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नाम बड़े काम की चीज है –हास्य व्यंग रचना-डॉ मुकेश

Satirical commentary on the contemporary practices of naming in the digital age, where traditional religious ceremonies have been replaced by technological solutions and numerology. The article discusses the transformation from culturally rich naming conventions that connected individuals with their religious and family heritage, to a superficial quest for unique and sometimes meaningless names facilitated by specialized websites and numerologists.

आज के इस जुगाडी युग में, जहां हर चीज के लिए एक विशेष संगठित उद्योग का जुगाड हो चुका है, वहां नामकरण संस्कार भी इस जुगाड़ की दौड़ में पीछे नहीं है। ऐसे आयोजन जो कभी धार्मिक और पारंपरिक अनुष्ठान हुआ करते थे, आज उन्हें कुछ ख़ास अलग और सही मायने में बेढंगा बनाने के लिए विशेष साइटें और शब्दकोश हैं। लोग ऐसे-ऐसे नामों की खोज कर लाते हैं जिनका अर्थ समझने के लिए आप प्राचीन पुराण, पोथे, काव्य खंगालें फिर भी मजाल की आप उसका मतलब निकाल पायें,हारकर बच्चे के पेरेंट्स का ही गढा हुआ आर्थ आपको मानना पड़ेगा |

बीती बातें हो गयी उस समय की जब नामकरण का काम घर के बुजुर्ग,या आपके परिवार के कुल पंडित जी के हाथों में होता था। वे जो नाम सुझाते, उसमें राम या किसी और हमारे इष्ट देवों का नाम जोड़कर, नाम न केवल एक साधारण शब्द रह जाता था, बल्कि वह पूरे परिवार के लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन बन जाता था।

नाम अब सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक पहचान बन गए हैं,लोग नाम की पहचान के साथ ऐसे चिपक गए है की उन्हें लगता है वो जगत में नाम छोड़कर नहीं जायेंगे इसे साथ ही ले जायेंगे जैसे युधिस्टर जी कुत्ते को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे
आद्यात्म और दर्शन बता रहा है-नाम की महिमा,नाम जपो,नाम गुणगान करो, लोगों ने समझा खुद के नाम की बात हो रही है शायद , दर्शन शास्त्र और आद्यात्म की जगह अब न्यूमेरोलॉजी और अन्य नाम शास्त्रों ने ले ली है, नामकरण की डिक्शनरी, ऑनलाइन साइटें , बड़े बड़े नुमेरोलोजीस्ट के दफ्तर धड़ल्ले से खुले जा रहे है.

आज कल के नामकरण संस्कारों में, ‘दुनिया में इकलौता नाम मेरे बच्चे का हो ‘बस इसी खोज मे लोग पगलाये जा रहे है ,
बड़ी बड़ी सेलेब्रिटी अपने नाम को लेकर इन नयूमेरोलोजिस्ट के पास चक्कर लगा रही है ,कोई नाम में अ बढ़वा रहा है,कोई एक्स्ट्रा ओ या एच लगवा रहा है ,अब तो फिल्मों के नाम भी इन नामशास्त्रियों की गणित फलन के हिसाब से रखा जा रहा है. ऋतिक रोशन ने नाम के आगे एच लगवा लिया, एकता कपूर की फिल्मों,सेरिअलों के नाम क से शुरू होते है ,सब इसी की देन है

इस सब उलट पलट से दूर कहीं एक हमारा बचपन था, पंडित जी से जन्मपत्री बनवा लेते थे। जो पंडित अक्षर बताता, उस नाम के आगे राम का नाम आगे या पीछे लगाकर नाम को ही पूरे परिवार के लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन मानते थे। चलो इस बहाने घर में राम का नाम बोला जाएगा। घर में बुजुर्ग बड़ों की जिह्वा पर भी राम नाम आ जाता था, मरते वक्त भी माया में विचरण करने वाली आत्मा अंतिम समय में कह ही देती थी “अरे छोरा राम फल, तू यहाँ क्या कर रहा है, दुकान कौन संभालेगा तेरा बाप |

