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काश मैं सामग्री विभाग का प्रमुख होता-डॉ शैलेश

A cartoon of a smug material department head sitting at his desk, flanked by two nervous employees—one with papers, one with folded hands. Piles of files and a red register dominate the table in an exaggerated bureaucratic office setting.

जब हम छोटे थे तो समझते थे कि सबसे ताकतवर लोग पुलिसवाले होते हैं, फिर बड़े हुए तो लगा कि मंत्री सबसे ताकतवर होते हैं। लेकिन जैसे ही किसी सरकारी या कॉरपोरेट दफ्तर में कदम रखा, सच्चाई की बिजली गिरी— सबसे ताकतवर तो सामग्री विभाग का प्रमुख (Head of Material Department) होता है! यह कोई विभाग नहीं, एक परा-सत्ता है। यहाँ स्टील, सीमेंट और फर्नीचर नहीं, सत्ता, सुविधा और सब्सिडी का कॉकटेल बनता है। और उसका प्रधान पुजारी होता है — सामग्री प्रमुख। उसकी मंज़ूरी के बिना एक पेन भी नहीं खरीदा जा सकता, एक कुर्सी नहीं बदली जा सकती और एक फाइल भी नहीं चल सकती—फिजिकली भी और मेंटली भी।
दफ्तर की असली ‘ई-टेंडरिंग’ तो यही है : कागज़ों पर लिखी गई ई-टेंडर प्रक्रिया से बड़ा झूठ शायद ही कोई हो। असली टेंडर तो सामग्री प्रमुख की मुस्कान में फिक्स होता है। नियमों की किताबें सिर्फ टेबल की शोभा बढ़ाती हैं, असली नियम तो उस नोटशीट के पीछे छुपे होते हैं जिस पर ठेकेदार का नाम नहीं, ‘नाता’ लिखा होता है। यदि कोई नया ठेकेदार पूछ बैठे कि “सर, प्रक्रिया क्या है?”, तो उत्तर आता है—“हमारे विभाग में प्रक्रिया नहीं, परंपरा है।” इस परंपरा में जो सामग्री प्रमुख का प्रिय हो, वही सप्लाई करता है—even अगर वह रजिस्टर की जगह रसोई का रजिस्टर ले आए।
हर वस्तु में मूल्य नहीं, ‘मार्जिन’ देखा जाता है : जो लोग समझते हैं कि सामग्री प्रमुख सिर्फ खरीद-फरोख्त करता है, वे ‘परदे’ के बाहर हैं। असली खेल तो उन वस्तुओं के पीछे छुपे मूल्य-वर्धित प्रस्तावों में होता है। पिछली बार ऑफिस के लिए टेबल खरीदी गई थी, लेकिन साथ में आया ‘पारिवारिक डिनर’ और ‘दुबई टूर पैकेज’। कौन कहेगा कि ये टेबल के साथ फ्री नहीं था?
और फिर सामग्री प्रमुख के सटीक शब्द — “हमने केवल कंपनी की गुणवत्ता देखी है, बाकी बातें इत्तेफाक होंगी।” काश मुझे भी कोई सामग्री प्रमुख बना देता, तो मैं भी ‘मार्जिन’ के नाम पर वह सब कुछ ले लेता जो MRP में नहीं लिखा होता।
स्टॉक में सामान नहीं, संबंध जमा होते हैं : जहाँ बाकी विभागों में स्टॉक रजिस्टर में फाइलें गुम होती हैं, वहीं सामग्री विभाग में फाइलें नहीं, संबंधों की हिसाब-किताब रखा जाता है। कौन ठेकेदार कितने वर्षों से ‘विश्वासपात्र’ है, किसकी मिठाई सबसे पहले आती है, किसके बिस्कुट में नोट की चॉकलेट भरी होती है—यह सब जानकारी वहाँ के कंप्यूटर से नहीं, चाय पिलाने वाले अर्दली से मिलती है। अगर कोई नया ठेकेदार घूस नहीं दे, तो फाइल में टिप्पणी होती है — “क्वालिटी अनसर्टिफाइड, अप्रूवल रिक्वायर्ड।” लेकिन जो समय से तोहफा पहुँचा दे, उसकी फाइल ‘डायरेक्ट अप्रूव्ड’ हो जाती है, जैसे कोई अर्जुन बिना युद्ध के ही विजय प्राप्त कर गया हो।
