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जलेबी -मीठी यादों की रसभरी मिठाई

A group of friends at a traditional Indian sweet shop, with one friend explaining to a confused foreigner how jalebi is filled with syrup using an injection

चाशनी से भीगी हुई जलेबी की छटा ऐसे लगती है मानो किसी नवयुवती ने सोलह श्रृंगार कर के इठलाते बलखाते हुए अपने सोलह वर्षीय यौवन की दहलीज को पार किया हुआ हो |

आज हम बात करेंगे भारत की एक ऐसी मिठाई की, जो भारत की बहु आयामी संस्कृति में अपने चर्चित रंग, रूप और स्वाद से सभी उम्र के मिष्ठान-रसिकों की जीभ की स्वाद कलिकाओं को तृप्त कर रही है । इस मिठाई का नाम है’ जलेबी’। नाम सुनकर आया ना मुँह में पानी? जी हाँ, बात कुछ ऐसी ही है। वैसे “हमें तो मधुमेह रोग ने घेर लिया, गालिब वरना हम भी आशिक कम न थे जलेबी के।” लेकिन क्या हुआ अगर इसके स्वाद से वंचित हैं तो, कम से कम इसकी महिमा गान से औरों की स्वाद कलिकाओं को जागृत करने का काम तो कर ही सकते हैं । जब भी मिठाइयों की बात होती है, तो जलेबी का जिक्र अनिवार्य है।में तो कहूँगा की इसके रंग, रूप और इस की बनावट बिलकुल इसे मिठाई की रानी का दर्जा दिलाने के लिए ही है , यह रस से भरपूर, कुरकुरी और लच्छेदार मिठाई भारत के हर कोने में अपनी रस फुहार की मीठी धार वाली नजरों से पकवान-रसिकों को घायल कर रही है

जलेबी मुख्यतः अरबी शब्द है। जलेबी में जल तत्व की अधिकता होने से इसे जलेबी कहा जाता है। मानव शरीर में 70 फीसदी पानी होता है, इसलिए इसे खाने से जलतत्व की पूर्ति होती है। जलेबी दो शब्दों से मिलकर बनता है। जल +एबी अर्थात् यह शरीर में स्थित जल के ऐब (दोष) दूर करती है, , जलोदर की तकलीफ मिटाती है । यह जलेबी ही है ना, जिसके नाम में ही निहित है कि यह कितनी गुणकारक औषधि है। वात, पित्त, कफ – तीनों त्रिदोषों को दूर करने वाले शरीर में आध्यात्मिक शक्ति, सिद्धि एवं ऊर्जा में वृद्धि कर स्वाधिष्ठान चक्र जाग्रत करने में सहायक है। जलेबी के खाने से शरीर के सारे ऐब (रोग दोष )जल जाते हैं ।

जलेबी की बनावट शरीर में कुण्डलिनी चक्र की तरह होती है। जलेबी गर हम कहें की अघोरी साधुओं की तिजोरी है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी |अघोरी सन्त आध्यात्मिक सिद्धि तथा कुण्डलिनी जागरण के लिए सुबह नित्य जलेबी खाने की सलाह देते हैं । मैदा, जल, मीठा, तेल और अग्नि इन 5 चीजों से निर्मित जलेबी में पंचतत्व का वास होता है!

जलेबी का उद्भव विवादित है, परंतु माना जाता है कि यह मिठाई मध्य पूर्व से आयी और बाद में भारतीय उपमहाद्वीप में अपना एक खास स्थान बना लिया। इस मिठाई का संबंध पर्शिया (आधुनिक युग का इरान ) से है। इतिहासकारों के अनुसार, जलेबी मूलतः ईरानी मिठाई जलाबिया या जुलबिया से निकली है। दसवीं शताब्दी की किताब “किताब-अल-तबीख ” और अरबी ग्रंथ “इब्न सय्यार अल वर्राक “में इस मिठाई का उल्लेख मिलता है। भारत में यह अरब आक्रमणकारियों के साथ आई और यहाँ के त्योहारों के साथ घुलमिल गई।