वैसे गांवों में नाम रखना बहुत ही सरल प्रक्रिया थी,इस पर ज्यादा कोई ध्यान नहीं दिया जाता, बाप भी सोचता था की बेटा कपूत निकले या सपूत नाम तो बाप का ही खराब या अच्छा करेगा ,नाम से ज्यादा कुल खानदान के नाम की फिकर थी –अब खानदान के नाम भी बड़े अजीब थे, जैसे हमारा खानदान टेका, इसके आलावा चिड़िया , चेंटा ,कटे, नंगे, आदि नाम होते थे.
कई कस्बों में तो भूतनी के, डाकिन के,आदि नाम भी सुनने को मिलते है |

खैर नामकरण की प्रक्रिया इतनी सरल थी की जो घसीट के चलता वो घसीट्या, जो धूल में ज्यादा खेलता वो धूलिया, जिसकी नाक किसी चोट से कट गई और नाक पे स्कार बन गया वो नकटा, जो गोल मटोल था गोलू। चूंकि में जिस क्षेत्र से मैं आता हूँ वहाँ अवधी ब्रज, बुंदेलखंडी, धुंधाड़ी, मेवाड़ सभी का मिश्रण है, इसलिए नामों के आगे आ या इ शब्द लगाकर पुकार आता है, किरोड़ी को किरोड़या, सफेदा सफेदया, हीरा को हीरया, घूर सिंह घूर्या, मूल सिंह मूल्या आदि।और तो और गिनतियां ही नाम का काम करती, इस बहाने बच्चा आराम से १० तक की गिनती तो गिन ही लेता। इस बहाने परिवार ने कितने बच्चे पैदा कर दिए इस की संख्या का भी गुमान रहता ,और बच्चों में छोटे बड़े का पता भी लग जाता जैसे पहले पैदा हुआ पूर्वा, दूसरा बच्चा दूज्या , तीसरा तीज्या, चौथा चौथया , पांचवा पंज्या आदि। इसी बीच मे अगर बच्ची हो जाती तो ई की मात्रा लगा देते जैसे दूसरी बच्ची तो दूजी, तीसरी तो तीजी। औरतों को तो अपना सरनाम रखने की भी परम्परा नहीं है जब तक कुंवारी तो कुमारी रही शादी के बाद पति का कुलनाम लग गया, वैसे भी स्त्रियों को कौन नाम से जानता जाता है गाँव में फलाने की बहु , मन्नू की भुआ, बिल्लू की चाची, छुट्टन की अम्मा, गोलू की काकी, भूरा की ताई आदि नाम से ही जानते हैं।

बच्चों के जन्म दिवस को याद रखने की जरूरत तो होती ही नहीं थी, उस समय कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं से बच्चे की जन्मदिवस को बुकमार्क कर लेते थे – जैसे ५६ निया अकाल पड़ा ना जब ये दो साल का था जी, जब इंदिरा गांधी जी की हत्या हुई ना तब इसके दो दिन पहले ही जन्मा जी। फिर नाम का थोड़ा राजनीतिकरण हुआ, और बड़े राजनीतिक परिवार फिल्मकारों के परिवार का सर्वनाम ही गाँवों में मुख्य नाम होने लगा जैसे कपूर, गांधी, मिश्रा,ठाकुर,श्रीवास्तब । ये उपनाम नहीं मुख्य नाम होने लगे। इसके साथ ही एक प्रचलन और चला, घर में राम के साथ और देवताओं के नाम का समावेश होने लगा जैसे महेश, देवेश, इंद्रा, विष्णु, कृष्णा, सुरेश, आदि। अब इसके साथ ही घर में लड़कियों के पैदा होने पर उनका अलग से नाम ढूंढने की जरूरत नहीं, जैसे भाई का नाम महेश तो बहिन का महेशी, सुरेश भाई का बहिन का सुरेशी। नाम तो रख देते थे लेकिन नाम को याद रखने की झंझट भी कोई नहीं उठाता। ये नाम सिर्फ स्कूल में लिखवाने के काम आते थे। गांव में तो फलाने का लोंडा, फलाने को छोरा, फलाने को लाला या लाली ,फलाने को मोंडा या मोंडी आदि ही बुलाते थे.

