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“लिखें तो लिखें क्या ?”–व्यंग रचना

humorous and chaotic atmosphere of the doctor's clinic that doubles as his writer's den. The doctor's perplexed expression and the mix of medical and literary items highlight his comical struggle between the two vocations.

एक लेखक के लिए क्या चाहिए? खुद का निठल्लापन, उल-जलूल खुराफाती दिमाग, डेस्कटॉप और कीबोर्ड का जुगाड़, और रचनाओं को झेलने वाले दो-चार पाठकगण। कुछ जानकार प्रकाशकों से भी जुगाड़ बिठा ही लिया है, बस अब तो विषय चाहिए, जिस पर लिखना है ।कुल मिलकर शतरंज की बिसात तो बिछा ली लेकिन मोहरे अभी गायब हैं, अब लिखने की विधा में सच पूछो तो व्यंग रचना लेखन सब से कठिन विधा है ,दूसरों की फिरकी लेने के चक्कर में कब खुद की फिरकी लग जाती है पता नहीं चलता .

अब लिखने का शौक चढ़ा है तो साथ ही एक समस्या जो गेहूं में लगे घुन की तरह मेरी काया को अंदर ही अंदर खोखला कर रही है. वो तो आदमी की फितरत है न, चैन से नहीं बैठ सकता। अच्छी खासी डॉक्टरी चल रही थी, ये लिखने का शौक न जाने कहां से चिपक गया.

डीजिटलाइजेसन के युग में लिखने के लिए आजकल पेन और पेपर की जरूरत नहीं रही, वरना मेरी लेखनी की कला तो प्रिस्क्रिप्शन पर दवाइयां लिखने तक सीमित थी। बचपन में भी एग्जाम के दौरान आंसर शीट में जो लिख कर आते थे, उसे एग्जामिनर किसी दूसरी भाषा का मानकर हमे प्रकांड विद्वान समझकर मार्क्स दे देते थे। उन्हें डर था कि कहीं मैं आरटीआई के अधिकार के तहत कॉपी जांचवाने या रीएवैल्यूएशन की दरख्वास्त नहीं लगा दूं और शिक्षक की नौकरी पर बन आए.

अब उस समय लेखनी को इंटरप्रेट करने के लिए कोई फार्मासिस्ट भी नहीं बिठाते थे। आजकल तो कम से कम यह लक्जरी तो है कि आपके लिखे को समझने के लिए फार्मासिस्ट हैं जिन्हें आप अनुबंधित इंटरप्रेटर के रूप में सीमित पाठकों की श्रृंखला में रख सकते हैं।

वैसे लेखनी के शौक के लिए फिर पाठकों की जरूरत भी होती है, उसका इंतजाम तो मैंने कर लिया है। कुछ मेडिकल रिप्रजेंटेटिव से कहा है, “भाई मेरी रचनाएं पढ़ लो, मेरी पुस्तकों को अमेजन से मंगवा लो, बदले में तुम्हारी दवाइयां लिख दिया करूंगा।” हालांकि मेरा प्रस्ताव शायद उन्हें पसंद नहीं आया और मेरे यहां उनकी आने की तादाद भी कम हो गई है। वैसे भी मैंने विजिट का समय वो रखा है जब मैं खुद मोबाइल साइलेंट करके अपने शयन कक्ष में आराम कर रहा होता हूं।

खैर, मुख्य विषय पर आते हैं। जब सब कुछ सेट हो गया है , बस एक लेखक के लिए क्या चाहिए? खुद का निठल्लापन, उल-जलूल खुराफाती दिमाग, डेस्कटॉप और कीबोर्ड का जुगाड़, और रचनाओं को झेलने वाले दो-चार पाठकगण। कुछ जानकार प्रकाशकों से भी जुगाड़ बिठा ही लिया है, बस अब तो विषय चाहिए, जिस पर लिखना है ।कुल मिलकर शतरंज की बिसात तो बिछा ली लेकिन मोहरे अभी गायब हैं, अब लिखने की विधा में सच पूछो तो व्यंग रचना लेखन सब से कठिन विधा है ,दूसरों की फिरकी लेने के चक्कर में कब खुद की फिरकी लग जाती है पता नहीं चलता . इस विधा में सिर्फ पात्र का वर्णन नहीं होता ,पात्र की फिरकी ली जाती है, अब कौन मेरी रचनाओं के लिए मोहरा बनेगा, ये घंटी किस बिल्ली के गले में बांधना है बस इसी कशमकश में दिन का आराम और रात की चैन खो बैठा हूँ .

सबसे पहले पत्नी याद आई। जैसा कि चिरंतन काल से पत्नी विषय पर हास्य-व्यंग्य, कविताएं लिखी जा रही है .समस्त रीति काल, छायावाद, प्रगतिवाद युग के साहित्य सृजन में पत्नी के कारनामों का अप्रतिम योगदान रहा है। हिम्मत नहीं हुई कि जीवन के इस पड़ाव पर पत्नी के ऊपर लिख कर बिल्ली के गले में घंटी बांधी जाए। मैं अब कालिदास जैसा मूर्ख नहीं कि जिस डाल पर बैठूं, उसे ही काट डालूं। फिर घर निकाला इस उम्र में देश निकाले से भी ज्यादा पीड़ादायक होगा, इसलिए विचार त्याग दिया।

