श्रीमती जी का व्रत
डेस्कटॉप पर बैठा मैं कुछ संपादकों की रचनाओं के संदर्भ में आए मेलों को खंगाल ही रहा था कि श्रीमती जी चाय लेकर आ गईं। यूँ तो श्रीमती जी मुझे मेरी फीकी ज़िंदगी से मेल खाती हुई फीकी चाय देने के साथ ही खुद की मीठी रसभरी चाय और अख़बार लेकर पास ही बैठ जाती हैं। मैं भी अख़बार की ख़बरों को पढ़ने की बजाय सुनने का आदी हो गया हूँ — श्रीमती जी के मुखारविंद से कुछ ख़बरों को अपने एक अर्ध-चौकन्ने कान से श्रवण करके दूसरे कान से निकाल देता हूँ।
लेकिन आज वो सब नहीं हुआ। कप एक ही था — मेरी फीकी चाय वाला, दूसरा कप नदारद, और अख़बार भी हाथ में नहीं। चेहरा सुबह-सवेरे ही मलीन-मुरझाया-सा। समझ गया — आज श्रीमती जी का चौथ का उपवास है। इस संकेत के साथ ही मेरी जितनी भी ज्ञानेंद्रियाँ शरीर में यत्र-तत्र-सर्वत्र लगी हुई थीं, सभी चौकन्नी हो गईं।
महीने में एक दिन ये आता है। वैसे तो सास-बहू के डेली सोप, जो कि भारतीय संस्कृति के “सीरियल किलर” साबित हो रहे हैं और देश की बाज़ारीकरण की अंधाधुंध दौड़ में लड़खड़ाते भागते मध्यवर्गीय कुनबे को बताया गया है कि चौथ सिर्फ एक ही है — करवा चौथ। इस करवा चौथ के महिमामंडन ने बाकी साल की ११ चौथों के महत्व को एकदम नकार दिया है।
मैंने स्थिति की गंभीरता को भाँपकर एक बार फिर श्रीमती जी को — गर्मी के तपते दिन, बड़े दिन और चाँद के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार (क्योंकि चाँद भी सरकारी कर्मचारी की तरह हो गया है, जो कभी समय पर दिखता ही नहीं) — सबका हवाला देकर व्रत न रखने की गुहार की। लेकिन श्रीमती जी तो मुझे सात-सात जन्मों तक पाने की इच्छा के वशीभूत इसे ताजिंदगी निभाने का मन बना चुकी थीं। मेरा प्रयास एक बार फिर विफल हुआ।
मैंने फिर एक बार औपचारिक रूप से अपने आप को इस व्रत में शामिल होने की पेशकश की — वैसे ही जैसे मरीज़ के भर्ती होने पर रिश्तेदार खून की ज़रूरत होने पर खून देने की पेशकश करते हैं। श्रीमती जी को पता है मेरी ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ वाली हालत का, इसलिए मुझे भूखा रखकर अपने व्रत के प्रताप को कम नहीं कर सकती थीं। बस फिर क्या, व्रत की तैयारियाँ शुरू हो गईं।
सबसे पहले मैंने सुनिश्चित किया कि कामवाली बाई ने छुट्टी तो नहीं ले ली। क्योंकि अगर कामवाली बाई आज के दिन छुट्टी पर है तो श्रीमती जी का पारा सुबह-सुबह ही गर्म हो सकता था। फिर एसी चलाकर देखा कि ठीक से काम कर रहा है या नहीं — आज दिनभर श्रीमती जी का भन्नाया माथा ठंडा जो रखना था।
फ्रिज में बाज़ार से मंगवाकर आम, केला, सेब, दही, लस्सी के लिए ठंडाई, रूह अफ़ज़ा आदि रख दिए थे। व्रत में दिनभर फलाहार पर ही श्रीमती जी को रहना था। चाँद उगने का समय देखा गया — ये मौसम विभाग की भविष्यवाणी भी नेताजी के बयान की तरह है, कब पलट जाए कोई भरोसा नहीं। फिर भी चाँद उगने का समय रात 10 बजे का बताया जा रहा था।
श्रीमती जी ने सुबह 8 बजे से 10 बजे तक हर एक घंटे में क्या फलाहार-द्रवहार लेना है, उसकी लिस्ट बना ली थी। मैंने भी दिनभर के लिए अपनी by default भूखी-रूखी-सी शक्ल अपने चेहरे पर ओढ़ ली — जैसे कि मैं भी व्रत में हूँ। आज मोबाइल भी कम देखना है, टीवी पर कोई खाना-खज़ाना नहीं देखना है। शाम की बनने वाली रसोई की व्यवस्था भी देख ली थी।
दिन के खाने में श्रीमती जी ने बार-बार पूछा कि क्या बना दें — मैंने सिंपल दाल और चपाती के लिए ही कहा। अब श्रीमती जी भूखी रहें और आप मलाई कोफ्ता खाएँ — ये तो अच्छा नहीं है ना!