ये ही हमारी पहचान थी। और घर में मम्मी भी हमें प्यार से कई उपनामों से पुकारती थी। उपनाम मम्मी के मूड और हमारे कुर्दन्तों की दास्तान की कलई खुलने के साथ रोज बदलते जाते थे। अच्छे मूड पर छोरा और गुस्से में तो कई उपनाम एक साथ जैसे निपुते, करम ठोक, करम जले, आंसी जनम को राक्षस आदि नाम से नवाजे जाते।

आजकल नाम को लेकर जैसे न्यूमेरोलॉजी वालों ने हाइप क्रिएट किया है, उसे देखकर कभी-कभी माथा पकड़ लेता हूँ। मेरी संस्था के मेम्बर्स की लिस्ट बना रहा था कि कई नामों में बड़े ऑब्जेक्शन आए। किसी के नाम में एक एक्स्ट्रा ‘ओ’ लग गया, एक एक्स्ट्रा ‘ए’ लग गया, किसी के नाम में दो ‘एस’ की जगह एक ‘एस’। बस इसी बात पे कई सदस्य भड़क गए | ऋतिक रोशन के नाम के आगे एक ‘एच’ क्या लगा, सभी इस नाम के रिफाइनिकरण में अपने आप को खपा दिए हैं।

विलियम शेक्सपियर ने अपने एक प्रसिद्द प्यार के महाकाव्य नाटक ‘रोमियो और जुलियट’ में संवाद में कहलवाया था कि ‘नाम में क्या रखा है” लेकिन हम भारतवासी ‘ऐसा नहीं है की नाम में क्या रखा है यह कहकर हम पल्ला झाड ले,नहीं ! नाम की अपनी एक विशेषता होती है, जिसे संतों ने भी पहचाना है। ‘राम नाम की लूट’ का उल्लेख करते हुए, यह बताया गया है कि इस लूट का लाभ उठाने का अवसर सभी के लिए है। वहीं, राजनीतिक पार्टियाँ भी इसे काफी गंभीरता से लेती आई हैं, और राम के नाम पर वर्षों से लाभ उठा रही हैं।, पर पता नहीं फिर भी क्यूँ आजकल नाम बदलने की कवायद बहुत चल रही है। नगरों के नाम, सड़कों के नाम, स्मारकों के नाम सब बदले जा रहे हैं। ये नाम में बदलाव भले ही हो रहे हों, लेकिन असल में कुछ भी महत्वपूर्ण बदल नहीं रहा है। अब अगर गुलाब को धतूरा कह देंगे तो क्या वो अपनी खुश्बी छोड़ देगा नहीं न !

लोगों को नाम बड़ा करने की ,नाम करने की खुजली है,और इसी खुजली को शांत करने के लिए शहर में कई सामाजिक संस्थाएं उग गयी है,हर कोई दावा कर रहा है की हमारी संस्था ज्वाइन करो यहाँ तुम्हारा बड़ा नाम होगा । और लोग एक संस्था से दूसरी संस्था में ताबड़ तोड़ भागे जा रहे है की कहीं तो उनका नाम होगा

वैसे, हमारा तो बचपन से ही इस नामकरण प्रणाली से बहुत कुछ वैर सा रहा है, बायोलॉजी में नोमेनक्लेचर प्रणाली को देखते ही बुखार आ जाता था। कीड़े मकोड़े जानवर पक्षी सब के राज्य , कुल ,जाती ,प्रजाती ,वंश ,उपजाती और फिर नाम –सच पूछो तो रटते रटते आंसू आ जाते थे
अब लोग नामों के प्रति बहुत सजग हो गए हैं, पहले गाँव में दादा ,दादी ,बुजुर्ग प्यार से कुछ नाम बिगाड़कर बोलते थे तो भी उस प्यार और स्नेह में सब एक्सेप्ट कर लेते कोई शिकायत नहीं। मेरी नानी भी मुझे मुकस कहती थी , आज कल तो माँ बाप भी अगर ढंग से नाम नहीं पुकारे तो बच्चा चिढ़ जाता है। नाम के प्रति इतना लगाव पहले कभी नहीं था।
बहुत पहले अमिताभ बचन की फिल्म लावारिस में बता ही दिया-जो है नाम वाला वाही तो बदनाम है –इसी के चलती सभी नामदार नेता ,ऑफिसर ,बिज़नस मेन अपने नाम को बदनाम करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे है

काका हाथरसी ने तो इस नाम बड़े और दर्शन छोटे कहावत के आधार पर अपनी एक रचना जो बड़ी प्रसिद्ध हुई है “नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।
कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।“
अंत में हम सभी जानते है ये राम नाम ही है जो राम नाम सत्य हो जाने पर आदमी का परलोक सुधारने के काम आता है |

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