अख़बार में ख़बर आई कि एक अमीर महिला को “दुनिया की सबसे कंजूस करोड़पति” घोषित किया गया है। करोड़ों की मालकिन, मगर खाने-पीने पर खर्च जैसे उसकी जान निकल जाए। कंजूस शब्द का अर्थ तो सब जानते हैं, पर कंजूसी का दर्शन वही समझे जिसने ऐसे जीवों को पास से देखा हो। मानो इनके डीएनए में ही ‘सेविंग’ का जीन बैठा हो।
कंजूस लोग धन को संग्रह करते हैं, उपभोग नहीं। मगर यह भी कहना होगा कि ये लुटेरों और सूदखोरों से फिर भी भले हैं—क्योंकि कम से कम किसी का लूट नहीं करते, बस खुद को ही नहीं खिलाते। इनका आदर्श वाक्य है—“चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए।”
गाँव में हमारे एक मास्टर साहब थे, जिनकी कोई संतान नहीं थी। अमीरी ऐसी कि सूद पर सोना गिरवी रखते, पर मिठाई सिर्फ़ दिवाली पर। एक किलो इमरती सालभर के लिए पर्याप्त। जैसे ही वह खत्म, फिर बारह महीने पाचन और संग्रह का तप।
कंजूसों की एक जाति वह भी है जो सिर्फ़ पैसों में नहीं, व्यवहार में भी कंजूस होती है—बोलने, मुस्कुराने, अभिवादन करने तक में मितव्ययी। कुछ ऐसे भी हैं जो खुद पर खर्च करते हैं पर किसी को दान नहीं देते। उनका फंडा सरल है – “माया स्वंय सुखाय, स्वंय हिताय।”
ऐसे धनकुबेरों की औलादें अक्सर बाप की जमा-पूंजी में सेंध लगाती हैं। बेचारे बाप बीमारियों को भी “कमाई” समझ लेते हैं — “कुछ मिल तो रहा है, जा तो नहीं रहा।” इलाज कराने की जगह घर में ही हरड़-फिटकरी वाले नुस्खे आज़माते हैं, और दवा का कोर्स दस दिन का हो तो पाँच दिन में बाँटकर चलाते हैं।
जहाँ नेता प्रचार से मशहूर होते हैं, वहाँ कंजूस बिना खर्च के ही चर्चा में रहते हैं। मोहल्ले की चाय की थड़ियों पर उनके नाम के क़िस्से चलते हैं। शहर का हर इलाका एक कंजूस के नाम से जाना जाता है — वहाँ डोनेशन माँगने या वोट लेने जाना बेकार है।
हमारे पड़ोस का एक परिवार इस कला का जीवित उदाहरण है। बिजली का बिल आधा क्योंकि घर पड़ोसी की रोशनी में जगमगाता है। वाई-फाई का पासवर्ड दीनता दिखाकर हासिल करते हैं। हर सरकारी योजना में सबसे पहले नाम इन्हीं का होता है — शायद ‘लाभार्थी डीएनए’ भी होता है।
कचरा तक देने की आदत नहीं, इसलिए नगर निगम का कर्मचारी भी इनसे संतुष्ट। एक बार चूहा घर में घुसा तो पाँच दिन भूखा रहा; जब बहू की गलती से रोटी बाहर रह गई, चूहा ले भागा। रोटी गायब देख शोक में अंकलजी ने खुद एक रोटी कम खाई। बाद में जब वह बासी रोटी मिली तो उसे गली के कुत्ते को खिलाया गया — और तब से कुत्तों ने सामूहिक निर्णय लेकर उस घर का बहिष्कार कर दिया।
अंकल-आंटी ने बीस साल पुराना पर्चा संभाल रखा है—हर बीमारी में उसी से दवा लेते हैं। डॉक्टर और वे—दोनों के बीच “म्यूचुअल न दिखने” का समझौता है।
एक दिन मैंने सलाह दी, “अब चारधाम यात्रा कर लीजिए।” वे बोले, “भगवान सर्वव्यापी हैं, घर में ही चार धाम हैं।” दार्शनिकता और कंजूसी का ऐसा समागम दुर्लभ है।
घर की बहुएँ रोज़ किसी न किसी चीज़ के लिए घंटी बजा ही देती हैं—कभी दही, कभी चायपत्ती। जब घर में फ्रिज आया, तो कॉलोनी ने जश्न मनाया। मोटरसाइकिल, गैस सिलिंडर, यहाँ तक कि पानी तक — सब पड़ोसी सप्लाई करते हैं।
दरअसल कंजूसी को “मितव्ययिता” कहकर सम्मानित किया जा सकता है। अगर इसे राष्ट्रीय गुण घोषित कर दिया जाए तो ऐसे परिवार “हैंड्स-ऑन वर्कशॉप” में ट्रेनर बन सकते हैं।
कहते हैं, ये लोग लंबी उम्र जीते हैं — शायद इसलिए कि जिंदगी भी बहुत संभालकर खर्च करते हैं। और जब कोई इनके रहन-सहन पर तंज कस दे, तो जवाब तैयार रहता है — “हम तो गांधीजी के ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ पर चलते हैं।”
अब सोचिए — इस व्यंग्य को यहीं खत्म कर दूँ ,थोड़ी कंजूसी मुझे भी बरतनी चाहिए ताकि यह पत्रिका में छाप सके ! क्या ख्याल है आपका ?

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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