समुद्र-मंथन की कथा हम सबने सुनी है, पढ़ी है, चित्रों में देखी है और मंदिरों की दीवारों पर उकेरी हुई भी। लेकिन यदि इसे हम केवल पौराणिक घटना मानकर छोड़ दें तो उसका रस अधूरा रह जाता है। असली रस तब मिलता है जब हम इसे अपनी आत्मा के भीतर घटित होते देखना शुरू करें। वह समुद्र कोई और नहीं—हमारी चेतना है, जो गहराइयों से भरा हुआ है, जिसमें अंधकार भी है और प्रकाश भी। देवता और असुर, जो इसमें मंथन करते हैं, वे दरअसल हमारी ही प्रवृत्तियाँ हैं—कभी सजगता और विवेक, तो कभी लालसा और अहंकार।
जब यह मंथन शुरू होता है तो पहला उपहार विष का निकलना है। यही जीवन की सच्चाई है कि जब भी हम भीतर की यात्रा पर निकलते हैं, सबसे पहले हमें अपनी ही कमजोरियों, आलोचनाओं, अस्वीकृतियों और दर्दनाक अनुभवों का सामना करना पड़ता है। यही कालकूट विष है। इसे पीने का अर्थ है—उसे स्वीकार करना और उसका सामना करना, न कि भाग जाना। शिव की तरह उसे गले में रोक लेना, ताकि वह हमें नष्ट न करे और न ही दुनिया पर बरसने पाए। आत्मिक विकास की पहली परीक्षा यही है—हम कितना सह सकते हैं, कितना धारण कर सकते हैं।
फिर धीरे-धीरे रत्न निकलने लगते हैं। कामधेनु निकलती है, जो प्रतीक है सृजनशीलता का। जब हम विष को धारण कर लेते हैं, तब भीतर से एक नया स्त्रोत खुलता है—कल्पना और विचारों का दूध बहने लगता है। उसके बाद उच्चैःश्रवा निकलता है—पंखों वाला घोड़ा, जो हमारे संकल्पों को गति देता है। अब हम केवल सपने नहीं देखते, बल्कि उन्हें पूरा करने की दिशा में कदम भी बढ़ाते हैं। ऐरावत निकलता है—हाथी, जो स्थिरता और गरिमा देता है। जब कोई व्यक्ति अपने प्रयासों में निरंतरता लाता है, तब उसकी चाल हाथी जैसी हो जाती है—धीमी लेकिन अटल।
इसके आगे कौस्तुभ मणि निकलती है—विवेक का मुकुट। जो व्यक्ति शोर-शराबे और आलोचना से ऊपर उठकर बड़ी तस्वीर देखने लगे, उसके माथे पर कौस्तुभ की आभा झलकने लगती है। कल्पवृक्ष आता है—वह जीवन का वह पड़ाव है जब साधन अपने आप मिलने लगते हैं। जब संकल्प सही हो तो साधन ब्रह्मांड से स्वतः प्रकट होते हैं। अप्सराएँ भी निकलती हैं—वासना और मोह के रूप में। यह वही परीक्षा है जहाँ शक्ति की वास्तविकता स्पष्ट होती है। अगर हम इन आकर्षणों में फंस गए तो सारी साधना व्यर्थ हो सकती है, और अगर पार हो गए तो लक्ष्मी आती है—समृद्धि, जो केवल धन नहीं, बल्कि सामर्थ्य और अवसर है।
लेकिन लक्ष्मी के साथ ही वारुणी निकलती है—मदिरा का प्रतीक। यानी धन और सामर्थ्य के साथ अहं और नशे का खतरा भी जुड़ा रहता है। जिसने इसे जीत लिया, उसके जीवन में चन्द्रमा की शीतलता उतर आती है। यह शीतलता संबंधों में, व्यवहार में, शब्दों में झलकती है। पारिजात के फूल उसकी कर्मों से सुगंधित होते हैं, जो दूर-दूर तक फैलते हैं। और जब यह सुगंध फैल जाती है तो पांचजन्य शंख की तरह उद्घोष होता है—आपका कार्य जगत में गूंजने लगता है।
अंततः धन्वंतरि प्रकट होते हैं—अमृत कलश लेकर। यह वह अवस्था है जब व्यक्ति अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीता है। उसके शब्द, उसका समय, उसकी उपस्थिति—सब अमृत हो जाते हैं। जो कोई उसके पास आता है, वह हल्का होकर लौटता है, उसका दर्द कुछ कम हो जाता है। यही मंथन का अंतिम उपहार है—अमृत, जो आत्मा को अमर कर देता है।
राम की कथा में भी यही संकेत छिपा है। जब रावण से युद्ध करते समय राम ने देखा कि उनके साथ शक्ति नहीं, बल्कि रावण के साथ है, तब जामवंत ने कहा—पूजा कीजिए। और राम ने सौ आठ कमल चढ़ाए। जब अंतिम कमल नहीं मिला तो उन्होंने अपनी आँख अर्पित करने का संकल्प किया। यही सच्चा मंथन है—जब बाहर से साधन कम पड़ जाएँ तो भीतर से सर्वोत्तम अर्पित करो। शक्ति तब प्रकट होती है और विजय का मार्ग खोलती है।
आज के समय में भी यही मंथन आवश्यक है। सोशल मीडिया का विष, आलोचना का विष, तुलना और प्रतिस्पर्धा का विष—इनसे बचना नहीं है, इन्हें धारण करना है। जब हम इन्हें धारण कर लेते हैं, तभी हमारी सृजनशीलता कामधेनु की तरह प्रकट होती है। हमारे संकल्पों को उच्चैःश्रवा की गति मिलती है। हमारी गरिमा ऐरावत की तरह स्थिर होती है। विवेक कौस्तुभ मणि की तरह माथे पर चमकता है। कल्पवृक्ष की तरह संसाधन सहज आते हैं। अप्सराओं के मोह से बचकर हम लक्ष्मी का सही उपयोग करते हैं। वारुणी के नशे से परे जाकर चन्द्रमा की शीतलता पाते हैं। पारिजात की सुगंध की तरह हमारे कर्म दूर तक फैलते हैं। पांचजन्य की गूंज से हमारी कीर्ति जग में सुनाई देती है। धन्वंतरि का अमृत हमें दूसरों के लिए जीवनमय बना देता है।
समुद्र-मंथन का अर्थ यही है कि हम अपने भीतर का समुद्र हिलाएँ, अपने भीतर की लहरों को टटोलें, अपनी प्रवृत्तियों को खंगालें और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें। पहले विष आएगा, फिर रत्न। पहले संघर्ष होगा, फिर विजय। पहले असुविधा होगी, फिर प्रकाश। जो इस प्रक्रिया से गुजरता है, वही सच्चा साधक है। और जिसकी उपस्थिति से दूसरों का जीवन हल्का हो जाए—वही वास्तविक अमृत का धारक है। यही है समुद्र-मंथन का दार्शनिक सार, और यही है जीवन का सबसे बड़ा शंखनाद।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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