300 वर्ष पुरानी पुस्तकें “भोजनकटुहला” एवं संस्कृतमें लिखी “गुण्यगुणबोधिनी” में भी जलेबी बनाने की विधि का वर्णन है। घुमंतू लेखक श्री शरतचंद पेंढारकर ने जलेबी का आदिकालीन भारतीय नाम कुण्डलिका बताया है। वे बंजारे और बहुरूपियों की शब्दावली और रघुनाथकृत “भोज कौतूहल” नामक ग्रन्थ का भी हवाला देते हैं। इन ग्रंथों में जलेबी बनाने की विधि का भी उल्लेख है। “मिष्ठान भारत की जान “जैसी पुस्तकों में जलेबी रस से परिपूर्ण होने के कारण इसे जल-वल्लिका नाम मिला है। जैन धर्म का ग्रन्थ “कर्णपकथा” में भगवान महावीर को जलेबी नैवेद्यल लगाने वाली मिठाई माना जाता है ।

जलेबी का प्रचलन भारत के विभिन्न कोनों में है और अलग-अलग क्षेत्रों में इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है। उत्तर भारत में जलेबी, बंगाल में ‘जिलिपी’, गुजरात में ‘जलेबी’, महाराष्ट्र में ‘जिलबी ‘ कहा जाता है। दक्षिण भारत में इसे ‘जंगिरी’ या ‘इमरती’ के नाम से जाना जाता है, जो कि जलेबी का एक संशोधित रूप है। जलेबी को..संस्कृत में कुण्डलिनी कहते है वहीँ जलेबी का भारतीय शुद्ध नाम जलवल्लिका है।

A person with a look of regret while holding a plate of tempting jalebi, indicating their struggle with diabetes.

जलेबी जो मूलतः खमीर उठी हुई मैदा के घोल से बनायी जाती है ,कालान्तर में उंगली करने की भारतीय परम्परा से घायल होकर देश के कोने कोने में अलग अलग प्रकार से बनाए गयी जलेबी अपने आप में एक ख़ास अंदाज और एटीटूड को दिखाती है | इसी के चलते बंगाल में पनीर की,बिहार में आलू की,उत्तरप्रदेश में आम की, म.प्र. के बघेलखण्ड- रीवा, सतना में मावा की जलेबी खाने का भारी प्रचलन है। कहीं पनीर जलेबी का चलन है तो कहीं बड़े आकार का जलेबा प्रसिद्ध है। सामान्यतः मैदे से बनने वाली जलेबी जब उड़द दाल से बनाई जाती है, तो वह इमरती कहलाती है, ये एक तरहा से जलेबी का ऊन्नत संस्करण है जिसे तमिलनाडु में जांगरी के नाम से जाना जाता है। दिल्ली के चांदनी चौक में आपको विशेष जलेबा देखने को मिलेगा, जो जलेबी का ही बड़ा संस्करण है। मध्यप्रदेश के जबलपुर में तो जलेबी में खोया भी मिलाया जाता है, जिसे खोया जलेबी कहा जाता है।

और तो और महिलाओं के केश विन्यास में भी जलेबी नाम सम्मलित है महिलाएं अपने केशों से “जलेबी जूड़ा” भी बनाती हैं।

कितनी ही फिल्मों में गाने जलेबी के ऊपर बने है याद करो वो ‘जलेबी बाई’ गाना, जलेबी की तरह इठलाती अंटे खाती नायिका , और जलेबी के रस की तरह लार टपका रहे श्रृंगार रस में भीगे हुए नायिका के प्रेमी ! वैसे जलेबी का ये फिल्मीकरण जलेबी की निजता पर हनन है ! जलेबी के बारे में तो कई रोचक तथ्य पता लगे हैं- एक बार भारतीय अंतरिक्ष यात्री, जब अंतरिक्ष में थे, तो उन्होंने जलेबी की खास तलब महसूस की। इसे विशेष व्यबस्था के रूप में अंतरिक्ष में भेजा गया। मुझे तो लगता है अगर हम पोरोनिक ग्रंथों का विशेष अध्ययन करें तो पता लगे की इसका प्रादुर्भाव भी सोम रस के साथ साथ समुद्र मंथन से ही हुआ है !

