जॉली LLB 3 — एक छोटे शहर के दर्शक की ईमानदार दास्तान
कल रात आखिरकार “Jolly LLB 3” देख ही ली। Netflix पर ऐसे ही स्क्रोल कर रहा था—जैसे कभी-कभी किताबों की अलमारी में हाथ फिराते हुए अचानक कोई पुरानी डायरी मिल जाए और आप कहें, “चलो, इसे ही खोलकर देखा जाए।” छोटे शहर में रहने का एक बड़ा सच यही है कि सिनेमाघरों के पहले शो का रोमांच अक्सर OTT की गोद में जाकर ही पूरा होता है।
फिल्म शुरू होते ही लगा—निर्देशक सुभाष कपूर इस बार कुछ अलग पकाने वाले हैं। और सच कहूँ, शुरुआती पाँच मिनट ने ही ये भरोसा जगा दिया कि यह फिल्म सिर्फ मनोरंजन की दिशा में नहीं जाएगी, बल्कि आपको थोड़ा भीतर भी आंदोलित करेगी।
पहला ही डेथ सीन—बिना किसी स्पॉइलर के—इतनी खूबसूरती से रचा गया है कि मन एक क्षण को ठहर जाता है। सिनेमाई भाषा में यह दुर्लभ है कि दृश्य दुख भी दे और सौंदर्य भी रच दे।
कहानी जॉली बनाम जॉली। एक जॉली कानपूर का दूसरा मेरठ का l
दिल्ली में दोनों वकील आमने-सामने, दो अलग-अलग सोचें, दो अलग-अलग सफर, और दोनों का टकराव एक ऐसे केस के कारण जिसे निर्देशक पहले हल्की ग्रे परत चढ़ाकर सामने रखते हैं—मानो दर्शक से कह रहे हों, “ज़रा ध्यान से देखना, सच्चाई उतनी सरल नहीं जितनी दिखती है।”
लेकिन धीरे-धीरे मामला स्पष्ट होता जाता है—और हम समझ जाते हैं कि न्याय और अन्याय के बीच खड़ी रेखा कहीं-कहीं अभी भी उतनी ही ठोस है जितनी पहले हुआ करती थी।
अक्षय कुमार को देखकर एक अजीब-सी पुरानी-याद वाली खुशी हुई।
मानो कई औसत फ़िल्मों के बाद वे फिर से अपनी सही लय में लौट आए हों—कॉमिक टाइमिंग, भावनात्मक दृढ़ता, और वो सहजता जिससे वे स्क्रीन को ज़िंदा रखते हैं।
उनकी फुर्ती, ऊर्जा और दृढ़ता उम्र के किसी भी पैमाने से ऊपर लगती है।
वहीं अरशद वारसी—थोड़े कम स्पेस के बावजूद—जहाँ भी आते हैं, दृश्य को वजन देते हैं। लास्ट की उनकी स्पीच एक बार फिर याद दिलाती है कि अभिनय सिर्फ संवाद बोलने का नाम नहीं, बल्कि संवेदना जगाने की ताकत है।
फिल्म का असली दम लेकिन उसके कोर्टरूम में है।
पहले हाफ में कहानी धीरे चलती है—थोड़ी लंबाई महसूस होती है, कुछ दृश्य काटने लायक भी लगते हैं—पर जैसे ही फिल्म दूसरे हिस्से में प्रवेश करती है, कथा एकदम अपने केंद्र में पहुँचती है।
किसानों के मुद्दे को जिस तरह छुआ गया है—ज़्यादा भाषणबाज़ी के बिना, सिर्फ परिस्थितियों के माध्यम से—वह प्रभाव छोड़ता है।
एक माँ का वह एक मिनट का रोना…
सीमा विश्वास जी ने जिस सच्चाई से वह दर्द स्क्रीन पर उतारा है, वह केवल अभिनय नहीं, अनुभव जैसा लगता है। कमरे में बैठे दर्शक को ऐसा महसूस हो कि कोई उसकी तरफ़ देखकर कह रहा हो—“ये सिर्फ कहानी नहीं है।”
फिल्म की सादगी उसकी ताकत है।
कोई अतिरिक्त ग्लैमर नहीं, कोई फालतू स्लो-मो एंट्री नहीं।
हर पात्र अपनी जगह पर, बिना शोर-शराबे के—कहानी को आगे बढ़ाते हुए।
सिनेमैटोग्राफी बेहद संयत है—कहानी को चमकाने की कोशिश नहीं करती, उसे सम्मान देती है।
हाँ, कुछ कमियाँ भी हैं—जैसे जज साहब का अनावश्यक प्रेम कोण, या पहले हाफ की लय का थोड़ा धीमा पड़ जाना।
लेकिन इन कमियों को नजरअंदाज करना कठिन नहीं, क्योंकि फिल्म की केंद्रीय चेतना इतनी साफ, इतनी सच्ची है कि बाकी सब चीजें धीरे-धीरे किनारे हो जाती हैं।
फिल्म यह भी याद दिलाती है कि कानून सिर्फ किताबों का शब्द नहीं है—कभी-कभी यह किसी किसान के टूटे हुए घर का आखिरी सहारा भी होता है।
और यह बात फिल्म बिना भाषण दिए कहती है।
यही उसकी परिपक्वता है।
अंत में—
सीक्वेल अक्सर उम्मीदें कम करते हैं, पर यह सीक्वेल उम्मीद बढ़ाता है।
मन में एक तरह की इज्जत उठती है—निर्देशक के लिए, कलाकारों के लिए, और सबसे अधिक उस कहानी के लिए जो किसानों के संघर्ष को सिर्फ “मुद्दा” बनाकर नहीं, बल्कि एक इंसानी सच्चाई बनाकर पेश करती है।
मेरी तरफ़ से—दिल से कहूँ तो—चार में से साढ़े चार सितारे बिल्कुल उचित हैं।
OTT पर फिल्म देखकर महसूस हुआ कि छोटे शहर में भी बड़े सिनेमा की यात्रा कहीं कम नहीं होती—बस स्क्रीन थोड़ी छोटी होती है, अनुभूति उतनी ही बड़ी।
अगर आपने नहीं देखी…तो जरूर देखें ।
शायद आपको भी उतना ही अच्छा लगे—जितना मुझे लगा।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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