सोचता हूँ, काश मैं भी सामग्री प्रमुख होता — तो हर वस्तु की ‘क्वालिटी’ मैं आँख से नहीं, जेब से तय करता।
ऑफिस की चाय भी उन्हीं की ‘कमीशन’ वाली होती है : आजकल दफ्तरों में जो टी-बैग से बनी अद्भुत चाय आती है, उसमें स्वाद कम, ‘डील’ का रस ज़्यादा होता है। क्योंकि जिस दिन सामग्री विभाग ने नई चाय सप्लाई कंपनी से गठबंधन किया था, उस दिन से चाय के कप में चीनी कम, चापलूसी ज़्यादा घुलने लगी। और जब कोई कहे — “सर, ये चाय बड़ी बेस्वाद है”, तो सामग्री प्रमुख उत्तर देता है — “अरे! तुम तो क्लासिक टेस्ट को समझ ही नहीं सकते।”
क्लासिक टेस्ट का मतलब है — जिस कंपनी ने डील के साथ डिनर दिया हो। काश मैं भी ऐसी चाय का अनुबंध करता, जिसमें स्वाद से ज़्यादा सुविधा मिलती। फिर मैं भी कहता — “एक कप ऑफिस टी, बिना दूध, लेकिन डबल बिल के साथ।”
साल दर साल वही कंपनी क्यों जीतती है — ये सवाल मत पूछो : अब ये कोई मामूली संयोग नहीं कि हर बार वही कंपनी टेंडर जीतती है जिसकी मिठाई की डिब्बी सबसे भारी होती है। जब सारे दस्तावेज़ बराबर हों, तब निर्णय का आधार क्या होता है? उत्तर सीधा है — “इमोशनल इंटेलिजेंस।” यानी कौन टेंडर फॉर्म के साथ भावनाओं की गठरी लेकर आया। जब कोई ईमानदार कर्मचारी पूछता है — “सर, बाकी कंपनियाँ बेहतर रेट दे रही हैं”, तो सामग्री प्रमुख उत्तर देता है — “हमें सिर्फ रेट नहीं, रिलेशन देखना होता है।” अगर मुझे भी यह निर्णय शक्ति मिल जाती, तो मैं भी हर साल वही कंपनी चुनता जिससे मुझे रिटायरमेंट गिफ्ट समय से पहले मिल जाए।
कुर्सियों से ज़्यादा बिछौने बदलते हैं इस विभाग में : जब बाकी लोग पुरानी कुर्सियों पर झख मारते हैं, तब सामग्री प्रमुख के कक्ष में हर छह महीने में नया इंटीरियर होता है। पिछली बार जब नया पंखा आया, तो पर्सनल केबिन में एयर प्यूरिफायर भी ‘गलती से’ आ गया। और पूछा जाए तो उत्तर होता है — “यह कर्मचारियों की सुविधा हेतु टेस्टिंग यूनिट है।” टेस्टिंग ऐसी कि घर में भी चलती रहे। काश! मुझे भी ऐसी टेस्टिंग यूनिट मिलती, तो मैं भी कहता — “यह लैपटॉप अभी ऑफिस के लिए ट्रायल पर है, तब तक घर ले जाता हूँ।”
एकमात्र विभाग जहाँ ‘रद्दी’ भी राजस्व बन जाती है : पुराने कंप्यूटर हों, जर्जर कुर्सियाँ हों या टूटी मेज—बाकी विभागों में ये कबाड़ होती हैं, लेकिन सामग्री विभाग में यह कमाई की संभावनाएँ होती हैं। हर स्क्रैप में भी स्कीम होती है। जो सामान 500 रुपए में कबाड़ी को जाए, वह टेंडर के नाम पर ‘सामाजिक संस्थान को दान’ घोषित कर दिया जाता है — और वहाँ से चुपचाप उधार चुकता होता है। सोचता हूँ, काश मैं भी सामग्री प्रमुख होता, तो कबाड़ के जरिए ‘गोल्डन कबाड़ी युग’ शुरू कर देता।
निष्कर्ष : सामग्री प्रमुख होना केवल एक पद नहीं, एक जीवनदर्शन है : जब आप सामग्री प्रमुख होते हैं, तो आपको भगवान से प्रार्थना नहीं करनी पड़ती — “हे ईश्वर, सब कुछ दे देना।” क्योंकि आपके पास पहले से ही वह विभाग होता है जो “सब कुछ खरीद सकता है।” आपके पास टेंडर की तलवार होती है, आपूर्ति की ढाल होती है और आदेश की गदा होती है। आपका निर्णय ही बजट होता है और आपकी मुस्कान ही अनुबंध। इसलिए जब मैं ऑफिस की टूटी कुर्सी पर बैठा सिस्टम हैंग होने की प्रतीक्षा करता हूँ, तो दिल से एक ही आवाज़ आती है — “काश मैं भी सामग्री विभाग का प्रमुख होता।”
