क्या पापा – लोल – “लोल हो गया संवाद”
सुबह की ठंडी बयार में एक समूह वृद्धजनों का, बड़े शहरी ‘लाफ्टर क्लब’ की तर्ज़ पर बना, पार्क में घूमता नज़र आता है। कानों में उनके ज़ोर-ज़ोर से लगाए गए अट्टहास की ध्वनि पड़ती है। ऐसा लगता है जैसे उनकी हंसी का कंपन धरती को हिला देगा। अच्छा भी लगता है—कम से कम उम्र के इस पड़ाव पर ही सही, फिसलती जा रही ज़िंदगी पर हंसी के ब्रेक तो लगा रहे हैं!
सोशल मीडिया पर भी मैंने एक ऐसा ही ‘लाफ्टर क्लब’ देखा—“लोल ग्रुप”! हाँ, वही लोल, जिसे आप सोशल मीडिया की गूढ़ भाषा कह सकते हैं। आजकल भावनाएँ गुप्त कोड की तरह भेजी जाती हैं, जैसे कोई मिशन हो! न कुछ बोलने की ज़रूरत, न ज़ाहिर करने की—तीन ख़ूबसूरत वाक्यों से सिमटकर अब तीन अक्षरों पर आ गई ज़िंदगी। लोल लिख दो या उसका एक इमोजी डाल दो। मतलब—हंसी डिजिटल हो गई है! अब हंसी मुँह से नहीं, उँगलियों के टाइप करने से आती है। डिजिटल युग में भावनाओं को भी तकनीक ने ठेके पर ले लिया है।
ग्रुप में जुकर भाई के कुछ अवैतनिक पोस्टवीरों द्वारा चुटकुले डाले जाते हैं। बदले में आपको हंसी आए या न आए, बस बंदे का दिल रखने के लिए कमेंट में लोल टाइप करना अनिवार्य होता है! हंसी का भी फ़ॉर्मेट तय कर दिया गया है। लोल आपने लिखा, इसका मतलब आपमें हंसने का पोटेंशियल है, आप एक ज़िंदा इंसान हैं! कमाल देखिए—हकीकत में हंसने को तरसती पीढ़ी कम से कम डिजिटल रूप से ही “बुक्का फाड़कर” हंस रही है—वो भी फर्श पर लोटपोट होते, टाँगें ऊपर उठाकर, पेट पकड़कर! वाह! जी हाँ, सिर्फ़ लोल ही नहीं, रॉफ्ल भी कर लेगी, और ज़्यादा कहेंगे तो रॉफ्लएमएसओ भी! मतलब—हंसी की हद पार करके अट्टहास, रावण जैसी हंसी—वो भी कुर्ता फाड़कर! इन गोलमटोल इमोजियों को देखो—जो तुम्हें वहाँ निरूपित कर रहे हैं, तुम्हारे फ़ेक इमोशन को और बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे हैं भाई… चाहे असल ज़िंदगी में तुम्हारी शक्ल रूठे फूफा की कार्बन कॉपी ही क्यों न हो।
मैंने यह दिलचस्प बात अपने बेटे को बताई। सोचा—थोड़ा हंस लेगा, शायद मुस्कान देख लूँ उसके चेहरे पर। लेकिन वो सच में अम्यूज़ हो गया! और फिर पूरी गंभीरता से बोला—“क्या पापा, लोल!”
मैंने कहा—“बेटा, यह लोल तो लिखने की चीज़ है, सामने वाले को दिखाने की कि तुम्हारी बात पर मैं इतना हंसा कि ज़मीन पर गिर पड़ा! बुक्का फाड़कर हंस रहा हूँ! अबे, तू मेरे सामने बैठा है, तो लोल लिखने की क्या ज़रूरत? ज़रा करके दिखा न!” अब सवाल यह है कि बंदा सामने खड़ा है, हँस क्यों नहीं रहा? सिर्फ़ अक्षर क्यों फेंक रहा है? क्या यह हँसी भी अब ‘डिजिटल डाउनलोड’ से आएगी?
बेटा मुस्कुराया और मज़ाक में बोला—“पापा, चलो, थोड़ा सा ‘सैल्ब’ कर देते हैं!”
मैं चौंक गया—“ये क्या है सैल्ब?”
बेटे ने समझाया—“स्माइलिंग ए लिटिल बिट! मतलब हंसने की औपचारिकता भी डिजिटल कर दी गई है।”
मैं बेटे के चेहरे की तरफ़ देख रहा था। मेरा लाल, भले लोल नहीं, लेकिन कम से कम सैल्ब तो कर ही रहा था!