बच्चों पर लिखने की सोची, लेकिन बच्चे तो इंतजार कर रहे हैं मेरे इस शौक के तूफान का जल्द ही थम जाने के लिए। उनके ऊपर लिखने की बात सोच भी नहीं सकता। एक बार मैंने गलती से बच्चों के साथ का फोटो फेसबुक पर डाल दिया तो बच्चों ने मुझे ब्लॉक ही कर दिया। प्राइवेसी इश्यू की चिंता बच्चों को ज्यादा है ! शायद यही जनरेशन गैप है। सोशल मीडिया में हम गुजरे जमाने का क्या काम, लेकिन आज तो जैसे हमारे और हमसे ज्यादा बूढ़े लोग ही फेसबुक पर काबिज हैं। चाहे उम्र छिपाने के लिए डिस्प्ले पिक में किसी नए नवोदित रॉकस्टार की तस्वीर लगा रखी हो या अपनी 20 साल पुरानी पिक।फेसबुक और व्हात्सप्प का गोवर्धन पर्वत तो जैसे हमने ही उठा कर रखा है .

फिर ख्याल आया कि पड़ोसियों के ऊपर लिखूं। पड़ोसी वैसे ही मुझसे खफा हैं। एक से एक बार फीस ले ली थी,वो भी गलती से,दरअसल मरीजों की भीड़ में शक्ल पहचान नहीं पाया था,वो नाराज ।एक पड़ोसी का रात को 12 बजे फोन आया, मैंने फोन साइलेंट मोड पर होने के कारण मिस कर दिया, तभी से खफा है। एक पड़ोसी ने कचरा मेरे घर के सामने कर दिया था, मैंने शिष्टता वश उसे हटाने को कहा, उसने पुराने पड़ोसी का हवाला देते हुए कहा, “उन्होंने कभी ऐतराज नहीं किया,” बस इसी बात पे खफा हो गया। एक बचे हुए पड़ोसी ने घर के सामने कार पार्क कर रखी थी, मैं खुद की कार लाया, उनसे कार हटाने की मिन्नत की, उस पर नाराज हो गया, “पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है,” उसकी दुहाई भी दी। मैं उसकी दुहाई की पुकार को नजरअंदाज कर गया। अब इन पर लिखूंगा तो निश्चित ही सभी मेरे खिलाफ लॉबींग करेंगे और मुझे शायद कॉलोनी बदलनी पड़े। तो यह विचार भी त्याग दिया।

शहर में उग आये समज सेवी संस्थाए और उन के पदों पर काबिज तथाकथित समाज सेवकों बनाम समाज के ठेकेदारों पर लिखने का मन बनाया, लकिन डर है की ये मुझे असामजिक घोषित कर के मुझे समाज से बहिष्कार नहीं कर दें ,फिर तो मेरे बच्चों के शादी ब्याह में रोड़ा अटक जाएगा ,भाई अब कोई झोला उठाये साधू फ़कीर तो हु नहीं ,बीबी भी साथ ही रहती है ,ग्रहथी वाला हु इसलिए दुनियादारी का ख़याल भी रखना पड़ता है .

शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आयी नेताओं की पौध पर लिखने की तो सोच भी नहीं सकता ,शहर की जनता इनके रहमो करम पर पली बड़ी है ,मुझे किसी ख़ास पार्टी का मोहरा घोषित कर देगी ,और हो सकता है , कोई पार्टी मुझे अपने पार्टी की जबर्दासी मेम्बरशिप थोपकर मुझे कोई पद का पुछल्ला पकड़ा दे , या ‘चढ़ जा बेटा सूली पर’ जैसे भाव से मुझे चुनाव लड़ने का सब्जबाग दिखाकर र्मेरी अच्छी खासी ग्रहथी का बंटाधार कर दे .

फिर शहर के सरकारी महकमों की नाकामी, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद, बदहाल स्थिति पर लिखने का मन हुआ। फिर डर लगने लगा कि इन सरकारी महकमों से तो रोज वास्ता पड़ता है। मेरे हॉस्पिटल को चलाने के लिए दस दस्तावेजों की फॉर्मेलिटी का काम इनके रहमो-करम से हो रहा है, सब बंद हो जाएगा। अब लेखनी से तो रोजी-रोटी चलती नहीं न, आखिर पेट तो डॉक्टरी से ही भरेगा। सो यह विचार भी त्याग दिया।

फिर ध्यान आया, आज की पत्रकारिता, गोदी मीडिया, विज्ञापन लोभी पत्रकारिता, अखबार को तीये की बैठाक राशिफल और बूझो तो जाने जैसी पहेलियों से भरने वाली, विज्ञापन देने वालों के गुणगान चरित्रों से अटे रहने वाली पत्रकारिता पर कुछ लिखूं। फिर याद आया ये तो वैसे ही मुझसे रूष्ट हैं। इन्हें विज्ञापन देने से मना किया हुआ है, सभी मेरे खिलाफ लामबंद हो गए हैं। अब इनके बारे में लिखूंगा तो कल ये भी मेरे बारे में अनाप-शनाप लिख कर शहर की गपशप में मुझे शामिल कर देंगे।

क्या करें, विषय कुछ सूझ नहीं रहा। अब अगर कोई निबंध, स्तुति गान ,समीक्षा ,आलोचना लिखनी होती वो बड़ा आसान थी । व्यंग्य लिखना तो वैसे ही दोधारी तलवार है। तलवार निकाल तो ली है लेकिन अब न तो इसे चलाना आ रहा है न इसे वापस म्यान में रखना।

बड़ी दुविधा में हूँ। पाठकों से ही आग्रह है कि कोई समाधान सुझाएं।

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