(इस व्यंग्य लेख को लिख मारने वाला कोई मामूली लिक्खाड़ नहीं हैं — ये वो स्वघोषित महान विभूति हैं, जिनकी कलम चलते ही मंत्री से लेकर संपादक तक झुककर सलाम करते हैं, कम से कम ये खुद तो ऐसा मानते ही हैं। हम बात कर रहे हैं डॉ. शैलेश शुक्ला की — जी हाँ, वही डॉ. शैलेश शुक्ला, जिनका नाम गूगल भी बिना “डॉ.” लगाए नहीं लिखता क्योंकि पीएचडी होने के बाद से इन्होंने कभी इंटरनेट पर अपना नाम बिना “डॉ.” लगाए पोस्ट ही नहीं किया।
वैसे तो डॉ. साहब के परिचय के लिए अलग से हजारों पन्नों की एक पुस्तक छपनी चाहिए, पर संक्षेप में इतना समझ लीजिए कि ये “सृजन” ब्रह्मांड के ‘स्वघोषित‘व्यास’ हैं, भले ही कोई माने या न माने। ‘सृजन अमेरिका’ से लेकर ‘सृजन यूरोप’, ‘सृजन मॉरीशस’ से लेकर ‘सृजन मलेशिया’ तक — इनके संपादन के प्रभाव से कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं की “साहित्यिक GDP” बढ़ी है। वैसे जिन देशों में “सृजन” नहीं है, वहाँ साहित्य प्रेमी अभी भी इस उम्मीद में जी रहे हैं कि डॉ. शैलेश शुक्ला वहाँ भी कोई अंतरराष्ट्रीय पत्रिका शुरू करें तो वहाँ की साहित्यिक जीडीपी आगे बढ़े।
डॉ. शुक्ला ने अब तक 20 पुस्तकें संपादित कर मारी और 5 पुस्तकें लिख मारी हैं। — यानी किताबों की संख्या उतनी ही है जितनी आम आदमी के घर में EMI की किश्तें। दिल्ली विश्वविद्यालय और इग्नू जैसे संस्थानों के कोर्स में इनके 30 से अधिक अध्याय शामिल हैं, जिससे छात्र एक ओर तो परीक्षा पास करते हैं और दूसरी ओर साहित्य में डूब जाते हैं — यह डूबना ‘डिग्री’ में तैराकी बन जाता है। कुल मिलकर डॉ. शैलेश शुक्ला आजकल के विद्यार्थियों को डुबा-डुबा कर मार रहे हैं।
1000 से भी अधिक रचनाएँ प्रकाशित कर चुकने दावा ठोंकने वाले डॉ. शुक्ला को पढ़कर कई पत्र-पत्रिकाओं ने पन्ने बढ़ा लिए और कई संपादकों जो ऐसा नहीं कर पाए उन्होंने रिटायरमेंट ले ली। 2004 में जब दिल्ली की हिंदी अकादमी ने इन्हें ‘नवोदित लेखक पुरस्कार’ दिया था, तब से अब तक पुरस्कार वितरण समितियाँ इनका नाम सुनते ही “रेडी टू अवॉर्ड” मोड में चली जाती हैं। भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ से सम्मानित यह कलमधारी अब व्यंग्य भी ऐसा लिखते हैं कि भ्रष्टाचार खुद को आदर्श मानने लगता है और ईमानदारी आत्म-निरीक्षण में चली जाती है। तो जनाब, जब डॉ. शैलेश शुक्ला जैसा लेखक लिखे — तो समझ लीजिए, लेख व्यंग्य नहीं, ‘दर्पण’ होता है — जिसमें समाज, सत्ता और व्यवस्था अपना असली चेहरा देख पाती है… और फिर भी मुस्कराती है, क्योंकि… लेखक की कलम कहती है — “व्यंग्य ही वास्तविकता की विनम्र प्रस्तुति है।”)

डॉ. शैलेश शुक्ला
वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं
वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह

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