आजकल घर में संवाद चलाना भी किसी गूगल ट्रांसलेट का प्रैक्टिकल करने जैसा हो गया है। हमने सोचा कि बेटे से थोड़ा दिल की बात करें। बोले—
“बेटा, ज़िंदगी में धैर्य रखो, काम पर ध्यान दो।”
बेटे ने मोबाइल पर उँगली घुमाते हुए कहा—
“ओके बूमर!”
हमें लगा ‘बूमर’ कोई बम-फोड़ू संगठन है जिसने हमारे धैर्य को ही उड़ाने की धमकी दे दी हो। लेकिन पता चला यह जनरेशन ज़ेड का प्रिय ताना है, मतलब—‘पुरानी पीढ़ी’।
हम चुप रहे।
फिर एक दिन हमने कहा—
“बेटा, खाना खा लिया?”
उत्तर आया – “बीआरबी।”
हमने सोचा यह कोई नई बिरयानी है – “ब्राजिल बिरयानी” जैसी! मैंने कहा—“बेटा, स्विगी पर ऑर्डर कर दे या रहने दे, घर की बिरयानी खाकर तो मैं पहले ही बोर हो गया हूँ।” बाद में पता चला इसका मतलब है—“बी राइट बैक” यानी “अभी आता हूँ।”
कभी “रॉफ्ल” कर देता है तो हम सोफ़े से उठकर देखने लगते हैं कि कहीं बच्चा सचमुच फर्श पर लोट तो नहीं रहा। अभी-अभी ऑनलाइन शॉपिंग से मँगाए गए कपड़े ख़राब न कर दे… अभी तो उसे पार्टी में पहनने के बाद ही रिटर्न करना है!
फिर बोलता है—“पापा, आप भी… सच में आई एम लैमो।”
मैंने कहा—“अब ये क्या बात हुई! हम आपको कुछ सलाह दे रहे हैं और आप इस तरह जा रहे हैं? हमने तो इसे नज़रअंदाज़ किया। हमें तो ‘लामा’ शब्द मेडिकल पीजी के दौरान याद आता था—‘लेफ्ट अगेंस्ट मेडिकल एडवाइस’, जब कोई मरीज़ इलाज की यातनाओं से घबराकर बिस्तर छोड़कर भाग जाता था। लेकिन ये ‘लैमो’! मैंने सोचा शायद ‘एडवाइस’ की जगह ‘ओपिनियन’ कर रहा होगा।”
बाद में पता चला कि यह ‘लाफिंग’ का ही एक्स्ट्रीम ग्रेड है, अट्टहास जैसा। जिसमें मुँह की जगह शरीर का नीचा हिस्सा ही ट्रैक से उतर जाता है!
“आईडीके” सुनकर हम समझते हैं कि “अरे डॉन्की” कहकर हमारा अपमान किया जा रहा है, शायद “अरे गधे” का इंग्लिश वर्ज़न होगा। जबकि बच्चों का कहना है—“आई डोंट नो।”
अब भला भाषा का ऐसा विकास कि पिता गधा और बेटा ज्ञानी बन जाए!
जनरेशन गैप अब सिर्फ सोच का नहीं, टाइपिंग स्पीड का भी हो गया है। हम एक-एक अक्षर खोजते रहते हैं, और सामने वाला “डब्ल्यूवाईडी, टीबीएच, एसएमएच, एनजीएल” जैसी बमबारी कर देता है। लगता है जैसे वह कोई मिसाइल कोडिंग कर रहा हो और हम देवनागरी की मात्राएँ जोड़ने में ही फँसे हों।
असल समस्या यह नहीं कि नए शब्द आए हैं। समस्या यह है कि अब भावनाएँ भी इमोजी और शॉर्टकट में आउटसोर्स हो गई हैं।
प्यार जताना है तो ❤️,
गुस्सा जताना है तो 😡,
रोना है तो 😭।
हमारे ज़माने में ये सब काम मुँह, गला और आँसू करते थे, अब सब मोबाइल करता है। भाषा का यह स्लैंग-युग एक नया “इंटरनेट संस्कृत” है। फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें ‘वेद मंत्र’ की जगह ‘लोल मंत्र’ हैं।
हमारी पीढ़ी जितनी मेहनत जीवन बनाने में करती थी, ये पीढ़ी उतनी मेहनत शब्द तोड़-मरोड़कर लिखने में करती है।
पर हाँ, एक बात तय है—इस टकराव में जो सबसे ज़्यादा ‘लोल’ हो रहा है, वह है—हमारा धैर्य।
डिजिटल युग में हम असली हंसी भूल गए हैं, मगर उँगलियों के ज़रिए हंसना नहीं भूले! हंसी को भी शॉर्टकट और इमोजी में समेट लिया गया है। भगवान जाने, आगे हंसने की भी कोई ऐप न आ जाए!

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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Bhaut achcha LOL
thanks