व्रत हमने भी रखे हैं
बचपन का दौर था, मित्र! उपवास रखा जाता था सिर्फ इसलिए कि उपवास के दिन आलू का हलवा मिलता था। अब उपवास का हमारे शरीर में कोई वास नहीं रहा! पहले आलू के हलवे के लिए व्रत करने की फरमाइश, अब श्रीमती जी के हमारे सलामती के लिए रखे जाने वाले व्रत के प्रति हमदर्दी जताने के लिए थोथी फरमाइश — जिसे श्रीमती जी हँसकर टाल देती हैं। कहती हैं, “रहने दो, तुमसे नहीं होगा।”
वैसे भी श्रीमती जी नहीं चाहतीं कि जिसके लिए व्रत रख रही हैं, अगर वो भूखा-प्यासा रहेगा तो व्रत का प्रभाव कम हो जाएगा। वैसे पतियों को तो चाहिए कि मौन व्रत रखकर ही गृहस्थी की गाड़ी को सही प्रकार से चलने में सहयोग करें। बस आप फालतू की चिल्ल-पों और ज्ञान-ध्यान से पत्नी के कार्यों में विघ्न न डालें। पत्नी जिसे आपको ससुराल वालों ने गौदान के रूप में दिया है, वो बिना सींग वाली नहीं है — इसका ध्यान रखें। ज़्यादा चिल्ल-पों करेंगे तो कब मरखनी गाय में बदल जाएगी, पता नहीं चलेगा।
अच्छा, जिस दिन व्रत होता है, उस दिन तो पत्नी वैसे भी रणचंडी बनी भूखी शेरनी में तब्दील हो जाती है। उस दिन आप पंगा लेने की सोचें भी नहीं — ये जनहित में जारी बयान है। आपका काम है हर आधे घंटे में रात को छत पर चाँद देखने जाना। और हाँ, आप छत पर जाएंगे तो आपको कई चाँद नज़र आ जाएंगे। आप गलत समझ रहे हैं — मैं पड़ोस की भावियों की बात नहीं कर रहा, उनके पतियों की बात कर रहा हूँ, जिन्हें आपकी तरह छत पर चाँद देखने के लिए भेजा गया है। आपकी निगाहें एकटक चाँद को देखने में लगी रहनी चाहिए।
भूलवश कहीं उनकी अधगंजी खोपड़ी, जो मोहल्ले की स्ट्रीट लाइटों में चमक रही है, उसे चाँद समझकर बीवी को अर्घ्य देने के लिए बुला लिया — तो फिर आपका रामजी ही भला करे!
वैसे आज के अल्ट्रा मॉडर्न ज़माने में हर स्थिति की वैकल्पिक व्यवस्था लोग अपना ही लेते हैं। लोग अपने दूसरे राज्यों या शहरों के रिश्तेदारों से संपर्क में रहते हैं। जहाँ कहीं भी चाँद उग गया हो, वहाँ से वीडियो कॉल के ज़रिए चाँद दिखा देते हैं और व्रत खोल लिया जाता है। होना भी चाहिए — इस चाँद का क्या भरोसा! बिल्कुल देश के नेता की तरह हो गया है, एक बार चुनाव में दिखे, उसके बाद तो तुम कहो तो पूरे पाँच साल नहीं दिखे। यहाँ जनता बेचारे इनके दर्शन को और इन्हें जल-तर्पण करने को तरसती है।
खैर, दिनभर ‘चंदा मामा’ से प्रार्थना करता रहा कि आज मामाजी समय पर ही दर्शन दे देना — आपकी भांजा-बहू की खातिर कम से कम! दो-मंज़िला छत पर बार-बार चाँद को देखने जाना भी बहुत बड़ा टास्क है। पास के मोहल्लों की लाइटें भी चाँद नज़र आती हैं, शायद कुछ आँखें भी बूढ़ी हो गई हैं।
एक बार तो मोहल्ले की स्ट्रीट लाइट को ही चाँद समझकर व्रत खुलवा भी दिया था — श्रीमती जी बहुत नाराज़ हुईं। तब से मैंने अपने स्टाफ को भी चाँद देखने के लिए ड्यूटी लगा दी। चाँद भी डॉन की तरह है — चैलेंज करता है, “मुझे देखना मुश्किल ही नहीं, असंभव है।” लेकिन मेरे नाइट स्टाफ को विशेष ट्रेनिंग दी गई है। बस भगवान से प्रार्थना है — मामाजी आज दिख ही जाएँ!

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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