चाशनी से भीगी हुई जलेबी की छटा ऐसे लगती है मानो किसी नवयुवती ने सोलह श्रृंगार कर के इठलाते बलखाते हुए अपने सोलह वर्षीय यौवन की दहलीज को पार किया हुआ हो | मीठे के ऊपर मंडराती मक्खियो की माफिक रसिकों की लार टपकाने वाली ये जलेबी निश्चित ही अब शृंगार रस के कवियों की लेखनी के लिए भी प्रेरणा देकर उनकी कलम की धार से वापस रीतिकाल के युग में प्रवेश कराकर , उनके मुखारविंद से गंगा जमुना की धार की तरह प्रवाहित होगी। पौराणिक शास्त्रों, कर्मकांडों में भी नैवेद्य पूजा में जलेबी का विशेष प्रयोग होता है। इसे बनाना भी एक कला है, गरम तेल की चपटी कढ़ाई जिसे ‘तई’ कहते हैं- में खमीर उठी हुई मैदा को विशेष प्रकार के कपड़े जिसे ‘नथना’ कहते है में लेकर,उसके छिद्र से हाथ के दबाब से इसकी पतली धार तेल में छोडी जाती है ,उस समय इस नथने को इस प्रकार से घुमाया जाता है कि जैसे कोई चित्रकार अपनी कूची से कोई सुंदर सी आकृति कैनवास पर उतार रहा हो। जलेबी बनाते वक्त दिए गए घुमावों की संख्या के आधार पर इनका नामकरण होता है – ढेड़ अण्टे, ढाई अण्टे और साढ़े तीन अण्टे की जलेबी , कही अंगूर दाना और कुल्हड़ जलेबी गोल-गोल भी बनती है।

मैदा लगाना और मैदा में खमीर उठाना भी एक बहुत ही जहमत उठाने वाला काम है , मैदा लगाकर उसे दो दिन तक रखा जाता है जब तक कि खमीर की बुरी सी दुर्गंध पूरे माहौल में नहीं फैल जाए। अगर आप देख लें कि जलेबी इसी से बनती है तो शायद कभी आप जलेबी नहीं खाएं, लेकिन जब जलेबी बनकर पक कर चाशनी की रस धार में नहा धोकर अपने चिर यौवन से परिपूर्ण निखर कर बाहर आती हैं तो पाक सौंदर्य रस के दीवाने मनचलों की जीभ लपलपाने लगती है।

खासकर हमारे क्षेत्र में जलेबी और कचौरी का नाश्ता ऐसा है जैसे चोली दामन का साथ, मसाले दार दाल कचौरी वो भी हमारे यहाँ की, जहां मसाले डालने का मतलब सिर्फ तीखी मिर्ची डालने से है और वो भी मसालेदार सब्जी ,मेरा मतलब मिर्चीदार शब्जी साथ खाई जाती है ,और उस मिर्ची की जलन को शांत कर सकती है तो सिर्फ जलेबी के अंदर भरी हुई मीठी रसधार।

विदेशी लोग भी इसके दीवाने हैं, एक बार एक विदेशी कहीं भूलवश हमारे गाँव में आ गया ,गाँव में घूम ही रहा था की उसकी नजर हमारी मिठाई की दूकान पर पडी,और मिठाई में भी जलेबी की परात पर ,उस ने एक जलेबी को हाथ में लिया काफी देर तक इसे घूरता रहा, आप जानते ही है मेरे पापा की पुश्तैनी मिठाई की दुकान है, पापा डॉक्टरी की प्रैक्टिस भी करते हैं, उसने पूछ लिया, जलेबी बहुत अछा है लेकिन इसमें रस कैसे भरा जाता है, पापा ने तो कोई जबाब नहीं दिया मैंने ही उस से अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में समझाया मैंने कहा, “पहले हम जलेबी पकाते हैं फिर इंजेक्शन में रस भरकर इसमें सुई द्वारा रस पहुंचाते हैं !”

आप जानते ही है ,इंदौर के पोहा जलेबी और गुजरात की फाफडा जलेबी सर्वप्रसिद्ध है | इंदौर की पोहा जलेबी तो इतनी प्रसिद्ध है की कई लोग तो दूर दूर से इंदौर सिर्फ इसी के रसास्वादन के लिए आते है !

एक बार हम सोमनाथ द्वारिका भ्रमण पर गए , तीन दिन के टूर में दो दिन इसी फाफ्डा जलेबी के सपन सलोने ब्रेक फ़ास्ट के लिए दौडते भागते रहे लेकिन हर बार चूक गए क्यों की सुबह के नाश्ते में बनी ये रेसिपी हमारे पहुँचने से पहले ही ख़त्म हो जाती थी ,तीसरे दिन इसी के लिए होटल से जल्दी निकले की एक रेस्तौरेंट में गरम गरमा जलेबी और फाफ्डा बन रहे थे, वहा जम कर फाफ्डा जलेबी खाई , हा श्रीमतीजी की तिरछी नजरों से एक मूक स्वीकृति जरूर ले ली थी की कोई नहीं एक दिन मधुमेह रोग का हवाला देकर इस फाफ्डा जलेबी के लुत्फ़ से हमे महरूम मत कीजिये !

