हिंदी तो घर की भाषा है , दिल की बात कहने का ज़रिया है । पर अब उसे खेत में बोई जाने वाली नकदी फ़सल बना दिया गया है। गेहूँ-चावल की तरह साधारण उपयोग में रहने के बजाय वह “ऑर्गेनिक महंगी फसल” बन गई है, जिसे सिर्फ आयोगों और दफ़्तरों की मंडियों में बेचा जा रहा है।
मोबाइल = दूरभाष यंत्र
लिफ्ट = ऊर्ध्वगामी यान
इंटरनेट = अंतरजाल
फोटोकॉपी = प्रति-छायांकन यंत्र
भाषा इतनी बोझिल हो जाये की कि चाय वाले समोसे तक को “तलित आलु पातलिका” बनाकर बेचने लगें तो क्या होगा आप समझ ही सकते हैं ।
कभी सोचा है आपने—रेलवे स्टेशन पर टिकट खिड़की से टिकट लेने जाइए और अगर लिखा मिले “प्रवेश प्रलेख हेतु अंशदान पत्र उपलब्ध कराइए”, तो बेचारा यात्री टिकट छोड़कर घर वापस लौट जाए।
दरअसल हिंदी का रोग यही है—इसे सहज छोड़ने के बजाय इतना भारी-भरकम बना दिया कि लोग डरने लगे। दफ़्तरों में बड़े साहब अब नोटिंग हिंदी में करने से घबराते हैं। उन्हें लगता है जैसे कोई थ्रिलर फिल्म देखने बैठे हों और हर शब्द के पीछे कोई बम छुपा हो।
भाषा का काम समझाना है, डराना नहीं। हिंदी तभी बचेगी जब वह रोज़मर्रा की चाय-समोसा बनी रहे—सरल, स्वादिष्ट और सबकी ज़ुबान पर। नहीं तो वह “प्रति-छायांकन यंत्र” जैसी उलझी हुई डिश बन जाएगी, जिसे कोई चखना ही न चाहे।
हिंदी को कुछ ज़्यादा ही हिंदी बनाने के चक्कर में हालत वैसी लगने लगी है जैसे किसी महिला को ब्यूटी पार्लर में इतना पाउडर, क्रीम और पेंट चढ़ा दिया जाए कि उसकी असली, नैसर्गिक खूबसूरती ही छिप जाए।
हिंदी की ताक़त उसकी सहजता और अपनापन है। उसे जबरन ऊँचे आसमान में बिठाकर, भारी-भरकम शब्दों से सजाकर अगर हम उसे दूसरों से पराया कर देंगे, तो मुश्किलें और बढ़ेंगी।
इस संदर्भ में मेरा एक व्यंग्य लेख “मैं और मेरी हिंदी “भी मैंने साझा किया था ।