेताजी की शक्ल दोनों में ही दीन भाव कूट कूट कर भरा था l पास ही एक अधेड़ सा आदमी ,… कसाई था… भैंस को लेने आया था l वो भैंस की रस्सी पकड़ कर उसे खींच रहा था, भैंस है कि खूंटा छोड़कर जाने को तैयार नहीं थी,वो बार बार आलाकमान की तरफ कातर निंगाहों से देख रही थी ,आलाकमान ने निंगाहें फेर ली..अपने हाथ को पीछे की तरफ़ घुमा के उसे इशारा किया.. ले जाओ इसे जल्दी ।“
आलाकमान दुखी थे…कहने लगे “ये मेरी प्यारी भैंस… हरियाणा से लाया था इसे , मुर्रा भैंस… जानते हो ना रामदीन… पाँच सेर दूध एक एक थन में। खूब दूध पिया परिवार वालों ने… बाखरी हो गयी अब । घरवाले नहीं मान रहे, कह रहे इसे कसाई से नहीं कटवाने देंगे ! मैंने कहा यार अब इस गोबर के चौथ से क्या कहकर लगाव रखें… खैर छोड़ो।”
“हाँ रामदीन, कैसे हो?”
प्रत्युत्तर में रामदीन ने हाथ जोड़ कर साष्टांग प्रणाम किया l
“आपकी वफ़ादारी और कर्तव्यनिष्ठा की मिसाल देते हैं पार्टी में रामदीन जी।”
“क्या हुआ जो हार गए… राजनीति भी दुधारु भैंस की तरह ही है रामदीन… एक दिन बाखरी होना ही पड़ता है। अरे बहुत दूध दुह लिया आपने, तीन-तीन बार जीते हैं, अलग-अलग क्षेत्र से टिकट दिया आपको… इस बार आप नहीं माने, उसी क्षेत्र से टिकट ले लिया जहाँ पहले विधायकी की । अब जनता है, बदलाव चाहती है।”
“खैर, दिल छोटा न करें… अब आपके अनुभव, मार्गदर्शन औरों के काम आएँगे। पार्टी कार्यालय आते रहें। देखिए, आप समझदार हैं… पार्टी में युवाओं का आक्रोश बढ़ा है… उन्हें आगे आने देना चाहिए।”
रामदीन जी वापस चल दिए… उल्टे पाँव… इससे पहले कि आलाकमान उन्हें भी बाखरी भैंस के साथ कसाई को सुपुर्द कर दें।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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