हर जगह जलेबी की धूम है , हमारे जैसे ग्रामीण परिवेश में पले बढे लोगों ने तो न जाने कितनी मर्तबा इस दूध जलेबी और खीर जलेबी की छाक से ही अपनी पेट की उदराग्नि को शांत किया है ! कुश्ती दंगल के पहलवानों से पूछो ,खीर जलेबी की छाक से ही डोले शोले बानाए है , गांब में ज्योनार में खीर जलेबी रईसों की दावत हुआ करती थी, देसी घी की जलेबी और भैसन के गाढे दूध की बनी खीर जब पेट में अन्दर जाती थी तो शरीर क्या आत्मा भी तृप्त हो जाती थी

याद है बचपन में स्कूल की प्रतियोगिता जिसमे जलेबी कूद प्रतियोगिया कितनी मजेदार प्रतियोगिता होती थी, प्रतियोगिता में रिवॉर्ड भी प्रतियोगिता के जीतने वाले को हाथों हाथ मिल जाता था ,मेरा मतलब जलेबी खाने को जो मिलती थी

अब लोग है व्यंग करते है की जलेबी का स्त्रीलिंग होने में भी राज है की एक तो वहा मीठी दूसरी कभी सीधे नहीं हो सकती इसलिए नाम स्त्रीलिंग रखा है

न जान कितनी लोक कथाओं, लोक गीतों ,रसिया ख़याल सुट्टा ,में जलेबी की धूम है –“रसीले गाल खा आई जोगनिया जलेबी लच्छेदार” ‘‘टपकी जाये जलेबी रस की’’

जलेबी के कुछ ओषधि गुण है जिन्हें यहाँ बताना जरूरी है , वात- पित्त- कफ यानि त्रिदोष की शांति के लिए सुबह खाली पेट दही के साथ, वात विकार से बचने के लिए-दूध में मिलाकर और कफ से मुक्ति के लिए गर्म-गर्म चाशनी सहित जलेबी खावें ।जो लोग सिरदर्द, माईग्रेन से पीड़ित हैं वे सूर्योदय से पूर्व प्रातः खाली पेट २से 3 जलेबी चाशनी में डुबोकर खाकर पानी नहीं पीएं सभी तरह मानसिक विकार जलेबी के सेवन से नष्ट हो जाते हैं। जलेबी पीलिया से पीड़ित रोगियों के लिए यह चमत्कारी ओषधि है। सुबह खाने से पांडुरोग दूर हो जाता है।जिन लोगों के पैर की बिम्बाई फटने या त्वचा निकलने की परेशानी रहती हो हो वे 21 दिन लगातार जलेबी का सेवन करें। जलने, कुढन में उलझे लोग यदि जानवरों को जलेबी खिलाये तो मन शांत होता है।

आयुर्वेदिक जड़ी बूटी में भी जलेबी का उल्लेख है ,जंगली जलेबी नामक फल उदर एवं मस्तिष्क रोगों का नाश करता है।जलेबी के खाने से लाभ पुरानो में भी वर्णित है

एषा कुण्डलिनी नाम्ना पुष्टिकान्तिबलप्रदा।

धातुवृद्धिकरीवृष्या रुच्या चेन्द्रीयतर्पणी।।

(आयुर्वेदिक ग्रन्थ भावप्रकाश पृष्ठ ७४०)

अर्थात – जलेबी कुण्डलिनी जागरण करने वाली, पुष्टि, कान्ति तथा बल को देने वाली, धातुवर्धक, वीर्यवर्धक, रुचिकारक एवं इन्द्रिय सुख और रसेन्द्रीय को तृप्त करने वाली होती है।

इति श्री जलेबी पुराण करते हुए बस एक ही बात कहनी है- हाथ कंगन को आरसी क्या पढ़े लिखे को फारसी क्या, अगर आपको जलेबी ज्ञान पर विशवास नहीं तो एक बार चख लीजिये न ,ये अनुभव की बात है साधो !

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