*जमाई राजा—कलियुग के कौवे*
यह देश त्योहारों का, उत्सवों का, संस्कारों का और परम्पराओं का देश है। यहाँ जिस उमंग और उल्लास से जीवन के रंगों को जीया जाता है, उससे दुगुनी श्रद्धा और समर्पण के भाव से मौत को भी स्वीकारा जाता है। जैसे सरकारी योजनाएँ पखवाड़ों और सप्ताहों की रेलमपेल में पूरी हो जाती हैं, उसी प्रकार धार्मिक आयोजन भी विभिन्न सप्ताहों, नौ दिवसीय या पखवाड़ों में समेट लिए जाते हैं। इनमें से एक है श्राद्ध पक्ष—पितरों के तर्पण के लिए हिंदू परिवारों की तरफ से श्रद्धांजलि स्वरूप यह पखवाड़ा। सबसे बड़ी समस्या जो आन पड़ी है, वह है इन डिलीवरी बॉय का रोल निभा रहे कौवों की कमी। ढूंढें से नहीं मिल रहे—अब कैसे कोई पितरों के खाने को परलोक तक डिलीवर करे? कौवों की जगह चीलों ने ले ली है। थोड़े बहुत कौवे बचे भी हैं, तो उनके भाव आसमान छू रहे हैं। कुछ लोगों ने कौवों को अपने बाड़े में बंद कर लिया है—रोजी-रोटी का जुगाड़ जो बन गया जी…।
हमारे पड़ोस के अब्दुल चाचा हैं, जिनकी इस समय बड़ी चांदी कट रही है। उन्होंने दो कौवे पाल रखे हैं। श्राद्ध पक्ष में उनके यहाँ खीर खिलाने वालों की भीड़ लग जाती है। नखरे देखिए, एक घर की खीर में अपने कौवों की चोंच लगाने के लिए १०१ रुपये तक वसूल रहे हैं। खुदा खैर करे…कम से कम कौवों की धर्म और जाति तो नहीं पूछी जा रही। नहीं तो अब्दुल्ला बेचारा गया काम से… “ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” कौन कलमा पढ़ता इन कौवों के लिए भला?
घबराइए नहीं…आपके पास अब्दुल्ला नहीं आया कौवे लेकर…कोई बात नहीं…जमाई तो है न! भाई, इस कलियुग में जमाई भी कहीं कौवों से कम है जनाब? जमाई की भी कोई जाति नहीं होती साहब। ससुराल की मुंडेर पर जब चाहे बैठ सकता है, कांव-कांव कर सकता है, और उसकी कांव-कांव भी ससुर जी को कोयल की कूक जैसी लगती है। ढूंढिए, कोई न कोई जमाई या जमाई जैसा आपके ही शहर में मिल ही जाएगा, खासकर श्राद्ध पक्ष में, खीर खाने की आस में अपनी चोंच फैलाए। पास का नहीं तो दूर का ही सही, लेकिन हो आपके शहर का ही।
वैसे मनुस्मृति में शायद लिखने से रह गया है…चलो मैं ही बता देता हूँ…जमाई और पंडित जी दोनों का एक ही स्थान माना गया है। कोई भी धार्मिक, पारिवारिक या सामाजिक अनुष्ठान हो—मसलन शादी, सगाई, मुंडन, तीज-त्योहार, जन्म-मरण, तर्पण-अर्पण—सभी में या तो पंडित जी को भोजन और दक्षिणा दोनों मिलती हैं, या फिर जमाई को। बिना इन दोनों को खिलाए-पिलाए मजाल है कि परिवार का कोई दूसरा सदस्य एक दाना भी मुंह में ले सके।
अब जब से श्राद्ध पक्ष में कौवों की मारा-मारी हो गई है, इन जमाइयों की पूछ बढ़ गई है। थोड़े दिनों में देखना, नाग पंचमी पर नागों की कमी भी ये जमाई ही पूरी करने वाले हैं। नाग देवता भी कहाँ दिखते हैं आजकल…। अगर आप पुराने जमाई हो गए हैं तो हो सकता है अब आपकी पूछ थोड़ी घट गई हो, चिंता न करें…इसका मतलब आप आदमी की श्रेणी में आ रहे हैं। आदमी-आदमी इसी लिए तो है कि उसकी पूंछ घटकर विलुप्त सी हो गई है। लेकिन फिर भी आपको चिंता सता रही है कि आपकी पूंछ बढ़नी ही चाहिए तो श्राद्ध पक्ष का इंतजार करें। तब तक बस मंडराते रहें ससुराल की मुंडेर पर कांव-कांव करते हुए। जीजू से जीजाजी, फिर जीजा, और फिर रिटायर्ड जीजा की श्रेणी में आप आ जाएं, पता ही नहीं चलता। आपके दामादी के दिन लद गए हैं, ये मान लीजिए, जब आपको ससुराल में साले की बच्ची के लिए दामाद ढूँढने का काम मिल जाए। खाने में लड्डू, बालूशाही, पूरी, खीर और सूजी के हलवे की मनुहार की जगह ढाबे की दाल और टिक्कड़ परोसे जाने लगे, तो समझो कि तुम जमाई से अब घर की मुर्गी बराबर जमाई बन चुके हो। घर जमाई नहीं बने, तो क्या? घर की मुर्गी जैसे बनने में देर नहीं लगती।
लेकिन इस सब के बीच में यह खुशखबरी है तुम्हारे लिए—मुस्कुराओ तनिक। श्राद्ध पक्ष आ गया है। तनिक कान लगाकर सुनो…अपनी श्रीमती जी की लाइफटाइम वैलिडिटी वाली ससुराल की कॉल, शायद आजकल में निमंत्रण आने वाला है। तो पेट की कमरबंद ढीली कर लीजिए, ससुराल से बुलावा है जी—‘आओ जी आओ, पान्वणा’…’जीमों जी जीमों म्हारे पान्वणा’।
मैं तो कहता हूँ, तीये की रस्म में भी क्यों कौवों का इंतजार करते हो? कौवे सब कागभुशुंडी जी ने वापस बुला लिए हैं, कोई नहीं आने वाला। क्यों कहलवाने का मौका देते हो इन लोगों को? ‘बड़ी पापी आत्मा है भाई, इसकी तो कौवा भी खीर नहीं खा रहा।’ वहीं पास कोने में खड़े जमाई को मौका दो न, साक्षात कलियुगी कागभुशुंडी अवतार।
श्राद्ध पक्ष में तो साल भर जम की तरह घर में जमे रहने वाला भी जमाई जैसा हो जाता है। कहते हैं, मरते वक्त अगर ससुर जमाई का मुंह देख ले तो ससुर नरकवासी हो जाता है। इसी लिए तो जमाई को कंधा नहीं लगने देते।
चलते-चलते, वो काका कविराय हाथरसी जी के चंद छंद तो गुनगुनाते जाइए न:
*”बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद
सास-ससुर को चूस कर, कर देता बर्बाद
कर देता बर्बाद, आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो, कमाओ, इसको देते जाओ
कहॅं ‘काका’ कविराय, ससुरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्योहार, मिठाई भर-भर थाली
कितना भी दे दीजिये, तृप्त न हो यह शख़्स
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स?”*

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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